दिसंबर 1971 में लेफ्टिनेंट-कर्नल जनरल इंदरजीत सिंह को सेना के बदगुमान हेडक्वार्टर की ओर से आदेश मिला कि 13 दिसंबर को हमला कर दो, लेकिन उन्होंने इस आदेश को यह कहकर टालने की कोशिश की थी कि 13 की संख्या अशुभ मानी जाती है. तैयारी की कमी के कारण गढ़ा गया यह बहाना भविष्यवाणी जैसा साबित हुआ. पहाड़ पर खच्चरों के लिए बनी एक छोटी-सी झोंपड़ी से, आधी-अधूरी तैयारी के साथ सैनिकों ने दारुछियां की चोटी की ओर चढ़ाई शुरू की, लेकिन उनके रास्ते की मिट्टी उनके खून से रंग गई थी. कमांडरों ने जब तक हमला बंद करने का आदेश दिया तब तक सेना के पांच अधिकारी, सात जेसीओ, और 18 जवान मारे गए थे, 74 अन्य सैनिक लापता पाए गए थे.
1971 में जहां यह लड़ाई हुई थी उसी जगह पर पिछले हफ्ते फिर लड़ाई शुरू हो गई. नांगी, टेकरी, जंगल टेकरी, और बंप में भारतीय सेना की चौकियों पर तैनात सैनिकों ने 2021 में युद्धविराम लागू होने के बाद पहली बार नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार गोलियां दागीं. इन सभी चौकियों को 1971 में दारुछियां में आमने-सामने की लड़ाई में अपने कब्जे में लिया गया था.
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में हुआ क्या था. सेना ने शुरू में दावा किया कि एलओसी पर घुसपैठ की गई थी, लेकिन बाद में इस दावे को वापस ले लिया और ज़ोर देकर कहा कि उकसाऊ कार्रवाई का माकूल जवाब दे दिया गया. उधर, पाकिस्तानी फौज ने कहा कि उसने एलओसी के पार अपने हिस्से में गश्त शुरू की थी जिसमें अचानक एक पुरानी बारूदी सुरंग फट गई, जिसमें लांस नायक मुहम्मद नसीर मारे गए.
जैसा कि पहले भी अक्सर होता रहा है, मुमकिन है कि इस बार भी भारत और पाकिस्तान अपने-अपने गलत आकलनों और कदमों के कारण एलओसी पर एक और संकट की ओर कदम बढ़ा रहे हों.
उस क्षेत्र में इधर के कुछ हफ्तों से तनाव बढ़ रहा है क्योंकि जिहादी तत्व पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में एलओसी की ओर से घुसपैठ करने की कोशिश कर रहे हैं. पिछले महीने अखनूर के पास दो भारतीय सैनिक जिहादियों द्वारा सेना की गश्त के रास्ते में ‘आइईडी’ के विस्फोट में मारे गए, लेकिन पाकिस्तान यह आरोप लगाता रहा है कि भारतीय सेना उसके सैनिकों को निशाना बनाने के लिए आइईडी बिछा रही है और गोलीबारी में उनके दो सैनिक घायल हुए हैं.
वैसे, कश्मीर में हिंसक वारदात में कमी आई है. 2012 के बाद से पिछले साल सबसे कम लोग मारे गए, लेकिन पाकिस्तान के तेवर कड़े हो रहे हैं. पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर ने फरवरी में हुए कश्मीर एकता समारोह में घोषणा की कि “कश्मीर के लिए तीन बार लड़ाई लड़ी जा चुकी है. अगर दस और लड़ाई लड़ने की ज़रूरत पड़ी तो हम लड़ेंगे”. भारत के कूटनीतिक सूत्रों ने पिछले महीने बताया कि जनरल मुनीर ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गठित पाकिस्तानी संसदीय समिति की गोपनीय बैठक में कहा कि भारत बलूचिस्तान में हिंसा भड़का रहा है.
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कारगिल के बाद संकट प्रबंधन
भारत और पाकिस्तान, दोनों ने परमाणु हथियारों की वजह से शांति बनाए रखने का सबक सीखा है. 1998 में दोनों देशों ने जब परमाणु परीक्षण किए थे तब तत्कालीन सेना अध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध छेड़ा था. जनरल मुशर्रफ तब सही ही सोच रहे थे कि परमाणु युद्ध के जोखिम के कारण भारत इस युद्ध को बढ़ाएगा नहीं. कारगिल में वे हारे, लेकिन प्रहार करते रहे. 1999 से 2003 के बीच भारत को जिहादी हमलों में अपने 2,125 सुरक्षा सैनिकों को गंवाना पड़ा. यह संख्या कारगिल में मारे गए सैनिकों के संख्या से चार गुना ज्यादा थी.
जैश-ए-मुहम्मद ने 2001 में भारतीय संसद पर जो हमला किया उसने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को यह विश्वास दिला दिया था कि इस खतरे को रोकने के लिए सख्ताई करनी पड़ेगी. उन्होंने सेना को युद्ध के लिए कमर कस लेने को कहा था, जिसके बाद सेना की इतने बड़े पैमाने पर तैनाती की गई थी जैसी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तब तक नहीं की गई थी. इसके बाद, 2003 में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने इससे उलटी दिशा पकड़ते हुए घोषणा की कि भारत अपनी तरफ से “बातचीत के दरवाजे खोल रहा है”.
हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि 2001-2002 में सेनाओं की आमने-सामने तैनाती से जो मकसद पूरा करना था वह नहीं हुआ क्योंकि पाकिस्तान के पास भी परमाणु हथियार थे. विशेषज्ञों की यह राय कश्मीर में जारी हिंसा के कारण बनी थी, लेकिन यह मामला कहीं ज्यादा जटिल है. हालांकि, तेवर नरम करने के मामले में भारत ने पहल की, लेकिन जनरल मुशर्रफ के सलाहकारों का निष्कर्ष यह था कि यह संकट भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा था.
जनरल मुशर्रफ के गृह मंत्री ले.जनरल मोइनुद्दीन ने लेखक जॉर्ज पार्कोविच से कहा कि उन्होंने अपने बॉस को बता दिया है: “जनाब सदर साहब, आपकी आर्थिक योजनाएं कारगर नहीं होगी; जब तक आप आतंकवादियों से रिश्ता नहीं तोड़ेंगे तब तक लोग आपके यहां निवेश नहीं करेंगे.” राष्ट्रपति मुशर्रफ ने अनमने ढंग से ही सही, बात सुनी, जिसकी पुष्टि कश्मीर में हिंसा के आंकड़ों से होती है. आईएसआई ने जैश और लश्कर-ए-तय्यबा जैसे जिहादियों पर चुपके से लगाम कसी, तो साल-दर-साल मौतों के आंकड़े कम होते गए.
2009 में सामने आईं कुछ अहस्ताक्षरित टिप्पणियां बताती हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और जनरल मुशर्रफ के लिए काम कर रहे गुप्त दूत कश्मीर मसले पर अंतिम फैसले के करीब पहुंच गए थे. ‘रॉ’ के तत्कालीन प्रमुख, सी.डी. सहाय और आईएसआई के डायरेक्टर ले.जनरल एहसान-उल-हक की मदद से जो बातचीत शुरू हुई थी उसके तहत एलओसी को अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा बनाया जाना था और दोनों देशों के बीच आवाजाही की काफी छूट और आज़ादी दी जानी थी.
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जनरल कयानी की लड़ाई
2008 में जनरल परवेज़ अश्फाक कयानी जब पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष बने तब यह प्रक्रिया उलट दी गई. बताया जाता है कि 2008 में, काबुल में भारतीय दूतावास पर फिदायीन हमले में आईएसआई का हाथ होने के सबूत के साथ अमेरिका ने पाकिस्तानी फौज से सीधा सवाल किया. उसी साल मुंबई में भी भीषण आतंकवादी हमला किया गया. सीआईए के पूर्व प्रमुख माइकल हेडेन ने लिखा है कि उन्हें पक्का यकीन था कि 2008 में मुंबई में किए गए हमलों की साजिश रचने और उसे अंजाम देने में आईएसआई का हाथ था, लेकिन वह हमलावरों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रहा.
2001-02 के संकट के बाद शांति की जो कोशिशें शुरू हुई थीं उन्हें जनरल कयानी ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया. कश्मीर में हिंसा फिर बढ़ने लगी. जिहादियों की घुसपैठ कराने के लिए पाकिस्तानी फौज ने गोलीबारी शुरू कर दी तब एलओसी पर स्थिति ज्यादा से ज्यादा विस्फोटक होती गई. दोनों सेनाएं बर्बर हमले और जवाबी हमले करने लगीं और सैनिकों के सिर तक काटे गए.
उरी में 17 भारतीय सैनिकों की हत्या के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलओसी के पार जाकर हमले करने का आदेश दिया. इसका मकसद भारत को 2001-02 वाले संकट जैसी स्थिति में न उलझाते हुए पाकिस्तान को आतंकवाद का इस्तेमाल करने से रोकना था. इन हमलों से हालांकि, मामूली नुकसान पहुंचाया गया, लेकिन भारत पाकिस्तान को यह चेतावनी देना चाहता था कि अगर आतंकवाद जारी रहा तो भारत युद्ध भी कर सकता है.
आईएसआई के कमांडरों को कश्मीर से बाहर आतंकवादी हमले बंद करने पर मजबूर किया गया, लेकिन उन्होंने कश्मीर के अंदर फिदायीन हमलों के जरिए हिंसा बढ़ा दी. इसके बाद तीन साल तक आतंकवादी हमलों और एलओसी पर झड़पों का सिलसिला चलता रहा. तब भारत ने पुलवामा में जैश-ए-मुहम्मद के अड्डे पर बमबारी की.
बाजवा का निष्कर्ष
2019 के संकट के बाद दोनों पक्षों ने कदम वापस खींचे. 2003 में जैसा हुआ था, उसी तरह मेजर जनरल इस्फानदियार पटौदी और आर. कुमार के बीच लंदन के एक होटल में गुप्त बैठक के बाद ‘रॉ’ और आइएसआइ ने वार्ता का आधार तैयार किया. उस वार्ता के थोड़े ब्योरे ही सामने आए हैं, लेकिन उसने 2021 के युद्धविराम का आधार तैयार किया. जनरल मुशर्रफ की तरह जनरल कमर जावेद बाजवा भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बदहाल पाकिस्तान को भारत के साथ संकट में उलझने से कोई वास्तविक आर्थिक लाभ नहीं होने वाला, बल्कि यह बड़े युद्ध की ओर ही ले जाएगा.
लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह थी कि भारत और पाकिस्तान के बीच अमन के लिए जन समर्थन का अभाव था. जैसा कि लेखक क्रिस्टोफर क्लारी ने गहन विश्लेषण किया है, राजनीतिक नेता वार्ता शुरू करने को लेकर दुविधा में हैं. मोदी और उनके मंत्रिमंडल ने फिर से वार्ता शुरू करने में कम ही दिलचस्पी दिखाई है. प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने 2022 में भारत के साथ फिर से सीमित स्तर पर व्यापार शुरू करने से यह कहकर मना कर दिया था कि “वहां कत्लेआम जारी है और कश्मीरियों को उनके अधिकारों से महरूम किया जा रहा है”. पाकिस्तानी नीतिकार इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि वार्ता में कश्मीर मसले को भी शामिल किया जाना चाहिए, जबकि भारत इससे मना करता रहा है.
अब पिछले हफ्ते एलओसी पर घटी घटनाओं से साफ है कि फिलहाल दोनों में से किसी देश के लिए वक्त माकूल नहीं है. 2024 में भारतीय सेना और कश्मीर में बसे हिंदुओं पर जो सीमित आतंकवादी हमले हुए हैं वह भी भारत को सीमा पार जाकर हमला करने को मजबूर कर सकते थे. इसी तरह, एलओसी पर हुई झड़पें बड़ा रूप ले सकती हैं, जैसा कि 1999, 2008, और 2016 में सेनाओं की बड़ी तैनाती के बाद हुआ था.
जनरल मुनीर के बयान यही संकेत देते हैं कि एलओसी पर गतिरोध से उन्हें पाकिस्तान के हित सधते नहीं नज़र आते. हिंसा का थोड़ा-थोड़ा इस्तेमाल उन्हें लाभकारी दिख सकता है, लेकिन उनके पूर्ववर्ती यह सबक सीख चुके हैं कि इसके बाद एक छोटा-सा कदम ही इस पूरे क्षेत्र को संकट में डालने के लिए काफी होगा.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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