नया कैलेंडर वर्ष शुरू हो गया है और टीकाकारों का ध्यान चालू वित्त वर्ष में संभावित आर्थिक वृद्धि (व्यापक सहमति इस बात पर है कि यह 7 फीसदी के आसपास रहेगी) से हट कर इस बात पर चला गया है कि अगले वित्त वर्ष में यह क्या रहेगी.
अगले चार सप्ताह के अंदर पेश किए जाने वाले बजट को सहारा देने के लिए इसका यथार्थपरक अनुमान लगाना महत्वपूर्ण होगा. ऐसा खासतौर से इसलिए है कि पिछली भविष्यवाणियां अतिशयोक्तिपूर्ण थीं, विशेषकर सरकारी प्रवक्ताओं की. वे नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले कार्यकाल के शुरू से लेकर बाद में कई बार वृद्धि के आंकड़े को दहाई में बताने के वादे से शुरू होती थीं. सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल (2019-20) में भी उसके तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार ने 7 फीसदी वृद्धि की भविष्यवाणी की थी मगर वह साल 4 फीसदी की वृद्धि के साथ समाप्त हुआ.
इसके अलावा यह भी भविष्यवाणी की जाती रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर के बराबर हो जाएगी और इसके लिए पहले तय किया गया समय 2022-23, अब इसे बढ़ाकर 2026-27 कर दिया गया है. अगर कोविड महामारी के कारण लगे झटके का हिसाब भी रखा जाए तो गोलपोस्ट को इस तरह बदलने से आकलन की गंभीरता पर सवाल खड़े होते हैं.
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वैसे भी, नयी समय सीमा को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भी मान्य किया है. उसने अक्टूबर में अनुमान लगाया था कि 2026-27 में यह आंकड़ा 4.95 ट्रिलियन डॉलर रहेगा जबकि इस वित्त वर्ष में यह 3.47 ट्रिलियन है.
इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि इन चार वर्षों में 42 फीसदी ज्यादा वृद्धि हो जाएगी, क्योंकि आंकड़े डॉलर के चालू मूल्य के हिसाब से हैं, जिनमें मुद्रास्फीति का हिसाब रखा गया है. 2022 में अमेरिका में मुद्रास्फीति 7 फीसदी थी, इसके बावजूद अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले रुपये की कीमत 11 फीसदी घट गई. इसलिए, इस साल जब वास्तविक आर्थिक वृद्धि 7 फीसदी के आसपास रह सकती है तो रुपये की कीमत में नाम की वृद्धि 14-15 फीसदी की हो सकती है, जबकि आईएमएफ ने अक्टूबर में डॉलर की कीमत में नाम की वृद्धि 9 फीसदी रहने का अनुमान लगाया था.
अगर डॉलर के पैमाने से चलें तो बेहतर होगा कि भारत में प्रति व्यक्ति आय का लक्ष्य निम्न-मध्यवर्ग से बढ़कर उच्च-मध्यवर्ग की श्रेणी (करीब 4000 डॉलर) में पहुंचाने का रखा जाए.
यह हमें वर्तमान मुख्य आर्थिक सलाहकार की इस अपेक्षा पर पहुंचाता है कि दशक के शेष हिस्से में वृद्धि दर 6.5 फीसदी रहेगी. यह पूरी तरह यथार्थपरक है क्योंकि वृद्धि 1992-93 के बाद 28 वर्षों यानी 2019-20 तक, जबकि महामारी ने हमला किया था, इसी स्तर पर रही है.
वास्तव में, कुल वृद्धि दर में अब तक तेजी आनी चाहिए थी, क्योंकि अर्थव्यवस्था के सबसे तेजी से वृद्धि कर रहे सेवा सेक्टर का वर्चस्व कायम है जबकि सबसे सुस्त कृषि सेक्टर तीन दशक पहले के मुक़ाबले आज आर्थिक गतिविधियों में काफी छोटी हिस्सेदारी कर रहा है. कृषि सेक्टर का योगदान कुल मूल्य के 40 प्रतिशत से घटकर 17 फीसदी रह गया है.
इस संरचनात्मक बदलाव और बेहतर भौतिक तथा वित्तीय ढांचे व डिजिटाइजेशन से मिले फ़ायदों के बावजूद अर्थव्यवस्था में तेजी नहीं आती तो इसकी वजह यह है कि बचतों और निवेशों की दरें अपने चरम पर पहुंचने के बाद नीचे गिर रही हैं, व दो और बाधाएं हैं— सार्वजनिक कर्ज-जीडीपी का ऊंचा अनुपात और कामगार-आबादी का कहीं ज्यादा नीचा अनुपात. ये सब न होते तो वार्षिक आर्थिक वृद्धि 7 फीसदी की दर को पार कर जाती.
पॉलिसी से फर्क पड़ सकता है. बेरोजगारी सबसे बड़ी चुनौती है. वियतनाम जैसे प्रतिस्पर्द्धी देशों की तुलना में ज्ञान और हुनर के निम्न स्तर के कारण शिक्षा दूसरी बाधा है. ये देश शुल्कों की नीची दरों और बेहतर व्यवसाय माहौल के साथ अंतरराष्ट्रीय ‘वैल्यू चेन’ में शामिल होने के मामले में खुला नजरिया रखते हैं जबकि भारत अपनी शुल्क दरें बढ़ाता रहा है और क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्थाओं से दूर रहा है. वृद्धि के घरेलू स्रोतों पर बढ़ती निर्भरता देश को उस तेजी से वंचित करेगी, जो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार तक पहुंच मिलने से आती है.
अंत में, आगामी वित्त वर्ष के लिए क्या संभावनाएं हैं? 6 फीसदी से अधिक की वृद्धि की उम्मीद का अर्थ होगा मौजूदा गति में अहम वृद्धि.
यह मुमकिन है मगर वित्त नीति और मुद्रा नीति, दोनों को लेकर कुछ बाधाएं हैं, जिनका ज़ोर वृहद आर्थिक असंतुलनों— वर्तमान चालू खाता घाटा, वित्तीय घाटा, और मुद्रास्फीति— को कम करने पर होना चाहिए. ये तीनों इतने ज्यादा हैं कि ये सुकून नहीं दे सकते. इसलिए निजी निवेश और उपभोग को आगे बढ़कर कमान संभालना चाहिए; इनके मामले में सुधार की गति के बारे में कुछ अनुमान अभी मुश्किल है. इसलिए, साल के अंत में उम्मीद से ज्यादा हासिल करने के लिए वित्त मंत्री अगर कम बड़ा बजट बनाने का चलन जारी रखती हैं तो अच्छा ही करेंगी.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)
(संपादन : इन्द्रजीत)
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