‘डर की वजह से बहुत से लोग बोलते नहीं हैं, लेकिन सवाल ये है, कि किस चीज़ का डर?’ ये सवाल उद्योगपति राजीव बजाज ने, कोरोनावायरस से निपटने के विषय पर, हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ एक बातचीत में किया. ये वीडियो क्लिप भारत के कॉरपोरेट जगत के प्रमुखों के बीच, निजी व्हाट्सएप ग्रुप्स पर व्यापक रूप से वायरल हुई, और उनकी साफ़दिली के लिए राजीव बजाज की ख़ूब प्रशंसा हुई. विडम्बना ये है कि वो लोग, निडर होने और आवाज़ उठाने के, बजाज के प्रोत्साहन की प्रशंसा, निजी समूहों में कर रहे थे, सार्वजनिक रूप से नहीं.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, कि पिछले पांच सालों में भारत के कुलीन वर्ग में, एक डर और भय का वातावरण छा गया है. हमारे समाज के कमज़ोर तबक़े के लोग तो सही तौर से, एक मजबूत राज्य के चंगुल से कभी आज़ाद ही नहीं हुए थे, और हमेशा से इसकी दया पर रहे हैं. नरेंद्र मोदी सरकार के राज में जो बदलाव आया है वो ये, कि विशेष अधिकार प्राप्त लोग भी, ग़ुलामों की तरह जीने को मजबूर हो गए हैं, और अपने विचारों को ज़ाहिर नहीं कर पाते. (ये इससे ज़ाहिर है, कि टैप किए जाने के डर से, फोन कॉल्स का उनका पसंदीदा माध्यम व्हाट्सएप है).
बिहार के समस्तीपुर में एक ग़रीब महिला को हमेशा, ज़िला अधिकारियों के फरमानों पर अमल करने को मजबूर किया जाता था, क्योंकि उसे डर था कि उसे सरकारी कल्याण योजनाओं में से अपना हिस्सा नहीं मिलेगा. अब मुम्बई में एक धनी उद्योगपति को भी, सरकार की प्रशंसा के गीत गाने, और थाली बजाते हुए फोटो खिंचवा कर, अपने आज्ञापालक होने का सबूत देने के लिए, मजबूर किया जा रहा है, इस डर से, कि या तो उसके खिलाफ जांच शुरू हो जाएगी, या कोई सरकारी ऑर्डर नहीं मिलेगा. मुम्बई का ये धनी उद्योगपति और समस्तीपुर की ग़रीब महिला अब एक समान फील्ड पर हैं. कम से कम जब बात निजी आज़ादी की हो, तो अमीर-ग़रीब के बीच की चौड़ी खाई को तो मोदी सरकार ने, कामयाबी के साथ पाट ही दिया है, ग़रीब को अमीर बनाकर नहीं, बल्कि अमीर को ग़रीब बनाकर.
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एक भारी क़ीमत
ये कोई राज़ नहीं है कि हर उद्योगपति निजी तौर पर तो बड़बड़ाते हुए अपनी नाराज़गी जताता है, लेकिन खुले में मोदी सरकार द्वारा लॉकडाउन में उठाए जा रहे, कठोर क़दमों पर ख़ुश होने का ढोंग करता है, जिन्होंने उनके कारोबार तबाह कर दिए हैं. ये समझ में नहीं आता कि ये कारोबारी लोग, जो जुनून की हद तक अपने निजी-स्वार्थों के लिए जाने जाते हैं, और ‘लागत बनाम मुनाफ़ा’ फ्रेमवर्क में अपने तर्कसंगत फैसलों के लिए विख्यात हैं, प्रधानमंत्री मोदी के फैसले की चोट को कैसे सह रहे हैं, लेकिन फिर भी संकोची और शांत बने हुए हैं. यक़ीनन ऐसा नहीं हो सकता, कि उनके बोलने की क़ीमत, उनके कारोबार के पूरी तरह बंद हो जाने की क़ीमत से अधिक होगी.
चलिए मान लेते हैं कि मार्च में, जब मोदी ने कोविड-19 से निपटने के लिए, अचानक बिल्कुल संपूर्ण लॉकडाउन का ऐलान किया, तो उद्योग संघों और उद्योगपति के किसी समूह ने, इतनी हिम्मत जुटाई कि निजी या सार्वजनिक तौर पर, पीएम से कहा हो कि हमारे जैसे देश में, मुकम्मल लॉकडाउन से हेल्थ को लेकर कोई फायदा नहीं होगा, और हमें इसकी भारी इंसानी और आर्थिक क़ीमत चुकानी होगी. या लॉकडाउन 1.0 के बाद, वो अपनी राय ज़ाहिर कर सकते थे, कि लॉकडाउन को बढ़ाना मूर्खता है.
इस बात की तनिक सी संभावना को भी मान लें, कि उनकी चिंताओं को गंभीरता से लेते हुए, मोदी ने अपनी लॉकडाउन नीति पलट दी होती, तो भी उनके कारोबार उस स्थिति से कहीं बेहतर होते, जिसमें वो अपने को आज पाते हैं. लगभग तीन महीने का मुकम्मल शटडाउन, अधिकतर व्यवसायों के लिए बहुत ही महंगा सौदा है. ये उद्योगपति जो तर्कसंगत तरीक़े से फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं, मुकम्मल शटडाउन को रोकने के लिए, बोलने का चांस ले सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. जैसा कि बजाज ने पूछा, ऐसा क्या है जिससे वो डरते हैं?
ख़ामोश रहकर भारत के उद्योगपतियों ने संकेत दे दिया है, कि टेक्स उत्पीड़न, सरकारी अनुमतियों के इनकार, और उनके गुप्त भेद खुल जाने की शक्ल में, उनके बोलने की क़ीमत, उस क़ीमत से भी अधिक है, जो वो अपने कारोबार को पूरे तीन महीना बंद रखकर अदा करेंगे. ऐसे में यही आरोप लगाया जा सकता है, कि बहुत से राज़ हैं जो भारतीय उद्योग प्रमुखों के धंधों में छिपे हुए हैं.
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गन्स, जर्म्स और स्टील
किसी भी समाज में ताक़त के सामने सच्चाई को रखने की भारी क़ीमत होती है. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अगर ज़्यादा लोग, डॉ ली वेनलियांग के साथ आकर आवाज़ उठाते, तो पूरी शायद दुनिया कोरोनावायरस की तबाही से बच सकती थी. चीन के वूहान में ली वेनसियांग अकेले बहादुर डॉक्टर थे, जिन्होंने दिसम्बर 2019 में ही, दूसरे लोगों को नॉवल कोरोनावायरस से आगाह किया था. चीनी सरकार ने उनकी आवाज़ दबा दी, और मेडिकल बिरादरी में किसी और ने, उनके साथ मिलकर आवाज़ नहीं उठाई. आज पूरी दुनिया वेनलियांग की आज़ादी के दमन, और उनके साथी डॉक्टरों की बुज़दिली की, भारी क़ीमत चुका रही है.
समुदायों और राष्ट्रों के विकास पर, जैरेड डायमण्ड की एक क्लासिक किताब से अगर कुछ शब्द लें, तो भारत आज ‘गन्स, जर्म्स और स्टील संकट’ से दोचार है. हमारी सीमाओं पर चीनी बंदूक़ें हैं, हमारे शरीर में वायरस जर्म्स का ख़तरा है, और हमारे उद्योगों पर दीवालियापन का ख़तरा है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में ये स्वास्थ्य, आर्थिक, मानवीय, और सैन्य ख़तरों का, यक़ीनन सबसे गंभीर मिश्रण है.
कोई एक लीडर, चाहे वो जितना भी सुप्रीम क्यों न हो, अकेले अपने दम पर, देश को इस विपदा से बाहर नहीं निकाल सकता. इसके लिए बहुत से लोगों की बुद्धिमानी की ज़रूरत है. रातों-रात देश भर में नोटबंदी लागू करने के विनाशकारी फैसले से लेकर, लापरवाही के साथ चार घंटों के भीतर लॉकडाउन थोपने तक, भारत ने बहुत नाज़ुक मौक़ों पर, पीएम मोदी के जल्दबाज़ी में लिए गए फैसलों की, भारी क़ीमत चुकाई है.
अपनी आवाज़ उठाने की इन विशिष्ट लोगों की अनिच्छा की, जो जल्दबाज़ी में लिए गए ऐसे फैसलों से उतने ही प्रभावित हुए हैं, पूरे देश को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है. ऐसे समय में इस एलीट वर्ग की निरंतर ख़ामोशी, काफी विनाशकारी साबित हो सकती है, उनके अपने संकुचित स्वार्थी हितों के लिए भी, और देश लिए भी. जैसा कि मार्टिन लूथर किंग ने कहा था, एक समय ऐसा आता है जब ख़ामोशी धोखा बन जाती है.
(लेखक एक राजनीतिक अर्थशास्त्री, कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी और ‘पूर्व कॉर्पोरेट सम्मान’ प्राप्त हैं. यहां लिखित विचार निजी हैं.)
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