scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतभारत को सैन्य पृष्ठभूमि का रक्षा मंत्री चाहिए, बेशक इसके साथ खतरा भी जुड़ा है

भारत को सैन्य पृष्ठभूमि का रक्षा मंत्री चाहिए, बेशक इसके साथ खतरा भी जुड़ा है

मोदी सरकार ने रक्षा के महकमे में कई सुधारों की शुरुआत की है लेकिन केवल राजनीतिक क्षमता व कौशल रखने वाला रक्षा मंत्री शायद ही उन सुधारों को आगे बढ़ा पाएगा.

Text Size:

नरेंद्र मोदी की सरकार ने रक्षा महकमे में लंबे समय से अटके और बेहद जरूरी ढांचागत सुधारों की शुरुआत दिसंबर 2019 में की, जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) द्वारा की गई एक प्रशंसनीय पहल कहा जाएगा. इसके तहत चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का पद बनाया गया, जो तीन जिम्मेदारियों की टोपियां धारण किए होगा. वह रक्षामंत्री का सैन्य सलाहकार होगा, स्टाफ कमिटियों के प्रमुखों का स्थायी अध्यक्ष होगा और रक्षा मामलों के नवगठित विभाग का प्रमुख भी होगा. गौरतलब है कि सीडीएस का पद उसे थिएटर/संयुक्त कमानों के गठन का अधिकार भी प्रदान करता है.

रक्षा सुधारों को पीएमओ की ओर से आगे बढ़ाया जाना इस मामूली बात को ही उजागर करता है कि कई राष्ट्रीय लक्ष्यों को लेकर तमाम केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों के संकीर्ण स्वार्थों को परे करने के लिए एक ताकतवर पीएमओ जरूरी है. बेशक यह कोई आदर्श समाधान नहीं है, मगर तमाम तरह के घरेलू सत्ता केंद्रों वाले विविधतापूर्ण तथा जटिल देश के लिए इसे प्रभावी उपाय पाया गया है. करगिल युद्ध के बाद, पीएमओ के लिए ‘थिंक टैंक’ के रूप में काम करने के लिए सीधे इसके अधीन राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) के गठन ने नीति निर्धारण की उसकी क्षमता को मजबूती दी है. लेकिन इसका नकारात्मक पहलू यह है कि ताकतवर प्रधानमंत्रियों की कथित ख़्वाहिशों को पूरा करने की मानवीय कमजोरी अपना खेल कर सकती है. यह खतरा हमेशा बना रह सकता है. वैसे, मोदी सरकार ने जो रक्षा सुधार शुरू किए उनके पीछे मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को आगे बढ़ाना ही है.

रक्षा मंत्रालय में ढांचागत सुधार अब एक मुख्य और विशाल चुनौती है. इन सुधारों को गहराते भौगोलिक-राजनीतिक खतरों और वित्तीय संसाधन की गंभीर सीमाओं को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ाना होगा. यह राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के, जिसके बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर, तहत राजनीतिक मार्गदर्शन से भी वंचित है. जबकि समय और वित्तीय संसाधन की भारी कमी है, प्रस्तावित रक्षा सुधारों को केवल सीडीएस के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. इनके लिए वैसी राजनीतिक दूरदर्शिता और वैसा समर्थन चाहिए जैसा भारत के इतिहास में अब तक नहीं देखा गया. केवल रक्षामंत्री की राजनीतिक क्षमता ही सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त नहीं होगी.


यह भी पढ़ें: सिस्टम से खिलवाड़ न करें, Covid की दूसरी लहर में लोगों की ख़ुशी के लिए कौटिल्य के लक्ष्य पर लौटें


सैन्य पृष्ठभूमि वाला रक्षा मंत्री क्यों चाहिए?

राजनीतिक क्षमता के साथ-साथ आज सैन्य मामलों से लेकर सार्वजनिक वित्तीय व्यवस्था और रक्षा उद्योग के बड़े ठिकानों के कामकाज की समझ भी जरूरी है. सुधारों का तकाजा है कि दीर्घकालिक बड़े परिणाम देने वाले फैसले किए जाएं. महादेशीय और समुद्री ताकत के निर्माण में संतुलन इसका एक बड़ा उदाहरण है. इसके लिए ‘हार्ड पावर’ की मांगों की समझ और परमाणु क्षमता समेत विभिन्न रणनीतिक संदर्भों से जुड़े राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने में उसकी उपयोगिता का ज्ञान भी चाहिए. तकनीकी जटिलता जिस तरह बढ़ रही है उसके कारण सैन्य अनुभव पर आधारित ज्ञान के सिवा दूसरे विकल्पों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती.

यह कोई संयोग नहीं है कि दुनिया भर के देशों के रक्षा मंत्रालयों की कमान उन लोगों ने संभाल राखी है, जो कभी फौजी वर्दी पहनकर युद्ध का अनुभव ले चुके हैं. आज कई देशों के अलावा अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन में सैन्य पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति ही रक्षामंत्री की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री हिम्मत सिंहजी, और अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में थोड़े समय के लिए रक्षामंत्री रहे जसवंत सिंह सैन्य पृष्ठभूमि के थे. लेकिन दोनों को उनके सैन्य अनुभव से ज्यादा राजनीतिक कौशल के लिए मंत्री बनाया गया था. अब शायद समय आ गया है कि सैन्य पृष्ठभूमि वाले को रक्षा मंत्रालय की कमान सौंपी जाए. इसकी बेहद जरूरत कई कारणों से है.

मुख्य कारण भारत की सुरक्षा को लेकर बढ़ती चिंता है. चीन की ओर से पहली बार महादेशीय और समुद्री क्षेत्र में खतरा बढ़ गया है. पाकिस्तान से टक्कर भी संभावित है और रक्षा संबंधी तैयारियों में इस बात का खयाल भी रखना होगा. इस तैयारी की गति दुनिया भर में भौगोलिक-राजनीतिक तनावों के कारण तेज हो रही है. समय बर्बाद नहीं किया जा सकता है. इन तैयारियों के लिए अतिरिक्त वित्तीय संसाधन की जरूरत होगी लेकिन कोविड की दूसरी बेकाबू लहर के कारण झटके खा रही अर्थव्यवस्था यह संसाधन आसानी से नहीं जुटा सकती. इसमें शक नहीं कि आर्थिक दबाव जबर्दस्त है. सैन्य पृष्ठभूमि वाला रक्षामंत्री ऐसे माहौल में भी सुधारों को आगे बढ़ाते हुए रक्षा तैयारियों को दिशा और गति प्रदान करता रहेगा. रक्षा मंत्रालय में रक्षा संबंधी निर्णय प्रक्रिया के मुख्य फ्रेमवर्क का काम रणनीतिक लक्ष्यों और वित्तीय सहायता तथा दूसरे साधनों के बीच संतुलन बनाना है. इसके लिए बहुआयामी रणनीतिक संदर्भों में राजनीतिक तथा सैन्य पहलुओं के बीच तालमेल बिठाने का कौशल चाहिए.

जाहिर है, इसके लिए दोनों पहलुओं का ज्ञान जरूरी है, जो उस पूर्णकालिक राजनीतिक नेता के लिए शायद मुमकिन नहीं हो जिसने कभी फौजी वर्दी नहीं पहनी. रक्षामंत्री के स्तर पर कार्रवाई में असली फैसला यह करना होता है कि कौन सा फैसला सेना के भरोसे छोड़ा जाए और किस फैसले के लिए रक्षा मंत्रालय और पीएमओ के उच्चतर परिप्रेक्ष्य की जरूरत है. हालात सेनाओं के बीच सहयोग की कमी से खराब होते हैं, जो कि सुधारों की जरूरत को और प्रमुखता प्रदान करती है. यह मान लेना गलत होगा कि राजनीतिक नेतृत्व ने फैसला कर दिया, तो अब सेना उसे राजनीतिक दूरदर्शिता और समर्थन के बिना आगे बढ़ा लेगी.

सोचा-समझा जोखिम

यह भी सच है कि इससे लोकतंत्र का सैन्यीकरण हो सकता है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. 1962 से पहले, कृष्ण मेनन के जमाने में सेना के राजनीतीकरण से मिले सबक को भूला नहीं जा सकता. रक्षा मंत्रालय में सेना की प्रस्तावित प्रमुख भूमिका को आपातकालीन उपाय ही माना जा सकता है, जो कि अस्थायी ही हो सकता है और जिसमें राजकाज में सैन्य सोच को दाखिल करने के खतरों का खयाल भी रखा जाना चाहिए. ताकतवर पीएमओ को अगर बौद्धिक रूप से सक्षम ‘एनएससीएस’ का सहयोग मिले तो वह सुधारों की प्रक्रिया को राष्ट्रीय स्तर की रणनीतिक दृष्टि प्रदान कर सकता है और संसाधनों को तेजी से जुटाने में भी भूमिका निभा सकता है. ऐसा रक्षामंत्री राजनीतिक लोकप्रियता के मामले में कमजोर दिख सकता है. लेकिन असली चीज यह है कि सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद और दूसरे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर होने वाले विचार-विमर्श को ज्ञान का आधार हासिल होगा.

जो भी हो, रक्षामंत्री का चयन तो राजनीतिक फैसले से ही होगा और वह वही होगा जिसमें प्रधानमंत्री को पूरा भरोसा हो. राजनीतिक नियुक्ति होने के कारण संबंधित मंत्री को काम न कर पाने पर पद से तुरंत हटाया भी जा सकता है. यानी, प्रधानमंत्री का वर्चस्व बना रहेगा. बड़ा और स्थायी खतरा यह है कि घरेलू राजनीतिक लाभ के लिए सेना और पीएमओ के बीच साठ-गांठ हो जाए. इसका कोई आसान उपाय नहीं है, सिवा इसके कि मौजूदा बाहरी खतरों और घरेलू महामारी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से एक बड़ी चुनौती के रूप में लिया जाए और इस तरह का जोखिम मोल लेने से बचा जाए.

भारत में प्रतिभा और ज्ञान की कमी नहीं है. सावधानीपूर्वक जांच के बाद रक्षामंत्री पद की जिम्मेदारियों को पूरा करने वाले व्यक्ति का चयन करना मुश्किल नहीं है. लेकिन यह इतना बड़ा राजनीतिक फैसला है, जो सिर्फ प्रधानमंत्री ही कर सकता है. चुनाव यह करना है कि क्या फौजी लिहाज से ज्यादा प्रभावी कदम उठाया जाए, जिसके साथ राज्यतंत्र के सैन्यीकरण का खतरा जुड़ा है. उम्मीद यही की जा सकती है कि जब तक ताकतवर पीएमओ घरेलू राजनीतिक दांव जीतने के लिए सेना का इस्तेमाल नहीं करता, तब तक सैन्यीकरण का खतरा दूर रहेगा. अगर इस सिद्धांत का पालन किया गया तो सैन्यीकरण का खतरा काफी घट जाएगा. सुरक्षा का जो माहौल है और उसके साथ सैन्यीकरण को लेकर जो गलतफहमियां जुड़ी हैं. उनके कारण फैसला इस सवाल के जवाब पर निर्भर होगा कि क्या भारतीय सेना लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने के लिए नेताओं के साथ मिलीभगत करेगी?

40 साल तक फौजी वर्दी धारण करने के बाद मेरा खयाल है कि इस तरह का जोखिम मोल लिया जा सकता है. आखिर, भारतीय सेना को संस्थागत संस्कृति के जरिए अ-राजनीतिक होने का जो वैक्सीन निरंतर दिया जाता रहा है उस पर उसे गर्व है. लेकिन यह भी माना जा सकता है कि हम समकालीन वास्तविकता को पढ़ने में चूक सकते हैं. परंतु मैं सेना के ऊपर अपना दांव लगा सकता हूं. परिवर्तन का समय पूरी तरह आ गया दिखता है और बेहतर यही होगा कि हम सुरक्षा और स्वास्थ्य, दोनों मोर्चों पर आसान बड़े खतरों का मुक़ाबला करें. स्वास्थ्य आज का आपातकालीन संकट है. स्वास्थ्य मंत्री को इस मोर्चे पर नाकामी की नैतिक ज़िम्मेदारी तो कम-से-कम कबूल करनी चाहिए. वर्तमान रक्षामंत्री के राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल का उपयोग इस आपातकालीन स्वास्थ्य संकट से सामना करने में किया जाना चाहिए. प्रधानमंत्री रक्षा मंत्रालय की ज़िम्मेदारी किसी ऐसे उपयुक्त व्यक्ति को सौंप सकते हैं जिसके पास राजनीतिक और सैन्य अनुभव भी हो. मंत्रिमंडल में यह हेर-फेर राष्ट्रहित के लिए जरूरी दिख रहा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले. जन. प्रकाश मेनन (रिटा) स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम, तक्षशिला संस्थान, बेंगलुरू के निदेशक, और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़ें: भारतीय पुलिस को राजनीति से अलग करने का वक्त है, यह मोदी का ‘सुदर्शन चक्र’ साबित हो सकता है


 

share & View comments