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Saturday, 21 December, 2024
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चीन का उदय ‘इतना शांतिपूर्ण नहीं’ इसलिए भारत को सतर्क रहना होगा

भारत-चीन सीमा विवाद को कूटनीतिक कक्षों में एक नया मानचित्र तैयार कर हल किया जा सकता है. इसके लिए शी को अतीत के साये से निकलना होगा, जबकि भारत को राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की ज़रूरत होगी.

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जहां लद्दाख के गलवान नदी इलाक़े में बनी तनावपूर्ण स्थिति को लेकर भारत और चीन के बीच संवाद का दौर जारी है, वहीं दोनों ही देश ज़मीनी वास्तविकताओं को समझने और उस पर प्रतिक्रिया देने के मामले में सतर्कता बरतते दिख रहे हैं. धीरे-धीरे सामने आ रही जानकारियों के अनुसार चीनी सेना गलवान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपने जवानों की तैनाती बढ़ा रहा है. कुछ रिपोर्टों के अनुसार चीनी सैनिकों की इस बार की तैनाती कुख्यात डोकलाम विवाद वाले दिनों की तुलना में अधिक है. साथ ही यदि सैन्य मामलों के विशेषज्ञों को गंभीरता से लें, तो गलवान घाटी में अतिक्रमण को गतिरोध भर ही नहीं माना जा सकता है.

गलवान का अतीत

गलवान घाटी 1962 में भी युद्ध का एक मोर्चा रही थी. सीमा प्रबंधन का कड़वा सबक सीखने के बाद भारत ने सीमा पर सड़कों के अपने नेटवर्क को मज़बूत करने और सुविधाएं बढ़ाने का फैसला किया. लेकिन इस कार्य में सुस्ती और ढिलाई बरती गई. आखिरकार 2014 के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने सीमा पर बुनियादी ढांचे के विकास पर अधिक ध्यान दिया.

गलवान नदी से सटे और लेह को काराकोरम दर्रे से जोड़ने वाले दुरबुक और दौलत बेग ओल्डी(डीबीओ) का काम पिछले साल पूरा किया गया. भले ही इस सड़क को सैनिकों के जमावड़े की फौरी वजह बताई जा रही हो, पर चीनी इसके बारे में पिछले एक दशक से भी अधिक समय से जान रहे थे. इस मार्ग को विकसित किए जाने के दौरान पिछले 18 वर्षों में चीन ने कभी भी इस पर काम रोकने की कोशिश नहीं की, विरोध करने की तो बात ही छोड़ दें. इसलिए चीन के अचानक उत्तेजित होने का ये एकमात्र कारण नहीं हो सकता है.

जो भी हो, संघर्ष का मौजूदा क्षेत्र भारत और चीन दोनों के लिए ही अत्यंत सामरिक महत्व का है और इसलिए सैनिकों की तैनाती बढ़ सकती है और आमने-सामने की स्थिति लंबे समय तक खिंच सकती है.


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इस बीच, कालापानी त्रिकोण को अपना बताने वाला नक्शा जारी करने की शुरुआती भभकी के बाद ऐसा लगता है कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट सरकार ब्रितानी औपनिवेशिक अतीत द्वारा छोड़े गए इस विवाद से ख़ुद को बाहर निकाल रही है.

औपनिवेशिक विरासत में मिले सीमा विवाद

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब ब्रिटेन को साम्राज्य के विघटन का अहसास होने लगा तो उसने अनिश्चित सीमा के साथ राष्ट्रों को अपने चंगुल से मुक्त करना शुरू कर दिया. स्वतंत्र हुए राष्ट्रों में केवल राजनीतिक ताक़त का अनौपवेशीकरण हुआ, सोच या मानचित्रों का नहीं.

वेनेज़ुएला-गुयाना सीमा विवाद, डुरंड रेखा को लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच असहमति, कालापानी के त्रिकोण का अनसुलझा विवाद, रोहिंग्यों को लेकर म्यांमार-बांग्लादेश का झगड़ा, विरासत को लेकर इजराइल और फलस्तीन का सबसे बड़ा संघर्ष, साइप्रस के मुददे पर ग्रीस-तुर्की के बीच असहमति, मलेशिया और फिलीपींस के बीच क्षेत्र संबंधी विवाद, भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद के मतभेद और मैकमोहन रेखा को लेकर भारत और चीन के बीच जारी गतिरोध- सूची अंतहीन है. इन सभी की जड़े रक्तरंजित ब्रितानी विरासत में हैं, जो संघर्ष के तमाम केंद्रों में दुनिया को परेशान कर रही है. विडंबना ये है कि इंग्लैंड भी काम अधूरा छोड़ने के अपने खेल के दुष्परिणामों से मुक्त नहीं रहा है जो कि उसने दुनिया में बाकी जगहों पर खेला है- सदियों से जारी एंग्लो-आयरिश विवाद इसी क्रूर विरासत का एक उदाहरण है.

इस क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में भी विभिन्न देशों को दो सदियों से भी अधिक के औपनिवेशिक शासन की छाप वाले नक्शे विरासत में मिले हैं. ज़मीन के टुकड़ों को लेकर कड़वे युद्ध लड़े गए हैं. भूगोल बदले गए हैं. हालांकि युद्ध समाप्त हो गए, लेकिन संघर्ष जारी रहा. कभी-कभी, शांति वार्ताएं विजेताओं के खिलाफ और पराजितों के पक्ष में गईं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शिमला समझौते पर टिप्पणी की थी, ‘मैदान में जीते, मेज़ पर हारे’. ब्रिटिश राज के समापन काल में गैर-जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा जल्दबाजी में खींची गई बेतरतीब रेखाएं पत्थर पर खींची गई स्थाई सीमाएं बन गईं.

स्वतंत्र भारत ने 1947 में त्रासद विभाजन और सीमाओं के रूप में बेतरतीब खींची गई मैकमोहन रेखा के साथ ‘नियति से साक्षात्कार’ किया. 1947 में, और उससे आगे 1950 तक, चीन के साथ हमारी कोई सीमा नहीं थी. जब तक कि चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा नहीं कर लिया जो दोनों प्राचीन सभ्यताओं के बीच राजनीतिक बफ़र ज़ोन माना जाता था. उसके बाद से 3,488 किलोमीटर लंबी संपूर्ण भारत-चीन सीमा विवादित है. मैकमोहन रेखा 1914 में तिब्बत और तत्कालीन ब्रिटिश भारत के बीच सीमा के तौर पर खींची गई थी. ब्रितानी पत्रकार और लेखक नेविल मैक्सवेल के अनुसार ब्रितानियों ने बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्र में 11 विभिन्न सीमा रेखाओं का उपयोग किया था.

फिर भी, औपनिवेशिक अतीत की विरासत से आंखें मूंदकर बचा नहीं जा सकता है. इतिहास का पुनर्लेखन हो सकता है, पर उसे दोहराया नहीं जा सकता. सीमाएं विवादों को सुलझाने के लिए खींची जाती हैं, नए विवादों को जन्म देने के लिए नहीं. सीमा विवाद सुलझाने का एक तरीका है कूटनीतिक कक्षों में बैठकर एक नया नक्शा तैयार करना. भारत जैसे लोकतंत्र में इसके लिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, संसद में पर्याप्त संख्या और राजनीतिक दलों के बीच सहमति की दरकार होगी. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए अतीत से निकलना और उभरती विश्व व्यवस्था में चीन का स्थान निर्धारित करना आसान होगा, बशर्ते वह इसके लिए गंभीर हों.

चीन के साथ विश्वास की कमी

भौगोलिक रूप से परस्पर जुड़ा एशिया राजनीतिक रूप से विभाजित और आर्थिक रूप से भिन्न है. समृद्धि की उत्कंठा इसे और भी विभाजित कर सकती है, वो भी ऐसे समय जब वैश्विक भूमिका के लिए तत्पर क्षेत्रीय शक्ति के रूप में चीन के निश्चित उदय से एशियाई सदी का सपना वास्तविकता में बदलता दिख रहा है.


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भरोसे में कमी और सुरक्षा संबंधी चुनौतियां भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के प्रमुख कारकों में से हैं. लेकिन इसे किनारे रखते हुए दोनों देश द्विपक्षीय और क्षेत्रीय सहयोग को नया संवेग दे सकते हैं. क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण क्षेत्र संबंधी विवादों और अनियमित सीमा-पार गतिविधियों, दोनों ही के लिए एक समाधान हो सकता है और इससे राजनीतिक मतभेद कम हो सकेंगे और इस क्षेत्र का आर्थिक एवं सांस्कृतिक कायाकल्प हो सकेगा.

नई दिल्ली स्थित चीनी राजदूत सन वेइदॉन्ग ने कहा भी है, ‘हमें कभी भी अपने संबंधों पर मदभेदों को हावी नहीं होने देना चाहिए. हमें संवाद के माध्यम से मतभेदों को हल करना चाहिए. दोनों राष्ट्र एक-दूसरे के लिए किसी तरह से खतरा नहीं हैं.’ इस बीच, शी जिनपिंग की अध्यक्षता वाले केंद्रीय सैन्य आयोग (सीएमसी), जो 20 लाख की मजबूत क्षमता वाली चीनी सेना का शीर्ष कमान है, को कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ने सबसे विषम परिस्थितियों के बारे में सोचते हुए प्रशिक्षण और युद्ध की तैयारियां बढ़ाने के निर्देश दिए हैं, ताकि सभी प्रकार की जटिल परिस्थितियों से तत्परता और प्रभावी ढंग से निपटते हुए राष्ट्रीय संप्रभुता, सुरक्षा और विकास हितों की दृढ़ता से रक्षा सुनिश्चित की जा सके.

चीनी सेना को शी जिनपिंग के निर्देश को कोविड-19 महामारी के बाद की वैश्विक व्यवस्था के संकेतक के तौर पर भी देखा जा सकता है. क्या शेष विश्व, खासकर एशिया और अफ्रीका, लोकतंत्र, कानून के शासन और मानवाधिकारों के प्रति नाममात्र का भी सम्मान नहीं रखने वाले प्रभुत्वादी चीन को दुनिया के नीति नियंता के रूप में स्वीकार करेगा?

‘भारत और चीन के लिए बहुत कुछ दांव पर’

यहां पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शब्दों को याद करना प्रासंगिक होगा, ‘एक बहुध्रुवीय दुनिया उभर रही है लेकिन इसका स्वरूप अभी तक स्पष्ट नहीं हैं. पश्चिम में संरक्षणवादी भावनाओं में वृद्धि हुई है और प्रमुख देशों के बीच क्षेत्रीय समझौतों से वैश्विक व्यापार व्यवस्था में बिखराव हो सकता है. एक खुली, एकीकृत और स्थिर वैश्विक व्यापार व्यवस्था को संरक्षण देना भारत और चीन के हित में है, भले ही हम क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए भी मिलकर काम कर रहे हों.’

स्पष्टतया वैश्विक रुझान हिंद-प्रशांत और उससे आगे के क्षेत्रों में अपने प्रभाव को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए प्रयासरत चीन और उसके सहयोगियों तथा अमेरिका के नेतृत्व में उसके सहयोगियों और चीन के अशांतिपूर्ण उभार से चिंतित देशों के बीच प्रतिद्वंद्विता में वृद्धि, और शायद नए शीत युद्ध के उद्भव का संकेत देते हैं.

भारत को इंतजार करने और स्थिति पर नज़र रखने की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही उसे सावधान भी रहना होगा.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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