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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतकॉमर्शियल करारों से पहले भारत को होमवर्क करना चाहिए, सौदे की कला में अस्पष्टता के लिए कोई जगह नहीं

कॉमर्शियल करारों से पहले भारत को होमवर्क करना चाहिए, सौदे की कला में अस्पष्टता के लिए कोई जगह नहीं

तमाम अनुभवों से हमें यही सीख मिलती है कि गोलमोल रवैया महंगा साबित होता है. इसलिए, करार पर दस्तखत करने से पहले पूरी तैयारी कर लीजिए, न कि उसके बाद कमर कसने लगिए.

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वार्ताओं में चीनियों का एक तरीका सबको मालूम है, वह यह कि किसी बात को सिद्धांततः मान लो मगर उस पर अमल कभी मत करो. या ऐसे वादे करो जिसे पूरा करने की कोई मंशा न हो. बाद में नये दावे करने और ज्यादा छूट हासिल करने के लिए नयी वार्ता करने के लिए समझौता तोड़ दो या टकराव पैदा करो अथवा जमीनी स्तर पर नये हालात पैदा कर दो. इस तरह, वार्ता निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया बन जाती है और उसका कोई अंत नहीं आता. सीमा विवाद पर भारत-चीन वार्ता के इतिहास से परिचित लोगों को मालूम है कि इस सिद्धांत पर आज तक किस तरह लगातार अमल किया जाता रहा है. भारत के साथ यह चाल तो कारगर रही है मगर दक्षिण चीन सागर में यह नहीं भी सफल हो सकती है. फिर भी, चीन विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) द्वारा तय नियमों के साथ खिलवाड़ करके अंतरराष्ट्रीय कंपनियों पर बाजार तक पहुंच के बहाने दबाव दाल कर अपने कायदे मनवाता रहा है.

भारत ने भी यह चाल आजमाने की कोशिश की मगर उसे उतने अच्छे नतीजे नहीं मिले. या तो वह चीन की तरह तेज नहीं है, या उसका उतना दबदबा नहीं है. इसका नतीजा यह है कि एक के बाद एक अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता मंच या अदालत में उसे झटके मिलते रहे हैं और व्यापारिक विवादों में डब्लूटीओ भारत के खिलाफ फैसले सुनाता रहा है. वोडाफोन, केयर्न, देवास, अमेज़न, आदि के मामले इसकी मिसाल हैं. इन फैसलों के बाद विदेश में भारत की संपत्तियों की जब्ती की जाती रही है. जब्ती के ऐसे ज्यादा मामले जब सुर्खियों में आने लगे तब सरकार हरकत में आई और जवाब देना शुरू किया.


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मध्यस्थता मंच ने निवेश गारंटी समझौतों (आईजीए) के तहत जो फैसले सुनाए उन्हें निरस्त कराने के लिए भारतीय अदालतों की मदद लेने की कोशिश की, और विवादों को खत्म करने के लिए हाथ मिलाने की पेशकश भी की. काबिले गौर बात यह है कि कुछ साल पहले सरकार ने उन करीब 58 ‘आईजीए’ को चुपचाप रद्द कर दिया, जिन पर उसने विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए 1990 के दशक में दस्तखत किए थे. (वोडाफोन ने हॉलैंड के साथ किए गए आईजीए के तहत अपने ऊपर लगाए गए टैक्स के खिलाफ मामला लड़ा था). नियमन की जबरन कार्रवाई भी की गई.
इस सबसे यह सवाल स्वाभाविक रूप से उभरता है कि क्या देश के व्यापारिक/कानूनी/राजनीतिक प्रक्रिया में कोई बुनियादी कमी है जिसे दूर करना जरूरी है? अगर हरेक रक्षा सौदे में रिश्वतख़ोरी के आरोप उछलते हैं और सप्लायरों को ‘ब्लैकलिस्ट’ किया जाता है तो आपको सप्लायरों की कमी पड़ने लगती है, जैसा कि कुछ हथियारों के मामले में वाकई हुआ है. अगर प्रतिस्पर्द्धी टेंडर लगभग असंभव हो गया है, तो पूर्व-चयन ही उपाय बच जाता है. वैसे, देवास मामले में एक आरोप यह था कि कोई बोली नहीं लगवाई गई.

संभव है कि जो सरकार अपने नागरिकों के साथ संबंधों में मनमाने बदलाव करने की आदी रही है उसने मन-ही-मन में यह मान लिया हो कि लिखित करार अंतिम शब्द नहीं होता. इसके बाद तो मसौदा तैयार करने में लापरवाही और अविवेक बरता जाता है और फिर मामला बिगड़ जाता है तब लागत के बारे में गलत धारणा बनाई जाती है. देवास करार से आय 1,000 करोड़ रुपये की हुई, और मुआवजा ठोका गया 15,000 करोड़ रु. का (ऐसे में अनुमानित नुकसान की अवधारणा के खिलाफ क्या कोई तर्क दिया जा सकता है?).

एनरॉन का मामला भी कोई अलग तरह का नहीं था. उस तेज-तर्रार कंपनी के साथ बिजली परियोजना के बारे में वार्ता करने वालों ने यह जानकारी नहीं हासिल की थी कि गैस आधारित बिजली संयंत्र क्षमता के उपयोग के मामले में कोयला आधारित संयंत्र के मुक़ाबले ज्यादा ऊंचा स्तर हासिल कर लेंगे. इसलिए, क्षमता के उपयोग के मुश्किल स्तर के साथ आसमान छूते लाभ की पेशकश करने वाला समझौता वास्तव में जरूरत से ज्यादा उदार किस्म का था, जिसके भयानक नतीजे हो सकते थे (मसलन महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड दिवालिया हो सकता था). इसलिए उसे रद्द करना अनिवार्य हो गया. और उसका खामियाजा भी भुगतना ही था.

शुरुआती चूक के बाद जो सामने आता है वह कभी-कभी काफी घपला भरा या फर्जी होता है. देवास मामले में सरकार ने करार रद्द करने का जो कारण (अप्रत्याशित घटना) बताया वह उससे भिन्न था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अब बताया है (फर्जीवाड़ा). भाजपा ने ‘अंतरिक्ष’ कंपनी के अध्यक्ष जी. माधवन नायर को महिमा मंडित किया और पार्टी में शामिल किया जबकि पिछली सरकार ने देवास को अनावश्यक लाभ पहुंचाने के लिए उनके खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किया था. अब जबकि फर्जीवाड़ा उसके सामने उजागर हो गया है तब क्या वह नायर को खारिज करेगी?

मुद्दा यह है कि लिखित शब्द के साथ भी सांस्कृतिक और सत्ता-संतुलन का संदर्भ जुड़ा होता है. कुछ लोग करार को एक रिश्ते की शुरुआत मानते हैं जबकि झगड़ालू संस्कृति वाले उसे मनमर्जी से तोड़ा-मरोड़ा जाने वाला शब्द भर मानते हैं. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उसे कामचलाऊ सुविधा हासिल करने का साधन मानते हैं. वास्तव में, बदलते सत्ता संतुलन के साथ रुख बदल सकता है. इसलिए, करारों की वार्ताओं में, और डब्ल्यूटीओ के मंचों पर वकीलों की फौज की अपनी भूमिका होती है, जहां भारतीय वार्ताकारों को अक्सर अधूरी तैयारी के साथ पकड़ा जाता है. तमाम अनुभवों से हमें यही सीख मिलती है कि गोलमोल रवैया महंगा साबित होता है. इसलिए, करार पर दस्तखत करने से पहले पूरी तैयारी कर लीजिए, न कि उसके बाद कमर कसने लगिए.

बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष व्यवस्था के साथ

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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