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Thursday, 10 October, 2024
होममत-विमतवाजपेयी से लेकर मोदी तक, कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान की गुप्त शांति वार्ता हमेशा विफल क्यों रही है

वाजपेयी से लेकर मोदी तक, कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान की गुप्त शांति वार्ता हमेशा विफल क्यों रही है

भले ही पाकिस्तान और भारत में सरकारें बदल गई हों, लेकिन किसी भी राजधानी में गणना नहीं हुई है. नई दिल्ली को लगता है कि कश्मीर पर समय उसके पक्ष में है.

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पांच साल पहले सर्दियों की एक सुबह देर से, एक पोलो खेलने वाला रईस मध्य लंदन के एक अपमार्केट होटल में पहुंचा, इस उम्मीद में कि उसने जितने भी बेहतरीन मैच खेले थे, उन्हें खत्म करना चाहता था. इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस के पूर्व उप प्रमुख मेजर जनरल साहिबजादा इसफंदियार पटौदी को उस गुप्त मिशन के लिए चुना गया था, जिन्हें उस व्यक्ति से मिलना था, जिसने लंबे समय तक पाकिस्तानी खुफिया जानकारी के खिलाफ भारत के गोलकीपर के रूप में काम किया था. एथनिक तमिल, लेकिन पंजाबी भाषी, जनरल के गंभीर साथी ने पाकिस्तान में जिहादियों के खिलाफ रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के संचालन की कमान संभाली.

पटौदी ने अपनी तीन बैठकों में से पहली में बताया, तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा, नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार आईएसआई के गुप्त युद्ध को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे. अपनी योजनाओं का समर्थन करने के लिए, उन्हें कश्मीर पर रियायतों के रूप में भारत की सहायता की आवश्यकता थी.

इस हफ्ते की शुरुआत में, पाकिस्तानी स्तंभकार हामिद मीर और जावेद चौधरी ने बताया कि 2018 की गुप्त बैठकों ने इतिहास के पाठ्यक्रम को लगभग बदल दिया. अप्रैल 2021 में हिंगलाज माता मंदिर की तीर्थ यात्रा के बाद, उनके मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ मिलना था और कश्मीर में यथास्थिति को बनाए रखने के लिए एक डील की घोषणा करनी थी. राजनीतिक प्रतिक्रिया के डर से खान के समझौते से पीछे हटने के बाद शिखर सम्मेलन की योजना ध्वस्त हो गई.

इन नाटकीय खुलासों पर न तो इस्लामाबाद और न ही नई दिल्ली की ओर से कोई प्रतिक्रिया आई है. इसके अलावा, बताई गई बातों के बारे में संदेह होने के बहुत सारे कारण हैं, जो कि जनरल बाजवा द्वारा आयोजित ब्रीफिंग पर काफी हद तक निर्भर करते हैं.

डिटेल्स को छोड़कर, हालांकि, रिपोर्ट दोनों देशों में नेताओं द्वारा शांति की लगातार खोज को रेखांकित करती है- और ‘ऐतिहासिक’ अवसरों के आधार पर वार्ता हमेशा विफल रही है.

गुप्त कश्मीर संवाद

कारगिल में अपनी हार के बाद, सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ ने कश्मीर में हिंसा को बढ़ा दिया: संघर्ष के बाद के वर्षों में भारत ने युद्ध में जितने सैनिकों को खोया, उससे कहीं अधिक सैनिकों को विद्रोह-विरोधी में खो दिया. स्कॉलर अर्जन तारापोर लिखते हैं, “भारतीय सेना की प्रतिकूल स्थितियों तैयारी की” का जायज़ा लेने के लिए केवल, 2001 में संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सैन्य प्रतिशोध की धमकी दी. पूरी तरह से युद्ध शुरू होने और बात न्यूक्लियर बम तक पहुंच जाने के जोखिम को देखते हुए भारत पीछे हट गया.

भले ही उन्हें इससे काफी खुश होना चाहिए था, पर जनरल मुशर्रफ ने 2003 में नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम के लिए सहमति व्यक्त की और प्रधानमंत्री वाजपेयी और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ गुप्त वार्ता को सहमत हुए. जनरल मुशर्रफ की कैबिनेट में गृहमंत्री लेफ्टिनेंट-जनरल मोइनुद्दीन हैदर, ने बताया कि यह फैसला इसलिए लिया गया क्योंकि जिहाद को बढ़ावा देने से देश को विकट आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा.

2007 के अंत में, मनमोहन सिंह के गुप्त दूत सतिंदर लांबा ने कहा कि दोनों देश चार-सूत्रीय फॉर्मूले पर सहमत हुए, जिसने नियंत्रण रेखा को सीमा के रूप में स्वीकार कर लिया गया – लेकिन कश्मीर के दोनों पक्षों को उच्च स्तर की स्वायत्तता दी. हालांकि, 26/11 हमलों के बाद यह समझौता टूट गया.

सीक्रेट डायलॉग की फाइलें 2014 की गर्मियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके पूर्ववर्ती द्वारा सौंपी गई थीं.

हालांकि, उस गर्मी में एलओसी पर तनाव बढ़ गया था, लेकिन जल्द ही शांति निर्माण के प्रयास फिर से शुरू हो गए. 2015 के अंत में, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने बैंकॉक में अपने समकक्ष नासिर जंजुआ से मुलाकात की. बैठक के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनकी पोती की शादी के अवसर पर को बधाई देने के लिए लाहौर में एक नाटकीय अघोषित यात्रा की.

2008 की तरह, हालांकि, इस मेल-मिलाप पर हमला हुआ: आतंकवादियों ने नए साल की शुरुआत में पठानकोट में एक भारतीय वायु सेना के अड्डे पर हमला किया, पीएम मोदी की यात्रा के कुछ ही दिनों बाद. भले ही गुप्त रूप से डोभाल और जांजुआ की मुलाकात ने शांति प्रक्रिया को बनाए रखने की कोशिश की पर बढ़ती हिंसा ने शांति की संभावना को खत्म कर दिया.


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बाजवा की शांति स्थापित करने की कोशिश

ऐसा लगता है कि शांति प्रक्रिया को फिर से शुरू करने के प्रयास अक्टूबर 2018 में शुरू हुए थे जब जनरल बाजवा ने यूनाइटेड किंगडम के तत्कालीन चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल निकोलस पैट्रिक कार्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मार्क सेडविल के साथ लंदन का दौरा किया था. जनरल बाजवा के ब्रिटेन से गहरे व्यक्तिगत संबंध थे, जो उनकी भाभी अस्मा बाजवा और भाइयों तारिक और जावेद बाजवा का घर है. लंदन भी दुनिया के कुछ उन देशों में शामिल था जो पाकिस्तान को सहानुभूतिपूर्ण सुनता था.

गिरती हुई अर्थव्यवस्था का सामना करते हुए- और तहरीक-ए-तालिबान जिहादियों के साथ एक जानलेवा टकराव में फंसे-जनरल बाजवा इस नतीजे पर पहुंचे थे कि उन्हें भारत के साथ शांति की जरूरत है. बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बीच एफएटीएफ ने इसे एक टेरर फाइनेंसिंग वॉचलिस्ट में डाल दिया था.

उनसे पहले जनरल मुशर्रफ की तरह ही सेना प्रमुख ने गुप्त वार्ता शुरू करके इस परिस्थिति से बाहर आने की कोशिश की. लंदन से प्रोत्साहित होकर, ISI एक बैठक के लिए R&AW तक पहुंची. इसके बाद हुई बातचीत के बारे में कुछ विवरण सामने आए हैं, लेकिन माना जाता है कि कुमार और पटौदी ने कई प्रस्तावों पर चर्चा की, जिसमें नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम बहाल करना भी शामिल था.

यह नयी वार्ता 2019 के पुलवामा आतंकवादी हमले की वजह से पटरी से उतर गई थी. जनरल बाजवा पर भरोसा करने का काफी बड़ा नुकसान हुआ था. हालांकि, नई दिल्ली के ऊपर फिर से इस बात का दबाव बनने लगा कि वह आर्मी चीफ को एक और मौका दे. बालाकोट पर हवाई हमले के बाद अबू धाबी के क्राउन प्रिंस अबू मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान ने पीएम मोदी और इमरान को फोन किया. अल नाहयान के राजनयिक अहमद अल-बन्ना ने बाद में कहा, दोनों नेताओं से “शांतिपूर्ण तरीके से मतभेदों को सुलझाने की कोशिश करने” का आग्रह किया गया है.

पश्चिमी देशों ने सावधानीपूर्वक इन कॉल्स का समर्थन किया. जून 2019 में लंदन की यात्रा के दौरान, बाजवा ने ब्रिटेन से गुप्त वार्ता को फिर से शुरू करने की सुविधा देने का आग्रह किया. जनरल ने जोर देकर कहा कि वह पुलवामा हमले की योजना से अनभिज्ञ थे और आगे के हमलों को रोकेंगे.

कश्मीर गतिरोध

फरवरी 2021 की शुरुआत में, डोभाल ने तत्कालीन-आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद से गुप्त रूप से मुलाकात की. दो कारकों ने फिर से बात करने के भारत के फैसले को आकार दिया. भले ही पाकिस्तान में राजनेताओं ने अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को रद्द करने के बाद भारत के खिलाफ एक विवादात्मक हमला किया, लेकिन जिहादी हिंसा कम रही. भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ने के बावजूद इस्लामाबाद ने नियंत्रण रेखा पर सैन्य दबाव नहीं डाला.

डोभाल-फ़ैज़ डायलॉग ने 2021 में सीमा संघर्ष विराम की बहाली के लिए जमीन तैयार की. भले ही नियंत्रण रेखा के पार सीमित आतंकवादी घुसपैठ जारी रही हो, कश्मीर में हिंसा का स्तर प्रधानमंत्री मोदी के पदभार ग्रहण करने के बाद से सबसे निचले स्तर पर आ गया है. आंकड़ों से पता चलता है कि जनरल बाजवा ने जिहादी समूहों का मुंह बंद करने के लिए अपनी बात रखी है- कम से कम महत्वपूर्ण मामलों में.

अगर इमरान कश्मीर में 2019 के बाद की यथास्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते तो शायद नई दिल्ली खुश होती. पिछले साल, पाकिस्तान में ब्रिटेन के उच्चायुक्त, क्रिश्चियन टर्नर ने एक बंद कमरे की बैठक में कहा था कि जनरल बाजवा भारत के संविधान के रद्द किए गए अनुच्छेद 35ए की बहाली की मांग कर रहे थे, जिसने जम्मू और कश्मीर राज्य को “स्थायी” निवासियों को ‘भूमि खरीदने का अधिकार दिया था.

जनरल बाजवा ने तर्क दिया कि उन्हें इन राजनीतिक रियायतों की जरूरत थी ताकि कश्मीर में सत्ता प्रतिष्ठान के कट्टरपंथियों के दबाव को कम किया जा सके- उनमें इमरान भी शामिल थे.

जनरल बाजवा ने तर्क दिया कि उन्हें इन राजनीतिक रियायतों की जरूरत थी ताकि कश्मीर में सत्ता प्रतिष्ठान के कट्टरपंथियों के दबाव को कम किया जा सके- उनमें इमरान भी शामिल थे.

उसके बाद से भले ही पाकिस्तान में सरकार बदल गई हो, लेकिन किसी देश की कैलकुलेशन नहीं बदला है. भारतीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार पाकिस्तान के साथ कश्मीर पर बात नहीं करेगी, और यह एक ऐसी स्थिति है जिसे मंत्रिमंडल में व्यापक समर्थन प्राप्त है.

भारतीय अधिकारियों का तर्क है कि कश्मीर पर पाकिस्तान पीछे इसलिए हटा है क्योंकि जिहादियों के खिलाफ लड़ाई में उसे वित्तीय समस्याओं, अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के जोखिम और युद्धों में ज्यादा से ज्यादा सेना के जवानों के मरने की संभावना बढ़ रही थी. आगे अधिकारियों ने कहा कि भले ही जिहादी ग्रुप्स पर लगाम लगाई गई हो, लेकिन, उन्हें खत्म नहीं किया गया है. नई दिल्ली का मानना है कि कश्मीर मामले में वक्त उनके साथ है लेकिन यह समय बताएगा कि उन्होंने सही फैसला किया था या कोई अवसर गंवाया.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)
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