उत्तर प्रदेश के जिन 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं. वह उत्तर प्रदेश के राजनीतिक भविष्य के लिए भी निर्णायक होंगे. सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ऐसी पद्धति निर्मित करना चाहता है जिससे आने वाले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में पूर्ण सत्ता स्थापित की जा सके. जिन 10 सीटों पर चुनाव होने हैं उनमें से 5 सीटें सपा के खाते में थीं. जिसमें करहल, मिल्कीपुर, कुंदरकी(संभल ), कटेहरी, शीशामऊ, शामिल हैं. इसमें से मिल्कीपुर सीट एक ख़ास राजनीतिक नज़रिए से देखी जा रही हैं. इसका कारण राम मंदिर या अयोध्या से जुडा हुआ हैं जो भाजपा के राजनीतिक उत्थान का एक महत्वपूर्ण कारण माना जाता था.
लेकिन मिल्कीपुर का राजनीतिक इतिहास भाजपा के राजनीतिक समीकरण से कभी मेल नहीं खाया है. भाजपा यहां केवल 1991 और 2017 में ही चुनाव जीत पाई है. और यह दोनों वर्ष भाजपा के राजनीतिक उत्थान के वर्ष रहे हैं. 1991 में उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव में भाजपा 425 सीटों में से 221 सीट लाकर सबसे बड़ी पार्टी बन गयी थी. यह राम जन्मभूमि आन्दोलन का वही दौर है जिसका राजनीतिक लाभ पा करके भाजपा 2017 में उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई. हालांकि, होने वाले उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को मिल्कीपुर में राजनीतिक बढ़त मिल सकती है. लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य अत्यंत तनावपूर्ण और चुनौतीपूर्ण है.
वहीं दूसरी सीट करहल की है. यहां से समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेता अखिलेश यादव विधायक थे. करहल यादव बाहुल्य क्षेत्र है. जिसका फ़ायदा समाजवादी पार्टी को हमेशा मिलता रहा है. उपचुनाव में भी समाजवादी पार्टी यहां बढ़त हासिल कर सकती है. इसका कारण जातिगत समीकरणों को जाता हैं.
तीसरी सीट कुंदरकी संभल की है. यह सीट सपा के पास ही रही है. जहां सपा अपने अल्पसंख्यक कार्ड का इस्तेमाल करती है. जिसका फ़ायदा उसे उपचुनाव में भी मिल सकता है. चौथी सीट कटेहरी सपा के पास थी. यह सपा के लिए मज़बूत सीट मानी जाती है. यह एक ऐसी सीट है, जहां यादव बाहुल्य न होते हुए भी सपा यहां चुनाव जीतती आई है. यहां सबसे ज्यादा मतदाता दलित और मुसलमान हैं. जिनके बारे में यह माना जाता है कि यह दोनों ही मिल कर सपा को वोट करते है. यहां भाजपा आज तक सिर्फ एक बार ही चुनाव जीत पायी है. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य भी सपा के ही पक्ष में है.
पांचवी सीट शीशामऊ सपा के लिए चिंताजनक हो सकती है. इरफ़ान सोलंकी को सजा के साथ यह सीट ख़ाली हो गयी है. यहां सपा के राजनीतिक दांव उलटे पड़ सकते हैं.
रही अन्य पांच सीटें मीरपुर, गाजियाबाद, खैर, फूलपुर, मझवां की बात तो ये पांच सीटें लगभग जातिगत समीकरण के आधार पर तय होती हैं. मसलन खैर सीट जाट-ब्राह्मण बाहुल्य क्षेत्र है. यहां की आबादी का मुख्य पेशा कृषि है. जिससे ज़ाहिर है कि यह किसान आंदोलनों से भी प्रभावित क्षेत्र रहा है. साथ ही छोटे-छोटे जोतदार छुट्टा जानवरों की समस्या से बेहाल है जो कि भाजपा से नाराज़गी की मुख्य वज़ह बना हुआ है. लेकिन जाट वोटर्स को लामबंद करने में खड़ेइया खाप की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. जिसका फ़ायदा भाजपा लेती रही है साथ ही आरएलडी का भी अपना राजनीतिक दावा जातिगत ही रहा है. लेकिन यहां स्थिति स्पष्ट नहीं है. इन चुनावी समीकरणों के साथ-साथ भाजपा और आरएसएस के बीच सर्वश्रेष्ठता का प्रतिस्पर्धात्मक विरोधाभास भी बना हुआ है.
सर्वश्रेष्ठता का प्रतिस्पर्धात्मक विरोधाभास:
ज़ाहिर है कि सत्ता दल के शीर्ष नेतृत्व में एक हलचल मची हुई है. जिसमें संगठन और पार्टी को लेकर बार-बार यह आकलन किया जा रहा है कि संगठन (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा उससे जुड़े सहसंगठन) तथा पार्टी (भारतीय जनता पार्टी) में सर्वश्रेष्ठ कौन हैं ? जैसा कि इस आकलन को और राजनीतिक तूल तब मिला जब 14 जुलाई 2024 की कार्यसमिति की बैठक में उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने यह कह दिया की संगठन सरकार से बड़ा है. अपने कार्यकर्त्ताओं को भी संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि “सरकार से बड़ा संगठन है; संगठन से बड़ा न कोई था, न कोई होगा”. गौरतलब है कि केशव प्रसाद मौर्य स्वयं सरकार का हिस्सा हैं. उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस हलचल के दो कारण हो सकते हैं.
एक; 2024 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का उत्तर प्रदेश में उम्मीद से कमतर प्रदर्शन होना. इस प्रदर्शन से संगठन और दल दोनों के बीच एक राजनीतिक विरोधाभास बन गया है. इस राजनीतिक विरोधाभास का दायरा तब बढ़ गया जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मुख्य पत्रिका ऑर्गेनाइज़र में वर्डिक्ट 2024: हिस्टोरिक बट इंट्रोपस्पेक्टिव नाम से एक लम्बा लेख सार्वजनिक हुआ. यह लेख भाजपा के बढ़ते आत्मविश्वास की आलोचना पेश करता है. जहां भाजपा के 400 पार वाले नारे पर टिपण्णी करते हुए लिखा गया था कि किसी लक्ष्य को निर्मित करने और उसे प्राप्त करने के लिए परिश्रम करना पड़ता है. सिर्फ जुमलों को चटकाने से लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं होती है. उसके लिए रणनीतिक तौर तरीके अपनाए जाते हैं साथ ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम भी करना पड़ता है. साथ ही जब भारतीय बौद्धिक और चुनावी विशेषज्ञों ने 2024 के विधानसभा चुनाव का आकलन करते हुए यह कहना शुरू किया कि इस बार के चुनाव में बीजेपी की राजनीतिक रणनीतिकार की भूमिका में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नहीं था. इस आकलन पर आपत्ति जताते हुए ऑर्गेनाइजर के इसी लेख में यह कहा गया है कि आरएसएस बीजेपी की फील्ड फ़ोर्स नहीं है. साथ ही संगठन किसी भी राजनीतिक दल की भांति वोट बैंक की राजनीति नहीं करती. आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है जिसका काम लोगों को जागरूक करना है.
यदि ऑर्गेनाइज़र के इस लेख और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के आपसी संबंधों के आकलन को एक तरफ रखते हुए 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में संगठन और पार्टी के बीच रिश्तों का आकलन करें तो तस्वीर इसके बिलकुल विपरीत नज़र आती है. अमित शाह ने मार्च 2016 में संघ के नेताओं से मुलाकात करके यूपी के लिए एक नयी दलित रणनीति तैयार करने का प्रस्ताव किया था. क्योंकि उस समय तक अमित शाह इस बात को भांप चुके थे कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक सफलता में दलित एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. जिसका एक सफल प्रयोग 2014 के चुनाव में देखा जा चुका था. इसलिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने पूर्व संघ प्रमुख मधुकर दत्तात्रेय देवरस के 100वें जन्मदिन पर एक सम्पर्क कार्यक्रम की घोषणा की. इसके तहत संघ कार्यकर्ताओं को कहा गया कि एक एक दलित परिवार को ‘गोद’ ले उनके साथ भोजन करें. गांवों में भेदभाव के मद्देनज़र संघ ने “एक कुआं, एक मन्दिर, एक मशान” का नारा भी गढ़ा.
उत्तर प्रदेश में संघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच समन्वय का कार्यक्रम की देख रेख करने वाले कृष्ण गोपाल ने दलित चेतना यात्रा की योजना बनाई. इस प्रकार की रणनीति 2024 के चुनाव से लगभग गायब थी.
दूसरा; उपचुनाव को बीजेपी उत्तर प्रदेश के लिए निर्णायक मानती है. नड्डा से हो रही उत्तर प्रदेश के नेताओं की मुलाकात से यह निष्कर्ष निकला जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के सभी नेता (बीजेपी ) एक साथ मिलर चुनाव लड़ें. यहां बताते चलें कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में संगठन और दल के बीच में जिस तरह का विरोधाभास बना हुआ है उसका एक कारण नड्डा का वह कथन भी है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘पार्टी उस समय से आगे बढ़ चुकी है जब उसे आरएसएस की ज़रूरत हुआ करती थी….अब वह “सक्षम” है और अपने काम खुद करती है.
ऐसे में अगर आप केशव प्रसाद मौर्य के बयान की तरफ लौटें जहां वह संगठन को ही सर्वापरि मान रहे हैं, तो यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में उतनी सक्षम नहीं है जिसकी बात नड्डा कर रहे थे?
2024 के लोकसभा चुनाव के अपने सर्वे के दौरान संघ के एक कार्यकर्त्ता से हुई बातचीत में यह बात भी निकल कर आई थी कि बीजेपी के नेता मंत्री इस बात से ही खुश थे कि वह मोदी की चमक-दमक से ही चुनाव जीत जायेंगे जो बची खुची कसर होगी वह राम मंदिर पूरा कर देगा. और इस बात का मंत्रियों नेताओं पर इतना प्रभाव था कि वह संगठन की भूमिका और उसके द्वारा सुझाये जा रहे कार्यक्रमों को नज़र अंदाज करते गए.
इस प्रकार के राजनीतिक परिदृश्य ने उत्तर प्रदेश की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लगभग ठप्प पड़ जाने से एक बड़ा शून्य खड़ा कर दिया है. पार्टी और संगठन की सर्वश्रेष्ठता जनता के हित को हाशिये पर रखने लगती है जो उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए एक चिंताजनक विषय बनी हुई है.
(यह लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ प्रांजल सिंह द्वारा लिखा गया है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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