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Saturday, 2 November, 2024
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पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव का विवाद पहुंचा अदालत, धनखड़ को हटाने के लिए याचिका

राज्यपाल की नियुक्ति, उनकी कार्यशैली, उनकी कार्रवाई या फिर उन्हें पद से हटाने का मामला समय समय पर न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता रहा है. कोर्ट ने कई मामलों में राज्यपालों की भूमिका पर प्रतिकूल टिप्पणियां भी की हैं.

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केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यों में राज्यपाल की भूमिका अक्सर ही विवाद में रही है. राज्यपाल पद पर आसीन अधिकांश व्यक्तियों पर केंद्र के राजनीतिक हित साधने के आरोप लगते रहे हैं. राज्यों में भी राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच अक्सर ही किसी न किसी मुद्दे पर खींचतान होती रहती है. कई बार राज्यपाल की कार्यशैली या मंत्रिपरिषद की सलाह के बावजूद किसी विषय को लंबे समय तक लंबित रखने का मामला न्यायपालिका में पहुंचता रहा है.

यह सुनिश्चित करने के लिए कि राज्यपाल निष्पक्ष हों और बगैर किसी पक्षपात के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने 15 साल पहले राज्यपाल की नियुक्ति के लिए कुछ दिशा निर्देश तैयार करने का भी सुझाव दिया था. इसके बावजूद राज्यपाल की भूमिका किसी न किसी वजह से विवाद का केंद्र बनती रही है.

इसी कड़ी में अब पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच लंबे समय से छिड़ा विवाद अब अदालत पहुंच गया है. धनखड़ को राज्यपाल के पद से हटाने के लिए कलकत्ता हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है. इसमें राज्यपाल पर बीजेपी के मुखौटे के रूप में काम करने का आरोप लगाया गया है.

राज्यपाल धनखड़ समय समय पर ममता बनर्जी सरकार, विधान सभा अध्यक्ष, मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक से विभिन्न विषयों पर जानकारी मांगते रहते हैं लेकिन अक्सर उन्हें निराशा ही हाथ लगती है. राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच रिश्तों में कड़वाहट के बीच चर्चा है कि ममता बनर्जी ने धनखड़ का ट्विटर ब्लॉक कर दिया है. कोई नहीं जानता की राज्यपाल धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच यह गतिरोध कब और कैसे थमेगा.

राज्यपाल  के पद पर जुलाई, 2019 में वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनखड़ की नियुक्ति के बाद से ही उनके और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच किसी न किसी मुद्दे पर अनबन की खबरें आती रही हैं. यह जनहित याचिका इन्हीं टकराव के परिप्रेक्ष्य में एक वकील ने दायर की है.

बिहार में 2005 में विधानसभा भंग करने के मामले में राज्यपाल के रूप में सरदार बूटा सिंह, उत्तर प्रदेश में अचानक ही फरवरी, 1998 में कांग्रेस के जगदंबिका पाल सिंह को मुख्यमंत्री बनाने के मामले में राज्यपाल रोमेश भंडारी, महाराष्ट्र में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका, तीन कृषि कानूनों को लेकर किसानों के आंदोलन के दौरान मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक की भूमिका और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले के घटनाक्रम तथा बाद में हुई हिंसा आदि के परिप्रेक्ष्य में राज्यपाल के रूप में जगदीप धनखड़ की भूमिका सहित कई राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव होता रहा है. इसी परिप्रेक्ष्य में राज्यपालों की नियुक्ति, उनकी भूमिका और उन्हें पद से हटाने का मुद्दा हमेशा से ही विवाद और चर्चा का विषय रहा है.

राज्यपाल की नियुक्ति, उनकी कार्यशैली, उनकी कार्रवाई या फिर उन्हें पद से हटाने का मामला समय समय पर न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता रहा है. कोर्ट ने कई मामलों में राज्यपालों की भूमिका पर प्रतिकूल टिप्पणियां भी की हैं.

राज्यपाल की भूमिका और इस पद पर उनके बने रहने के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने कई अवसरों पर विचार किया है. इस संबंध में जनवरी, 2006 और मई 2010 में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ की दो महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं हैं.


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क्या कहते हैं कानून

संविधान के अनुच्छेद 155 के अंतर्गत राज्यों में एक निर्धारित अवधि के लिए राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं और केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से वह किसी राज्यपाल को पद से हटा सकते हैं या उनका ट्रांसफर कर सकते हैं.

अभी तक राज्यपाल को पद से हटाए जाने के फैसले के खिलाफ या फिर उनकी कार्यशैली के मामले कोर्ट में पहुंचते रहे हैं लेकिन अब पश्चिम बंगाल में राज्यपाल के पद से जगदीप धनखड़ को हटाने का केंद्र का निर्देश देने के अनुरोध के साथ जनहित याचिका कलकत्ता हाई कोर्ट में दाखिल की गई है.

पेशे से वकील राम प्रसाद सरकार को ऐसा लगता है कि राज्यपाल बीजेपी के मुखौटे के रूप में काम कर रहे हैं. उनका दावा है कि धनखड़ राज्य के कामकाज में हस्तक्षेप कर रहे हैं और अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों से तृणमूल सरकार की छवि बिगाड़ रहे हैं.

यह सही है कि संविधान के प्रावधानों के तहत राज्यपाल को राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह से ही काम करना होता है लेकिन आरोप है कि राज्यपाल धनखड़ मंत्रिपरिषद को दरकिनार करते हुए अधिकारियों को सीधे निर्देश दे रहे हैं जो संविधान का उल्लंघन है.

याचिका में दावा किया गया है कि केंद्र सरकार धनखड़ के खिलाफ नहीं है क्योंकि ‘वर्तमान राज्यपाल केंद्र सरकार के राजनीतिक हितों को पूरा कर रहे हैं.’

यही नहीं, याचिका में राज्यपाल धनखड़ की कार्यशैली के परिप्रेक्ष्य में संदेह व्यक्त करते हुए कहा गया है कि वह कानून  व्यवस्था से लेकर शिक्षा तक विभिन्न विषयों पर लगातार राज्य की निर्वाचित सरकार को उपदेश देकर  शर्मिंदा करने का प्रयास कर रहे हैं।

याचिका में राज्यपाल द्वारा रोजाना ही ट्वीट करने पर भी सवाल उठाए गए हैं और आशंका व्यक्त की गई है कि शायद यह राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करने की कोई योजना हो.

याचिका में केंद्र सरकार के साथ ही राष्ट्रपति, पश्चिम बंगाल सरकार और धनखड़ को प्रतिवादी बनाया गया है. इस मामले में अभी सुनवाई होनी है.

किसी भी राज्यपाल को पद से हटाने के बारे में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने सात मई, 2010 को B.P. Singhal vs Union Of India & Anr  केस में अपना सुविचारित फैसला दिया था. यह फैसला दो जुलाई, 2004 को राष्ट्रपति द्वारा चार राज्यों- उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा और गोवा के राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही पद से हटाये जाने को लेकर उठे विवाद में आया था.

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि चूंकि राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 156(1) के अंतर्गत राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत तक ही पद पर रहते हैं इसलिए राष्ट्रपति कोई कारण बताए या कोई अवसर दिए बगैर ही राज्यपाल को पद से हटा सकते हैं.

हालांकि,अदालत ने साफ किया कि अगर राज्यपाल को पद से हटाने के लिए कोई कारण बताने की आवश्यकता नहीं है लेकिन अनुच्छेद 156 (1) का मनमाने या अनुचित तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. इस अधिकार का उपयोग दुर्लभ परिस्थितियों में वैध और बाध्यकारी वजहों से ही करना होगा.

हां, किसी राज्यपाल को इस आधार पर पद से नहीं हटाया जा सकता कि वह केंद्र सरकार या केंद्र में सत्तारूढ़ दल की नीतियों और सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और न ही इस आधार पर हटाया जा सकता है कि केंद्र सरकार का उसमें विश्वास नहीं रह गया है.

बिहार में 23 मार्च, 2005 को विधानसभा भंग करने की अधिसूचना के खिलाफ दायर याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर, 2005 में तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह के इस निर्णय को असंवैधानिक और मंत्रिपरिषद को गुमराह करने वाला करार दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने Rameshwar Prasad & Ors vs Union Of India & Anr  नाम से चर्चित इस मामले में बाद में 24 जनवरी 2006 को अपने विस्तृत फैसले में राज्यपाल की नियुक्ति के लिए कुछ दिशा निर्देश बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया था.

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई के सभरवाल की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को पूरी तरह से छूट प्राप्त है.

अनुच्छेद 361 के अंतर्गत राष्ट्रपति या किसी राज्य प्रमुख का अपने कार्यालय की शक्तियों और कर्तव्यों का पालन और उसके द्वारा किए जाने वाले किसी भी कार्य के लिए किसी कोर्ट के प्रति जवाबदेह नहीं हैं.

हालांकि, संविधान पीठ ने यह भी कहा कि यह छूट दुराग्रह सहित विभिन्न आधारों पर की गई कार्रवाई की वैद्यता की विवेचना करने से न्यायालय को वंचित नहीं करता है.

संविधान पीठ ने साफ किया था कि अगर हम राज्य के प्रमुख कार्यकारी के पद की गरिमा बनाए रखना चाहते हैं तो यह जरूरी है कि इसके लिए सही व्यक्तियों का चयन किया जाए.

इस याचिका का भविष्य तो समय बताएगा लेकिन राज्यपाल के पद की गरिमा और उनकी भूमिका को विवादों से परे रखने के लिए केंद्र और राज्य सरकार के लिए समेकित प्रयास जरूरी हैं. राज्य सरकारों को भी हर विषय पर टकराव का रास्ता अपनाने की बजाए परस्पर सद्भाव से असहमति वाले मुद्दों पर सहमति बनाने के प्रयास करने होंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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