scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टफौजी जमावड़ा कर चीन युद्ध की धमकी दे रहा है, भारत को इसे सही मानकर तैयार रहना चाहिए

फौजी जमावड़ा कर चीन युद्ध की धमकी दे रहा है, भारत को इसे सही मानकर तैयार रहना चाहिए

चीन की तमाम फौजी तैयारी और जमावड़ा बल प्रयोग की कूटनीति का हिस्सा हो तो भी भारत को यही मान कर चलना चलना चाहिए कि जंग का खतरा वास्तविक है और उसे इसके लिए तैयार रहना है.

Text Size:

चीनियों ने युद्ध का माहौल क्यों बना दिया है और लद्दाख में भारी फौजी जमावड़ा क्यों खड़ा कर दिया है? वे भारत से क्या चाहते हैं? भारत इस सबका किस तरह जवाब दे, यह इस पर निर्भर होगा कि इन सवालों के जवाब हमारे हिसाब से क्या हो सकते हैं.

आश्चर्य नहीं कि इस मसले को लेकर चीन विशेषज्ञों, भौगोलिक रणनीतिकारों और सैन्य योजनाकारों का कारोबार बढ़ गया है. इनके अलावा हम रणनीति के मसले पर सुन ज़ू या कौटिल्य के ज्ञान और उपदेशों की तो याद करते ही हैं. इस बीच, हिन्दी फिल्मों में जिस तरह आइटम नंबर आता है उसी तरह क्लाउजविट्ज और मेकियावली भी उभरते रहते हैं. उक्त दो प्राचीन विद्वानों से तो आप किसी भी मसले पर ज्ञानोपदेश हासिल कर ही सकते हैं, जैसे कि लोग कन्फूसियस या बुद्ध से ज्ञान प्राप्त करते रहते हैं. कोई भी इन पर तथ्यों के मामले में आपको चुनौती नहीं दे सकता.

अगर यह धारणा आपको पर्याप्त कपटपूर्ण न लगे कि आज की बड़ी शक्तियां अभी भी दो हज़ार साल पहले के रणनीतिक ज्ञान पर अमल करती हैं, तो दूसरी मान्यता को आजमा लीजिए. ओह, भारत वाले तो अभी भी शतरंज वाले पेचों में उलझे हैं, जबकि चीनी ‘गो गेम’ खेल रहे हैं. शतरंज में आप विरोधी राजा को निशाना बनाते हैं लेकिन ‘गो गेम’ में ऐसी कोई समस्या नहीं होती. इसमें दुश्मन को कई तरह की बाधाओं से इस तरह घेर लिया जाता है कि वह घुटने टेक दे.


यह भी पढ़ें: एलएसी संघर्ष को ‘खुफिया विफलता’ कहना गलत है यह भारत की वास्तविक समस्या को नजरअंदाज करता है


इसे भी एक दिलचस्प सोच कहा जाएगा, खासकर इस युग के लिहाज से जिसमें व्हाट्सएप को ही दुनिया भर में ज्ञान का बहता झरना मान लिया गया है. और तब जबकि अभी तक महामारी और वायरस विशेषज्ञ बने बैठे विद्वान टिड्डियों का हमला होते ही कीट विशेषज्ञ बन गए और सुशांत सिंह राजपूत के ख़ुदकुशी करते ही मनोविज्ञानी बन गए, तो अब वे रणनीतिकार के अवतार बने नज़र आ रहे हैं.

संस्कृति के नाम पर जो प्रचलित बाते हैं उन्हें अपने दिमाग पर हावी होने देने के दो खतरे हैं. आज चीन और भारत नयी पेचीदगियों से ग्रस्त व्यवस्थाओं में बदल गए हैं, जिन्हें इस तरह के साधारणीकरण से समझा नहीं जा सकता. ये हमारे दिमाग की खिड़कियों को बंद कर देते हैं. जब तक हम इन सांस्कृतिक और प्रजातीय जालों में उलझे रहेंगे, तब तक हमारे दिमाग पर पड़ी धुंध गहरी होती रहेगी (क्लाउजविट्ज के भक्तों से क्षमायाचना). लेकिन अगर आप वर्तमान वास्तविकताओं की ओर ध्यान देंगे तब आपको कुछ विश्वसनीय जवाब मिलेंगे.

आखिर चीन लद्दाख में क्या कर रहा है? वह क्या चाहता है?

करीब 20 साल पीछे चलें और देखें कि भारत पाकिस्तान से कैसे निबट रहा था. और याद करें कि भारत ने किस रणनीतिक दांव की खोज की थी, जिसे ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ कहा गया था. मैं नहीं बता सकता कि इस जोरदार मुहावरे का आविष्कार किसने किया था, जसवंत सिंह ने या दिवंगत ब्रजेश मिश्र ने. वैसे इनमें से किसी एक ने दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद भारत की ओर शुरू किए गए ‘ऑपरेशन पराक्रम’ का खुलासा करने के लिए इसका प्रयोग किया था. इसके तहत भारत ने सीमाओं पर सैनिकों, भारी फौजी साजोसामान, अस्लहे का ऐसा जमावड़ा किया था मानो अब जंग होने ही वाली हो. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आज लद्दाख में एलएसी के उस पार पूरब में ऐसा ही कुछ किया जा रहा है?

क्या ऐसा नहीं है कि चीनियों ने किसी प्राचीन ज्ञान की बजाय हमारी ही चाल से कोई सबक सीखा है? कि वे जो अभूतपूर्व और लगभग खुला जमावड़ा कर रहे हैं वह क्या भारत के खिलाफ ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ है? अगर ऐसा है तो वे इसके जवाब में किस नतीजे की अपेक्षा कर रहे हैं?

वे लद्दाख में जमीन के कुछ टुकड़े के लिए तो इतना बड़ा तामझाम और खतरा नहीं मोल रहे होंगे. न ही यह ‘सीपीईसी’ को कबूल करवाने, या अक्साई चीन के औपचारिक विलय या पूरब में तवांग के आकार का समर्पण करवाने के लिए ही हो सकता है. यह तो कुछ बड़ी ही महत्वाकांक्षा होगी. लेकिन यह तो पूरी होने से रही. तब 14 हज़ार फीट की ऊंचाई पर, जहां सांस लेना मुश्किल होता हो, अपने इस सारे उपक्रम से चीन आखिर क्या हासिल करना चाहता है?

एक मिनट के लिए हम मान लें कि वह ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ कर रहा है. यानी उसका संदेश यह है कि अगर तुम चाहते हो कि हम तुम्हारे सिर पर से हट जाएं तो यह करो, वह मत करो, या यहां अच्छे बच्चे की तरह रहो. या ये तीनों बातें करो. यानी सवाल है कि वह क्या-क्या चाहता है? आगे यह खेल क्या रूप ले सकता है? और भारत इसका जवाब कैसे दे?
हाल के, और रेकॉर्ड में दर्ज संदर्भ और दूसरी समानांतर घटनाओं के ब्योरे किसी प्राचीन ज्ञान या मंत्र से ज्यादा यथार्थपरक साबित होंगे. भारत ने अपनी ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ से क्या हासिल किया था? तब उसके लक्ष्य क्या थे? पाकिस्तानियों ने उसका किस तरह जवाब दिया था? मुझे एहसास है कि उस प्रकरण को उदाहरण के तौर पर लेने में खतरे हैं.

भारत बेशक पाकिस्तान नहीं है. कभी नहीं हो सकता. लेकिन हम यहां केवल जंग का खेल खेल रहे हैं. आप कह सकते हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद को अपनी सरकारी नीति बनाने से बाज आए, यह गारंटी हासिल करने के लिए भारत ने ‘ग्रीनलैंड’, ‘यलो लैंड’ या किसी और ‘लैंड’ पर दावा किया होगा.


यह भी पढ़ें: चीन एलएसी पर जमीन हथियाने के लिए नहीं बल्कि भारत को ये जताने के लिए है कि ‘बिग ब्रदर’ कौन है


वह गारंटी भारत को संसद पर हमले के एक महीने के अंदर मिल गई थी, जब परवेज़ मुशर्रफ ने दुनियाभर में प्रसारित अपने भाषण में इसका वादा किया था. बल्कि उन्होंने तो पाकिस्तान में मौजूद दाऊद इब्राहीम समेत उन 24 आतंकवादियों की सूची को भी कबूल किया था जिनकी मांग भारत ने की थी, और यह भी वादा किया था कि वे उनकी खोज करवा के भारत को सौंप देंगे “क्योंकि ऐसा नहीं है कि हमने उन्हें अपने यहां पनाह दे रखी है’.

लेकिन भारत और ठोस चीज़ की मांग कर रहा था, इसलिए जंग जैसा जमावड़ा कायम रहा. हालात तब बेकाबू होते दिखे जब आतंकवादियों ने जम्मू की कालुचक छावनी में भारतीय सैनिकों के परिवारों पर हमला किया. लेकिन संयम बना रहा, कुछ तो इसलिए कि पाकिस्तान पर विदेशी दबाव बना और ज्यादा इसलिए कि भारत ने कभी युद्ध छेड़ने का इरादा नहीं किया था. उस दौरान मैंने जसवंत सिंह, ब्रजेश मिश्र और अटल बिहारी वाजपेयी से पूछा था कि क्या इस तरह की चाल से टकराव बेकाबू हो जाने का खतरा नहीं है? एनडीटीवी पर मेरे ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में मिश्र का जवाब था कि ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ कारगर हो इसके लिए जरूरी है कि दबाव इतना असली दिखे कि कभी-कभी खुद हमें जंग का खतरा दिखने लगे. यह मजबूत देश की दबाव की चाल थी. आज जब आप एलएसी के पार पूरब की ओर देखते हैं, तब क्या ऐसा ही कुछ आभास नहीं होता?

भारत को उस चाल से काफी कुछ हासिल हुआ था. इसके बाद कई सालों तक अमन-चैन रहा. बेशक, किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि पाकिस्तान अपने वादे पर हमेशा कायम रहेगा. लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि दोनों पक्षों ने क्या सही किया और क्या नहीं किया.

भारत ने वास्तविक फौजी जमावड़े की शुरुआत तो शानदार की मगर वह यह गुर भूल गया कि अपनी जीत का ऐलान कब करना है. यह ऐलान उसी दिन किया जा सकता था जब मुशर्रफ ने वह भाषण दिया था. पाकिस्तान ने इस खेल में बहुत जल्दी ही हार कबूल करके गलती की. अगर भारत ने तब अपनी जीत की घोषणा करके जमावड़ा हटा लिया होता तो उसे लगभग उतना ही फायदा होता जितना अंततः हुआ, लेकिन बेहिसाब खर्च, तनाव और अनिश्चितता से बचा जा सकता था. इसके अलावा ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ की स्पष्ट कामयाबी दिखती. लेकिन हमारी अपेक्षाएं बहुत ऊंची थीं.

दूसरी ओर, पाकिस्तान समय के साथ दबाव से उबर गया और भारत को थकाने के लिए मोर्चे पर डटा रहा. और वह इसमें कामयाब भी हुआ. कुछ समय बाद जमावड़ा बेमानी हो गया और वह खेल पांच दिन वाले क्रिकेट टेस्ट मैच की तरह उबाऊ ड्रॉ में बदल गया.

अब भारत जब कि इस समीकरण का दूसरा पक्ष है, वह ये सबक लेकर आगे बढ़ सकता है—

1. कभी भी पीछे मत हटो, डटे रहो. विवेक का साथ मत छोड़ो, पर्दे के पीछे खुले दिमाग से बातचीत जारी रखो. लेकिन कभी भी मुशर्रफ की तरह जल्दबाज़ी में पीछे मत हटो.

2. दूसरे पक्ष के इरादों को समझने में पूरा वक़्त लो. उसकी अपेक्षाएं मामूली हैं या बेहिसाब ऊंची हैं? यह फैसला करो कि क्या उपयुक्त जवाबी कार्रवाई हो सकती है. लेकिन दबाव में कुछ भी कबूल मत करो.

3. लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहो. अगर यह लगता है कि चीन बल प्रयोग का खेल खेल रहा है और उसकी अपेक्षाएं अवास्तविक हैं, तो उसे वहां जमे रहने दो और तुम भी एलएसी के पास जमे रहो, पूरी तैयारी के साथ. उसे थका डालो.

4. और अंत में, याद रखो कि कोई दो घटनाएं एक समान नहीं होतीं. प्रेम हो या खेलकूद या युद्ध, इनमें कोई भी दो खेल एक जैसे नहीं हो सकते. इसलिए धमकी अगर धक्कामुक्की में बदलती हो तो उसके लिए भी तैयार रहो. मिश्र के ये शब्द याद रखने लायक हैं— ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ कारगर हो इसके लिए जरूरी है कि दबाव इतना असली दिखे कि कभी-कभी खुद हमें जंग का खतरा दिखने लगे. इसलिए, इस कूटनीति का जवाब देने का तरीका यही हो सकता है कि दूसरे पक्ष की ओर से युद्ध की आशंका को इतना वास्तविक मानो कि उस पर यकीन करने लगो.

(यह लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments