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Friday, 1 November, 2024
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भारत को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में उसका सम्राट मिल गया है

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अजीत डोवाल भारत के सर्व शक्तिमान सुरक्षा अधिकारी बन गए हैं. परतों में बनी हमारी सुरक्षा व्यवस्था को इस केंद्रीकरण से खतरा है.

भारत की शासन प्रणाली जो कि मजबूती से स्थापित है, खासकर हमारी सुरक्षा से जुड़ी नौकरशाही जो सतर्कता में विश्वास रखती है, की तुलना हम पृथ्वी की संरचना से कर सकते हैं. परत दर परत और गतिशील पर इतनी धीमी गति से चलने वाली कि पृथ्वी के निवासी इसे कभी महसूस नहीं करते. पर जब ये परते तेज़ी से हिलती है तो ये भूकंप लाता है.

कुछ ऐसा ही भूकंप अभी-अभी प्रधानमंत्री मोदी लाए हैं. रात भर में बस एक नोटिफिकेशन ने ये झटका दिया है. इसने भारत के सुरक्षा तंत्र को एक नये तरह की संरचना प्रदान की है. ये है राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल के आधीन नए कलेवर वाला स्ट्र्टेजिक पॉलिसी ग्रुप (एसपीजी).

इसके 18 सदस्यों में कुछ जाने माने चेहरे हैं. जैसे तीनों सेनाओं के प्रमुख (थल, वायु और जल), दो गुप्तचर प्रमुख (आईबी, रॉ), प्रतिरक्षा, गृह, वित्त और अंतरिक्ष सचिव हैं. इसमें कुछ हैरत में डालने वाले नाम भी हैं: भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर, नीति आयोग के अध्यक्ष, राजस्व सचिव और सबसे रोचक नाम है कैबिनेट सचिव का जो कि औरपचारिक और पारंपरिक रूप से देश का सबसे वरिष्ठ नौकरशाह होता हैं. कैबिनेट सचिव एक संवैधानिक पद है पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद संवैधानिक नहीं है.

इस संक्षिप्त अधिसूचना में तीन और रोचक बातें हैं. एक ये कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) दूसरे मंत्रालयों के सचिवों को समन भेजकर एसपीजी की बैठक में बुला सकते हैं. दूसरा ये कि कैबिनेट सचिव “एसपीजी के निर्णयों का केंद्रीय मंत्रालयों, विभागों और राज्य सरकारों द्वारा कार्यान्वयन का समन्वय करेंगे.” और तीसरा ये कि इस नोटीफिकेशन पर प्रधानमंत्री कार्यालय के किसी अधिकारी या कैबिनेट सचिवालय ने हस्ताक्षर नहीं किये थे बल्कि इस पर राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के एक संयुक्त सचिव के हस्ताक्षर थे.

जैसा कि इस अधिसूचना में संकेत मिलते हैं, एसपीजी की स्थापना वाजपेयी सरकार ने अप्रैल 1999 में की थी. फर्क ये है कि उसका नेतृत्व तब कैबिनेट सचिव करते थे. एनएसए और योजना आयोग के उपसभापति इसमें विशेष आमंत्रित थे और इनका दफ्तर कैबिनेट सचिवालय में था. अब इस अधिसूचना के बाद ये दफ्तर राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) में स्थानांतरित हो गया है. कैबिनेट सचिव अब इसके प्रमुख नहीं, सदस्य भर रह गए हैं और इसके निर्णयों के अनुपालक. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इसके नए प्रमुख हैं.

अब ये कहने की बहुत इच्छा हो रही है कि ‘मंत्रिमंडल के क्लर्क’ अब ‘एनएससीएस के क्लर्क’ हो गए हैं. पर ये बदलाव संवेदनशील है और इसे ऐसे शब्दों की बाज़ीगरी से उड़ाना ठीक नहीं. ये नौकरशाही में कौन ऊपर कौन नीचे वाले सवाल तक सीमित नहीं है और न ही विभिन्न विभागों के बीच पदक्रम का मामला है. ये राष्ट्रीय सुरक्षा पर महत्वपूर्ण सवाल उठाता है और जीवंत बहस की मांग करता है.

सबसे महत्वपूर्ण कि यह संरचनात्मक बदलाव औप​चारिक रूप से हुआ और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी निर्णय लेने का कानूनी अधिकार कैबिनेट सचिव की जगह एनएससीएस के पास चला गया. कैबिनेट सचिवालय में ही रॉ का आॅफिस है और इसका बजट भी यहीं से आता है. ​तकनीकी रूप से, यथास्थिति जस की तस बनी रहेगी यानी एसपीजी के निर्णय को कैबिनेट सचिव के जरिये लागू किया जाएगा, लेकिन अधिकार उनका या मंत्रिमंडल का नहीं होगा. लेकिन औपचारिक रूप से या रिकॉर्ड में ऐसा नहीं होगा. यह कहना सही होगा कि जबसे एनएसए प्रधानमंत्री के मुख्य सुरक्षा सलाहकार बने हैं, प्रधानमंत्री ने उनको यह अधिकार दे दिया है कि संस्था के निर्णय पर वे भारी रहेंगे. लेकिन मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि रायसीना हिल्स के मजबूत पॉवर स्ट्रक्चर को इस तरह की अनौपचारिकता से बदला या समायोजित किया जा सकता है.

इस परिवर्तन से कुछ ​​बहसतलब मुद्दे उठते हैं:

पहला, क्या इससे गृह मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री की मौजूदा शक्तियां और अधिकार कमजोर नहीं होंगे? परिणामस्वरूप, उनके अधिकारी और सेवा प्रमुख वापस आकर उन्हें वह निर्णय ​बताएंगे जो कैबिनेट सचिव उन्हें बताएंगे.

दूसरा, कैबिनेट की सुरक्षा समिति के पास करने के लिए क्या रह जाएगा? प्रशासन से कैबिनेट तंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी इसकी आधारशिला है. यह तय करती है कि महत्वपूर्ण मसलों पर सुरक्षा समिति के सभी सदस्यों के पास कुछ कह पाने का अधिकार होता है. इसलिए वे सामूहिक निर्णय लेते हैं. बेशक प्रधानमंत्री का निर्णय अंतिम होता है और उनके निर्णय को प्रधानमंत्री का समर्थन प्राप्त होता है. सुरक्षा समिति में बहस और मत—मतांतर को स्वस्थ और सामान्य प्रक्रिया माना जाता है. क्या यह अब भी संभव रह जाएगा, जब कोई निर्णय सबसे बड़े अधिकारियों, सेवा प्रमुख वाली इस वृहद एसपीजी की तरफ से आएगा, जिसमें प्रधानमंत्री की भी सहमति होगी? इसे इस तहर से देखें कि यदि प्रधानमंत्री के दिमाग में पहले से यह बात हो कि आप क्या बहस करेंगे, तब क्या अन्य चार मंत्रालय (गृह, रक्षा, वित्त और विदेश मंत्रालय) इस निर्णय प्रक्रिया में सिर्फ रबर स्टॉम्प होंगे?

तीसरा, इस मोड़ पर यह उतना जरूरी नहीं है क्योंकि यह कुछ ऐसा है जो किसी भी समय कैसे भी होने नहीं जा रहा है. बल्कि यह सुरक्षा प्रमुख की संस्था पर किसी भी पूर्वानुमान, यहां तक कि बहस को भी समाप्त कर देगा.

बहस होती है कि एक सशक्त प्रधानमंत्री के अंतर्गत निर्णय नीचे से ऊपर जाने की बजाय, ऊपर से नीचे की तरफ जाते हैं. हमने इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ऐसा ही देखा था. लेकिन प्रधानमंत्री का अधिकारों का यह औपचारिक केंद्रीकरण करना, पारंपरिक ढांचे को हाशिए पर ले जाना है. यह चेक एंड बैलेंस को ध्वस्त करना है जो कि अशिष्टता है.

एक क्षण के लिए सोचिए, राफेल पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या पूछा है. क्या उचित प्रक्रिया को फॉलो किया गया, या फिर यह निर्णय प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया और उन्हीं ने घोषणा की? यहां तक कि अगर यह अच्छी नीयत से किया गया, तो भी क्या जरूरी औपचारिकताएं और कागजी प्रक्रिया पूरी की गई? यह मालिकाना हक का मसला है. बेशक, पुराना और पारंपरिक नौकरशाही का ढांचा दमघोंटू है और उसमें बदलाव की जरूरत है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बहुस्तरीय संवैधानिक व्यवस्था को एक खलीफा के हाथों में सौंप दिया जाए जो ऊपर बैठकर अकेले निर्णय ले.

अगला, नौकरशाहों का ‘जातीय पूर्वाग्रह’ (यह मेरा नहीं, आईपीएस एसोसिएशन का मानना है जिनका एक हिस्सा सरकार में प्रतिनिधित्व करता है) को मेरिट के आधार पर पुनर्निमित करने और चुनौती देने की जरूरत है. यह मुद्दा न सिर्फ आईएएस, बल्कि किसी भी सेवा के साथ होगा जिसमें उत्कृष्टता की दरकार होगी. मोदी सरकार की यह विचित्र असलियत है कि सरकार में ऊपर के पदों पर मौजूद कोई भी वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी रिटायर होता नहीं दिख रहा है. उनमें से ज्यादातर को सरकार में पुनर्नियुक्ति मिल रही है, जबकि अधिकतर आईएएस और आईपीएस अधिकारी रिटायर होकर घर जा रहे हैं या फिर कॉरपोरेट में बोर्ड मेंबर बन रहे हैं.

तुरंत कुछ नाम गिनाए जा सकते हैं जैसे पूर्व रॉ प्रमुख राजिन्दर खन्ना एनएसए में डिप्टी एनएसए हैं. उनके पूर्ववर्ती आलोक जोशी एनडीए के सत्ता में आने के बाद एनटीआरओ (नेशनल टेक्निकल रिसर्च आॅर्गेनाइजेशन) के चेयरमैन बन गए. 65 की उम्र तक पहुंचते ही वे रिटायर हो गए. उनकी जगह पर सतीश झा आए. वे आईबी के पूर्व विशेष निदेशक थे. वे रिटायर होने के बाद पहले एनटीआरओ के सलाहकार नियुक्त हुए थे. अब उन्हें पदोन्नति दे दी गई है. आईबी के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को जम्मू एंड कश्मीर में वार्ताकार नियुक्त किया गया है. आईबी से रिटायर आरएन रवि नागालैंड में वार्ताकार हैं, लेकिन वे डिप्टी एनएसए भी हैं. रॉ से रिटायर अमिताभ (टोनी) माथुर तिब्बत मामलों के सलाहकार हैं. रॉ से ही रिटायर दूसरे अधिकारी एबी माथुर एएसएबी (नेशनल ​सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड) में हैं. इनके अलावा कर्नल सिंह ने रिटायरमेंट के बाद इनफोर्स डायरेक्टरेट के साथ हैं. एनआईए के पूर्व प्रमुख शरद कुमार रिटायरमेंट के बाद विजिलेंस कमिश्नर हैं. यह सभी रिटायर्ड अधिकारी हैं.

एनएससीएस का बजट बढ़ रहा है. 2016—17 में यह 81 करोड़ था जो 2017—18 में 333 करोड़ हो गया है. सरदार पटेल भवन, जहां एनएससीएस स्थित है, लुटियन दिल्ली में पड़ता है. इसमें से कई अन्य दफ्तरों को हटाया जा रहा है. एक नया साम्राज्य बनाया जा रहा है.

इस हफ्ते के शुरू में मैंने इस मुद्दे पर ट्वीट किया था जिस पर ​तीखी टिप्पणियां आईं. यह टिप्पणियां न सिर्फ डोवाल और सरकार के समर्थकों की तरफ से आईं, बल्कि दिलचस्प यह था कि सबसे तीखी टिप्पणी आईपीएस एसोसिएशन की तरफ से आई. एक देश में जहां पूर्व पुलिस कॉन्सटेबल गृह मंत्री (सुशील कुमार शिंदे) और उप राष्ट्रपति (भैरों सिंह शेखावत) बन जाते हैं, निश्चित तौर पर मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी कि रिटायर्ड आईपीएस सुरक्षा मामले में सबसे शक्तिशाली ज़ार बन जाए. खासकर तब जब उसके बारे में मेरे स्पष्टवादी विचार प्रकाशित हो चुके हों. लेकिन यह अहम सवाल है कि क्या किसी एक आदमी को बहुस्तरीय प्रणाली वाले परमाणु शक्ति संपन्न, 1.34 अरब लोगों के देश में सर्वशक्तिमान बनाया जाना चाहिए.

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