जब मैं भारत के अलग-अलग हिस्सों में यात्रा करती हूं, तो अक्सर सोचती हूं कि आज़ादी के बाद से हम कितनी दूर आ चुके हैं और अगर हम अपनी ऊर्जा को सचमुच सही दिशा में लगाएं, तो हम और कितनी दूर जा सकते हैं.
आज भारत कुछ गिने-चुने देशों में से है जिसने न सिर्फ पेरिस समझौते के वादों को निभाया, बल्कि कई मामलों में उन्हें पार भी किया है. हम 2030 तक अपनी 50% ऊर्जा ज़रूरतें नवीकरणीय स्रोतों से पूरी करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. कई तिमाहियों में तो हमने इतनी बिजली पैदा की है कि घरेलू मांग को पूरा करने के साथ-साथ उससे ज़्यादा भी प्रोडक्शन हुआ है. अब हमारी चुनौती बिजली पैदा करने की नहीं, बल्कि उसे समझदारी से इस्तेमाल करने की है.
हमारी ज़्यादातर बिजली अब भी दशकों पुराने ट्रांसमिशन नेटवर्क से होकर गुजरती है. करीब पांचवां हिस्सा बिजली का घरों और उद्योगों तक पहुंचने से पहले ही बेकार हो जाता है. कुछ इलाकों में लोग बिजली कटौती झेलते हैं, तो कुछ जगहों पर ऊर्जा व्यर्थ चली जाती है. यह असंतुलन एक अहम सवाल उठाता है—अगर भारत बिजली के लिए तैयार है, तो हम बिजली के मामले में सुरक्षित क्यों नहीं हैं? इसका जवाब है—स्टोरेज और डीसेंट्रलाइज़ेशन (विकेन्द्रीकरण).
हमें अपनी बनाई हुई ऊर्जा को संभालना सीखना होगा. दिन में सौर ऊर्जा और रात में पवन ऊर्जा को ऐसे आधुनिक बैटरी सिस्टम और स्थानीय ग्रिड की ज़रूरत है, जो हर समुदाय के लिए बिजली को स्टोर और शेयर कर सकें. ज़रा सोचिए, अगर हर ज़िला अपनी ज़रूरत की स्वच्छ बिजली खुद पैदा और प्रबंधित करे—यही असल में विकेन्द्रीकरण है. इसका मतलब अलग-थलग होना नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर बनना है और हां, अगर सही ढंग से डिज़ाइन किया जाए तो ऑफ-ग्रिड मॉडल न सिर्फ सस्ता और असरदार होता है, बल्कि ट्रांसमिशन में होने वाले नुकसान को घटाता है, बिल कम करता है और लोगों को अपने संसाधनों पर नियंत्रण देता है.
नेट-ज़ीरो डेवलपमेंट
यही सोच इस बात पर भी लागू होती है कि हम कहां और कैसे निर्माण करते हैं, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री आवास योजना शुरू की थी, तो वे सिर्फ लोगों को छत देने का वादा नहीं कर रहे थे—वे सम्मान देने का वादा कर रहे थे. अब ज़रूरत है उस सम्मान को स्थिरता (सस्टेनेबिलिटी) से जोड़ने की. सस्ती आवास योजनाएं नेट-ज़ीरो हाउसिंग भी होनी चाहिए—ऐसे घर जो केंद्रीकृत नेटवर्क पर कम निर्भर हों. बिजली, सीवेज और पानी—इन सभी को स्मार्ट डिज़ाइन के ज़रिए स्थानीय स्तर पर प्रबंधित किया जा सकता है.
2013 में पर्यावरण मंत्रालय ने देश के कई इलाकों को “रेड ज़ोन” घोषित किया था—यानी निर्माण और उद्योग पर रोक वाले क्षेत्र—ताकि नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों की रक्षा की जा सके. इन क्षेत्रों में कई समुदाय बसे हुए हैं, जो विकास की प्रतीक्षा में हैं जो कभी पहुंचा ही नहीं. राज्यों से कहा गया था कि वे समीक्षा करें और बताएं कि कौन-से इलाके सुरक्षित रूप से इन प्रतिबंधों से बाहर आ सकते हैं, लेकिन कई रिपोर्टें आज भी लंबित पड़ी हैं.
यहीं नेट-ज़ीरो असली बदलाव ला सकता है. अगर हम नेट-ज़ीरो इमारतों, फैक्ट्रियों, कोल्ड स्टोरेज, चाय बागानों, स्कूलों और अस्पतालों को सक्षम बनाएं, तो वे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना काम कर सकते हैं. हमारी सोच “नहीं” से “हां, अगर टिकाऊ है” में बदल सकती है. विकास का मतलब विनाश होना ज़रूरी नहीं—यह नवाचार भी हो सकता है. बिना विकास के लोग आगे नहीं बढ़ सकते और बिना ज़िम्मेदारी के विकास टिक नहीं सकता.
मैंने इस संतुलन को झांसी में अपनी आंखों से देखा—एक पब्लिक लाइब्रेरी जो पूरी तरह नेट-ज़ीरो सिद्धांतों पर बनी है. यह एक सरकारी इमारत है जो बिजली का बिल नहीं देती, बल्कि अतिरिक्त बिजली ग्रिड को वापस भेजती है. यह पूरी तरह आधुनिक है, एयर-कंडीशंड है और रोज़ाना 250 से ज़्यादा छात्र यहां आते हैं. यह उदाहरण साबित करता है कि नेट-ज़ीरो सिर्फ एक विचार नहीं, ज़मीन पर हकीकत बन सकता है.
यही संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) का मूल है—विकास जो समावेशी, समान और टिकाऊ हो. पर्यावरण बचाने के लिए प्रगति रोकने की ज़रूरत नहीं, उसे दोबारा परिभाषित करने की ज़रूरत है. नेट-ज़ीरो वही रास्ता है जो ट्रांसमिशन को ट्रांज़िशन में, यानी बातों को असली बदलाव में बदल सकता है.
अगर हर सार्वजनिक या निजी प्रोजेक्ट को मापने योग्य नेट-ज़ीरो मानकों पर परखा जाए, तो भारत दुनिया को दिखा सकता है कि किसी देश की तरक्की को धरती की तरक्की से अलग नहीं होना चाहिए. हमारे पास नवाचार की क्षमता है, नीति ढांचा है और राजनीतिक इच्छाशक्ति भी. अब बस ज़रूरत है एक सामूहिक फैसले की—टिकाऊ नेट-ज़ीरो विकास को “हां” कहने की.
(मीनाक्षी लेखी भाजपा की नेत्री, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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