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Tuesday, 19 November, 2024
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एक नयी वैचारिक धुरी का निर्माण भारत की सबसे बड़ी चुनौती है: योगेंद्र यादव

देश की गाड़ी की पुरानी वैचारिक धुरी टूट चुकी है और पहिया गाड़ी से अलग हो चुका है. अब उस धुरी को ढूंढने की बजाय हमें भारत के स्वधर्म की पहचान और देसी आधुनिकता की समझ के आधार पर नयी वैचारिक मध्यभूमि बनानी होगी.

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भविष्य की ओर बढ़ने के लिए आज देश की गाड़ी को एक नयी वैचारिक धुरी की जरूरत है. आज जब हम आज़ाद भारत के सबसे अंधेरे दौर से गुज़र रहे हैं तो हमारे गणतंत्र को एक ऐसे अक्ष की जरूरत है जो पहिये को संतुलित कर सके, बेहतर भविष्य की की ओर ले जा सके.

धुरी का मतलब वो ‘बीच का रास्ता’ नहीं है जिसके खिलाफ पाश ने हमें आगाह किया था. यहां धुरी का मतलब वह वैचारिक केंद्र बिंदु है जो लोकतंत्र में अलग-अलग विचारों को अपनी और झुकाता है और अपने इर्द गिर्द एक आम सहमति का निर्माण करता है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह धुरी स्वराज का विचार था, आज़ादी के बाद नेहरू का समाजवाद था तो इस दौर में धुरी की जगह पर हिंदुत्व काबिज है जिसके चलते पहिया गाड़ी से अलग हो गया है.

आज हमें उस जगह एक नयी वैचारिक धुरी को स्थापित करना है जो जन-भावना को हमारे संविधान के मूल्यों से जोड़े.

इस जरूरत को पूरा करना न तो आसान है और न ही सरस. ‘अभी’ और ‘यहीं’ के तात्कालिक आग्रहों से मुक्त हो एक नयी नवेली दुनिया की कल्पना करना जो बौद्धिक तोष दे सकता है वो इस उद्यम में नहीं है. एक नयी दुनिया की कल्पना से स्थापित जनमानस को जोड़ना उलझाऊ काम है. किसी सपने को साकार करने में जो ललक है, वो इस काम में कहां?

तमाम आग्रहों के बीच संतुलन बनाते हुए एक नए केंद्र का निर्माण बड़ा उबाऊ काम है. लेकिन लोकतंत्र का बिरवा ऐसी मध्यवर्ती जमीन पर ही पलता और फलता है. लोकतंत्र की नियति बल्कि यों कहें कि हमारे युवा गणतंत्र की नियति इस एक बात पर निर्भर है कि हम ऐसी नई जमीन खोज पाते हैं या नहीं. हमारे समय की सबसे बड़ी और सबसे कठिन बौद्धिक-राजनीतिक चुनौती यही है.


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पुराना केंद्र बिंदु बिखर चुका है

आज ये चुनौती उठ खड़ी हुई है क्योंकि विचार की विरोधाभासी तीलियों को आपस में थामे रहने वाला केंद्र बिंदु अब बिखर चुका है और उसके बदले जो नया विचार केंद्र में दिख रहा है वो हमारे संविधान के मूल्यों से मेल नहीं खाता, ज्यादा टिक नहीं सकता. इस बदलाव को वामपंथ से दक्षिणपंथ की यात्रा कहने का चलन रहा है. लेकिन वैचारिक विन्यास के दो कोनों को परिभाषित करने वाली यूरोप की यह शब्दावली भारतीय संदर्भों में गुमराह करती है.

आज़ादी के बाद के पहले पांच दशकों में जो विचारधाराई सम्मति कायम हुई वह वामपंथी या उदारवादी नहीं थी. उसमें उदारवादी लोकतंत्र के साथ राष्ट्रवाद, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और आधुनिकतावाद का पुट मिला हुआ था. लेकिन वक्त गुजरने के साथ यह विचारधाराई सम्मति कमजोर पड़ गई. उदारवादी लोकतंत्र लोक-लुभावनवाद बनकर रह गया, राष्ट्रवाद थोथा नारा बन चला, समाजवाद का मतलब हो गया कि मुनाफा सेठ का और जोखिम पब्लिक के हिस्से, धर्मनिरपेक्षता राजनीतिक अवसरवाद या समाज से कटी बौद्धिकता बन गयी. सामाजिक न्याय सिर्फ जाति आधारित आरक्षण तक सीमित होकर रह गया और पश्चिम की सांस्कृतिक गुलामी को ढंकने के उपक्रम का नाम बन गया आधुनिकतावाद. जाहिर है, यह विचारधाराई सामंजस्य जनमत से दूर होता चला गया, उसके केंद्र में नहीं बचा.

पिछले ढाई दशक से हिंदुत्व के नाम से वैचारिक सामंजस्य की जो नई जमीन बनी है उसमें नरम अधिनायकवाद, उग्र और संकीर्ण किस्म के राष्ट्रवाद, बाजारपरस्ती, बहुसंख्यकवाद, जाति-भेद के बढ़वार और पोंगापंथ के प्रति स्वीकार का भाव है. ऐसे मंजर को देख हर हिन्दुस्तानी को फिक्र सतानी चाहिए क्योंकि विचारधाराओं का यह घातक मेल हमारे संविधान वर्णित मूल्यों से बेमेल है. यह टिकाऊ भी नहीं क्योंकि विचाराधाराओं के मेल की इस जमीन को कायम रहने दिया गया तो जिस भारत को हमलोग जानते और मानते आये हैं वो भारत ही ना बचेगा. यह नया केंद्र भारत नामक चक्र की धुरी नहीं बन सकता.

लेकिन हम बीते वक्त में कायम हुई विचाराधाराई सहमति की उस पुरानी नेहरू की बनाई धुरी की तरफ भी नहीं लौट सकते. दुर्भाग्यवश वाममुखी-उदारवादी-प्रगतिशील काट की राजनीति उसी पुरानी जमीन की तरफ लौटना चाहती है. ऐसा करना ना तो व्यावहारिक है और ना वांछित ही. यह पुरानी धुरी पारिस्थितिकी, जातिगत-लिंगगत असमानता और लोगों के सांस्कृतिक-धार्मिक भावबोध से जुड़ाव के गहरे प्रश्नों को एक किनारे करके बनी थी. और साफ-साफ कहें तो यह पुरानी धुरी अंग्रेजदां शासक वर्ग की सहमति पर आधारित था, आम लोगों के भाव-बोध के लिए इसके दरवाजे बंद थे. अब वे दिन लद गए और उनकी वापसी नहीं हो सकती.

हमारे पास विचारधाराई सहमति की नयी जमीन तलाशने के सिवा कोई और रास्ता नहीं है. इसका कोई बंधा-बधाया फार्मूला नहीं है. लेकिन, ऐसी सात बातों की पहचान कर सकते हैं जो नये सिरे से विधारधाराई सहमति बनाने के लिए जरूरी होगी.


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नयी धुरी के सात पहलू

सबसे पहली और सबसे जरूरी बात तो ये है कि नयी सहमति एक सकारात्मक और आत्म-विश्वासी राष्ट्रवाद की जमीन पर बननी चाहिए.

अभी जो लोगों के दिलो-दिमाग पर एक छिछला और बड़बोला राष्ट्रवाद छाया हुआ है, उसका मुकाबला अमूर्त किस्म के अंतर्राष्ट्रीयतावाद या फिर उत्तर-राष्ट्रवाद से नहीं किया जा सकता. हम राष्ट्रवाद के बारे में उस तरह नाक भौं नहीं सिकोड़ सकते जैसा कि यूरोप के विद्वानों के बीच चलन है. अभी जो कट्टर राष्ट्रवाद हावी हो चला है उसकी काट सिर्फ देशप्रेम या हमारे स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा वाले एक सकारात्मक राष्ट्रवाद से की जा सकती है. इसका मतलब होगा, भारत पर गर्व करना और भारत के स्वधर्म की ठोस अर्थों की व्याख्या करना. बाहरी तौर पर इस देशप्रेम का अर्थ होगा, पड़ोसी देशों तथा उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुए अन्य राष्ट्रों के साथ-साथ भारत के लिए विश्व-राजनीति के रंगमंच पर वाजिब मुकाम हासिल करना. अंदरुनी तौर पर इसका अर्थ होगा, राष्ट्रीय एकता के उस विचार की भावना प्रतिष्ठित करना जो विविधताओं का सम्मान करके चलती है.

दूसरी बात, हमें एक ऐसे सेक्युलरिज्म की प्राण-प्रतिष्ठा करनी होगी जो भारत के सांस्कृतिक-धार्मिक भावबोध से जुड़ा हो. सांप्रदायिक कट्टरपंथ की काट जमीन से कटे और अंग्रेज़ियत में डूबे सेक्युलरिज्म से नहीं की जा सकती, आक्रामक बहुसंख्यकवाद का मुकाबला घबराये हुए अल्पसंख्यकवाद से नहीं हो सकता. जरूरत इस बात की है कि हम पश्चिमी मुल्कों में प्रचलित सेक्युलरिज्म की उस धारणा से उबरें जिसका सारा ध्यान चर्च और राज्यसत्ता के बीच अलगाव पर है.

हमारा ध्यान सांप्रदायिकता यानि धार्मिक मतवाद के तंग दायरों में चलने वाले संघर्ष का है. भारत में जरूरत एक ऐसी राज्यसत्ता की है जो सर्वधर्मसमभाव के रास्ते पर चले यानि: हर धर्म समुदाय के प्रति बराबर का सम्मान हो, भेदभाव न हो और उनसे एक सम्मानजनक दूरी बनाई रखी जाय. साथ ही, राज्यसत्ता में इतनी क्षमता होनी चाहिए कि किसी धर्म-समुदाय के भीतर कोई अन्याय या उत्पीड़न होता है तो वह बिना किसी भेदभाव के हस्तक्षेप कर सके. धर्म-परंपराओं से मुख मोड़ लेने से सेक्युलर राज्यसत्ता नहीं बनायी जा सकती. हमें सभी धर्म-परंपराओं से सीखने और उनके साथ गहरा संवाद कायम करने की जरूरत है.

तीसरे, हमें समाजवाद का एक ऐसा संस्करण गढ़ना होगा जो बाजार से परहेज न करे लेकिन जिसका प्रधान लक्ष्य कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति के कल्याण का हो. ये बाजार-आधारित समाजवाद इस लक्ष्य को हासिल करने के तरीकों के बारे में लचीला रुख अपना सकता है. पूंजीवादी व्यवस्था की गैर-बराबरी और बर्बादी की काट नौकरशाही से बंधे राज्य पोषित समाजवाद से तो नहीं ही की जा सकती. हम मान कर चलें कि बाजार को अब तो रहना ही है और ठीक इसी तरह राज्यसत्ता के जरिए होने वाले नियमन को भी आगे के वक्तों में कायम रहना है.

अर्थव्यवस्था के बारे में हम अपनी दृष्टि बदलें ताकि इकॉनॉमिक्स को इको-नॉर्मिक्स  बना सकें, यानि आर्थिक नफा-नुकसान विचारने वाली बुद्धि का मेल नैतिक मूल्यों और पारिस्थिकीगत टिकाऊपन से हो. बदलते वक्त के साथ जन-कल्याण की नीतियों में भी बदलाव होना चाहिए. जन-कल्याण की नीतियों में अभी जोर भोजन और आवास जैसी बुनियादी जरूरतों पर है. नए ज़माने को देखते हुए इसे बदलकर रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर जोर देना होगा.

चौथी बात, हमें सामाजिक न्याय के सवाल को आगे करके चलना होगा लेकिन इसके प्रति एक बहुआयामी सोच अपनाने की जरूरत है. अभी सामाजिक न्याय का विचार दो अतियों से ग्रस्त है.

एक तरफ सामाजिक न्याय के प्रश्न को हद दर्जे के अस्मितावाद से जोड़ा जाता है तो दूसरी तरफ अस्मिता-मात्र के नकार के स्वर प्रबल हैं. बहुआयामी नज़रिया अपनाने से सामाजिक न्याय के विचार को इन दो अतियों से बचाने में मदद मिलेगी. इसका मतलब है, समकालीन भारत (जिसमें शहरी भारत भी शामिल है) में जातीय गैर-बराबरी की सच्चाई की शिनाख्त और उसका समाधान ढूंढ़ने का उपक्रम पहले की तुलना में कहीं ज्यादा गंभीरता से करना.

सामाजिक गैर-बराबरी के कुछ पक्ष ऐसे हैं कि उन्हें किसी विचार-विमर्श के किसी एक कोटि में नहीं अंटाया जा सकता, जैसे- लैंगिक आधार या यौन-प्रवृति के आधार पर होने वाले भेदभाव या फिर वर्गगत, क्षेत्रगत, धर्म-समुदायगत और स्थान विशेष (शहरी-ग्रामीण) से जुड़ी गैर-बराबरी. सामाजिक न्याय के जिन औजारों से अभी तक काम चलाया गया उसमें कुछ और भी जोड़ा जाये. जाति-आधारित आरक्षण की नोंक-पलक दुरुस्त करना जरूरी है और उसमें पूरक के तौर पर कुछ और उपाय जोड़े जाने चाहिए. वंचित समुदाय और महिलाओं के प्रतिनिधित्व तथा नेतृत्व के मसले को खास अहमियत देनी होगी.

पांचवीं बात, पर्यावरण के सवाल को अब राजनीतिक एजेंडे में हाशिए पर करके नहीं चला जा सकता. हम जिसे विकास कहते हैं उसकी बड़ी भारी कीमत आदिवासी समुदायों को चुकानी होती है और अब हम इस बात को नकार करके नहीं चल सकते. ना ही अब हमारे पास ये विकल्प बचा है कि हम जलवायु-परिवर्तन के सवाल से नज़र बचाकर चलें. जल-जंगल-जमीन पर जनता की हकदारी को लेकर चले आंदोलनों ने जनकेंद्रित पर्यावरणवाद की बुनियाद तैयार कर दी है. इससे एक रास्ता ये भी खुला है कि हम अपनी कृषि नीतियों और खेती-बाड़ी के तौर-तरीकों में बदलाव करें.

छठी बात ये कि हमारी सांस्कृतिक नीति और राजनीति भारतीय तर्ज की उस देसी आधुनिकता की खोज के दायरे में होनी और बननी चाहिए जो कभी हमारे स्वतंत्रता संग्राम की प्राण-वायु हुआ करती थी. ऐसा करने पर हम एकतरफ सतही और नकलची आधुनिकता को अपनाने से बचे रहेंगे तो दूसरी सुरक्षात्मक और हीनताबोध से ग्रस्त परंपरावाद की शरण गहने से भी बच जायेंगे. इसके लिए जरूरी होगा कि हम अपनी सभ्यतागत विरासत को हासिल करें और उसके पुनर्निर्माण में जुटें, साथ ही विश्व में कहीं से सीखने के लिए अपना मन खुला रखें. इसके लिए भारतीय भाषाओं की उन्नति पर बल देना होगा, मौजूदा ज्ञान-परंपरा की पहचान करनी होगी और स्कूलों तथा उच्च शिक्षा संस्थानों की पाठ्यचर्या को इस तरह गढ़ना होगा कि वह हमारी जरूरत, परिवेश तथा हमारे बौद्धिक संसाधन के अनुरूप हो.

आखिरी बात ये कि हमारे लिए लोकतांत्रिक गणतंत्रवाद को साध्य और साधन दोनों ही रूपों में अपनाना जरूरी है. लोकतंत्र सिर्फ संविधान रचने, संस्थाओं को गढ़ने और चुनाव करवाने भर का नाम नहीं है. गणतंत्र के लिए एक ऐसा राजनीतिक समुदाय जरूरी है जिसमें सभी नागरिक बराबरी के भागीदार हों और उन्हें सब बातों की सम्यक जानकारी हो.

ऐसा ख्याल रखने से हम उदारवादी लोकतंत्र के रोजमर्रा के मसलो जैसों अभिव्यक्ति की आजादी, संस्थायी स्वायत्तता, प्रक्रियागत अंकुश और निगरानी आदि से आगे की बातें भी सोच सकेंगे. हम सोच पायेंगे कि लोकतंत्र को और गहरा बनाने की जरूरत है और इसके लिए राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण, संसाधन पर बराबरी की पहुंच सुनिश्चित करना तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया में लोगों को प्रत्यक्ष रूप से भागीदार बनाना जरूरी है.

ऊपर जो बातें कही गईं हैं उनमें कोई भी बात नयी नहीं हैं, हां इन सातों को जोड़ने का प्रयास किंचित अपरिचित लग सकता है. यह नयी धुरी स्वतंत्रता संग्राम और संविधान से प्रेरणा लेकर बनी है. सामंजस्य की जिस नयी आधारभूमि की यहां चर्चा की गई है वह कोई नये काट की विचारधारा नहीं है बल्कि यहां सिर्फ उन बातों को नये सिरे से विस्तार दिया गया है जो हमारे संविधान में पहले से ही उपलब्ध हैं. हमारी असली चुनौती संविधान प्रदत्त मूल्यों को आम जन के विचार से जोड़ने की है. इस अर्थ में नयी विचारधाराई धुरी को तैयार करना सिर्फ अकादमिक या बौद्धिक उपक्रम भर नहीं है, बल्कि इसके लिए मौजूदा जनमत के रुझान को बदलना और गढना जरूरी है. यह एक राजनीतिक चुनौती है.

(योगेंद्र यादव, स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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