कोरोनावायरस के चलते लागू किए गए सख्त लॉकडाउन की पाबंदियों में ढील दिए जाने के बाद भारतीय लोगों का जो खास तरह का आचरण सामने आ रहा है उसकी व्याख्या किस तरह की जा सकती है? मार्च में, जब कोविड-19 के संक्रमण के कारण मौतों का आंकड़ा सौ के आसपास ही था, तब नरेंद्र मोदी सरकार ने दुनिया में सबसे सख्त देशव्यापी लॉकडाउन भारत में लागू कर दिया था. ट्रेनों, विमानों, कॉलेजों, स्कूलों, दफ्तरों और सार्वजनिक परिवहन, मॉलों तक सब कुछ को बंद कर दिया गया था. डरे हुए लोग आपाधापी में ख़रीदारी और जमाखोरी करने लग गए थे.
अब, तीन महीने बाद जब कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं और 8000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं, तब ऐसा लग रहा है मानो लोगों का डर काफ़ूर हो गया है. भारतीयों के आचरण में इस भारी बदलाव को समझाने के लिए मैं कुबलर-रॉस मॉडल का उपयोग करूंगा. स्विस-अमेरिकी मनोवैज्ञानिक एलीज़ाबेथ कुबलर-रॉस ने 1969 की अपनी किताब ‘ऑन देथ ऐंड डाइंग’ में मनोदशा की पांच अवस्थाएं बताई हैं—इनकार, क्रोध, सौदेबाजी, हताशा, और स्वीकार. ‘दुख की इन पांच अवस्थाओं’ को कोरोना महामारी के दौरान भारतीय उपभोक्ताओं के आचरण में आसानी से देखा जा सकता है.
यह भी पढ़ें: समाजवादी विचारों वाली जेसिंडा आर्डन जिसने न्यूजीलैंड को दुनिया में सबसे पहले कोरोना मुक्त कराया
महामारी में भारतीय
1. इनकार— इस जमात ने शुरू में तो यह मानने से इनकार कर दिया कि कोरोनावायरस की महामारी फ़ेल रही है, खूब डींग हांकी गई कि भारतीय लोगों में जबरदस्त रोगप्रतिरोध क्षमता है और यह कि भारत की गर्मी में वायरस खुद ही मर जाएगा. शुरू के हफ्तों में इस तरह के खूब व्हाट्सअप मैसेज फॉरवर्ड किए गए, मीडिया समेत हर कोई इस महामारी को खारिज करने में जुटा था. लेकिन संक्रमित लोगों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी तो इनकार कुंद पड़ता गया और गुस्सा हावी होता गया.
2. क्रोध— जब लॉकडाउन अचानक लागू किया गया तो हर कोई गुस्से में दिखा. घर में बंद किए जाने का गुस्सा. स्कूलों के बंद होने का गुस्सा. भारतीय स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की कमजोरी और उसमें कर्मचारियों की कमी का गुस्सा. अर्थव्यवस्था के ठप होने, रोजगार खत्म होने और आजीविका छिनने के आशंका से उपजा गुस्सा.
3. सौदेबाजी— इसके बाद सौदेबाजी शुरू हो गई. ‘हे भगवान, इस संकट से उबारो!’, ‘अपना काम करने के लिए जिन तमाम तकनीक को सीखने से मैं बचता रहा, अब उन्हें जरूर सीख लूंगा’, ‘हे प्रभु, इस महामारी से मुझे सुरक्षित बचा लेना’, ‘अब तो मैं पूरे परिवार का स्वास्थ्य बीमा करवा ही लूंगा’……
4. हताशा— जब इन प्रार्थनाओं का कोई असर न हुआ और हालात बदतर होते गए तो हताशा घेरने लगी. सैकड़ों मील दूर अपने गांव-घर पैदल लौटते परेशान मजदूरों का अंतहीन सिलसिला टीवी के पर्दे पर चलता रहा. इस महामारी के लिए चीन को दोषी ठहराना और उसके प्रति नफरत उगलना शुरू हो गया. अपने अस्पतालों की बदहाली के लिए सरकार को कोसना शुरू हो गया. वेतन काटने, रोजगार छिनने का डर सताने लगा. चारो तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा दिखने लगा, अवसाद छा गया.
5. स्वीकार— लॉकडाउन-4 से भी जब वायरस का चढ़ता ग्राफ सीधा न हुआ, तो इसे कबूल कर लेने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया. जल्दी कोई वैक्सीन आने की उम्मीद नहीं बनी. संक्रमण बड़े शहरों में, खासकर रेड ज़ोन में बेकाबू बढ़ता जा रहा है. यह लंबी लड़ाई है. लोगों की जान भी बचानी है, और आजीविका भी. ट्रेनों को चलाना ही पड़ेगा, विमानों को उड़ने देना ही होगा, कारोबार को फिर पटरी पर लाना ही पड़ेगा.
कुबलर-रॉस मॉडल के हर चरण ने अपनी तरह की जमात पैदा किए, जिनमें एक तरह का आचरण करने वाले लोग बड़ी संख्या में शामिल थे.
यह भी पढ़ें: ये मंदी अलग है और पहले के मुकाबले भारत कहीं ज़्यादा तेजी से वापसी कर सकता है
इनकार के नतीजे
इनकार वाले चरण ने पांच तरह के लोग पैदा किए—
- संत्रस्त— जो लोग आतंकित थे उन्हें लग रहा था कि कोई भारी संकट आ चुका है और उन्हें इससे बचने के लिए कुछ-न-कुछ करना ही होगा. ऐसे लोग भारी मात्रा में हैंड सैनिटाइजर, साबुन, मास्क, दस्ताने खरीदकर जमा करने लगे, ‘हर हाल के लिए तैयार रहना जरूरी है, है कि नहीं!’
- जमाखोर— इस जमात ने पूरे ज़ोर-शोर से सुपरमार्केट में चीजों को खंगालना शुरू कर दिया. चावल, आटा, तेल, दाल, चीनी से लेकर कॉर्नफ़्लेक्स, केचअप, और डिटर्जेंट पाउडर तक जितना ज्यादा-से-ज्यादा हो सके, बटोरने लगे. ‘क्या पता यह महामारी कब तक चले!’
- फिक्रमंद— ये लोग सामान और खाद्य सामग्री के लिए नहीं बल्कि इस बात से ज्यादा चिंतित थे कि पता नहीं पूरी दुनिया, अर्थव्यवस्था, वुहान, अमेरिका, इटली का क्या होगा. इन्होंने एकाध सप्ताह का सामान खरीद लिया, लेकिन विश्व, समाज की चिंता उन्हें ज्यादा खाए जा रही थी. ‘आखिर यह दुनिया कहां जा रही है?’
- ढुलमुल— खरीदें कि न खरीदें? कितना खरीदें? आखिर कितने दिन के लिए खरीदकर रखें? ऐसे ढुलमुल लोग जब तक कुछ तय कर पाते, किराना वाले ने घोषणा कर दी कि उसका तो सारा सामान बिक गया.
- बुद्धिवादी— ये लोग सहज रहने में यकीन करते हैं, इनमें कोई घबराहट नहीं होती. ‘दुनिया खत्म नहीं होने वाली, और कितना सामान जमा करके रखोगे?’
क्रोध के नतीजे
क्रोध ने दो तरह की जमातों का निर्माण किया—
- पछताने वाले—‘संत्रस्त’ और ‘ढुलमुल’ लोग पछताने वालों में बदल गए, कि महामारी के मद्देनजर उन्होंने पहले ही सावधानी क्यों नहीं बरती. सो, वे बचा-खुचा सामान खरीदने लगे. कोई सवाल नहीं पूछा, किसी ब्रांड-व्रांड की बात नहीं की. ‘अरे पहले ही खरीद लेना था, चलो देर आए दुरुस्त आए’.
- शिकारी—जब सब कुछ बंद हो गया तो ‘जमाखोर’ पैंतरा बदलकर ‘शिकारी’ बन गए. वे पैसे और अपनी पहुंच के बूते शराब सहित सब कुछ हासिल करने में जुट गए.
सौदेबाजी और हताशा के नतीजे
सौदेबाजी और हताशा ने नये गुणों से संपन्न जमात बनाए—
- समझौतावादी— चीजों के दाम बढ़ने लगे तो कुछ लोगों ने अपनी पसंद के ब्रांड आदि का आग्रह छोड़ दिया. उन्हें लगा कि आगामी बुरे वक़्त के लिए बचत जरूरी है, इसलिए कोई दिखावा नहीं—कोई पनीर-चॉकलेट-केक नहीं. ‘क्या पता मेरी नौकरी न रहे, इसलिए संभलकर चलना ही बेहतर है’.
- विकल्पवादी— मैगी नहीं है? कोई बात नहीं, कोई भी नूडल चलेगा. अमूल बटर नहीं है? गोकुल दे दो, वह भी नहीं है तो मधु दे दो. जो भी मिल रहा है, खरीद लो. ‘उपाय क्या है? हम तो किस्मत वाले हैं कि हमारी नौकरी बची हुई है, भगवान की दया है!’
- बीच का रास्ता पकड़ने वाले— ऐसे लोग वैरागी किस्म के हैं. न्यूनतम जरूरतों से भी काम चलाने वाले ये लोग नेटफ्लिक्स देखकर भी खुश हैं, दोगुने दाम पर घर पहुंचने वाली सब्जियों से भी खुश हैं. ‘हर समय तनाव में रहने से बेहतर है शांत रहना’.
- भोगवादी— ये लोग मानते हैं कि जोमाटो और स्वीग्गी, किलो के भाव से बिरयानी और डोमिनो तो कहीं जाने वाले नहीं.
‘सब अछूते हैं, सब सेफ हैं. खुदा मेहरबान है!’
यह भी पढ़ें: भारत में ‘गन्स, जर्म्स और स्टील का संकट’ है, लेकिन भारतीय उद्योग जगत ख़ामोश है
स्वीकार के नतीजे
इसके साथ अंतिम किस्म की जमात उभरी—
संतुलनवादी— अपनी नौकरी के भविष्य को लेकर ये आश्वस्त नहीं हैं लेकिन सकारात्मक रुख बनाए रखने की कोशिश करते हैं. अभी तो सब कुछ उपलब्ध है. रास्ता लंबा है. ‘अभी तो अपना सिर पानी के ऊपर रखें. जो जरूरी है वही खरीदें. कोई ऐश नहीं. भगवान सबका भला करे!’
लॉकडाउन के ‘कष्ट’ का सामना
इस लॉकडाउन और महामारी के दौरान भारतीय उपभोक्ता के इस सफर के मद्देनजर वाले ब्रांडों को क्या करना चाहिए था? कुबलर-रॉस मॉडल में रणनीतियां अच्छी तरह परिभाषित हैं.
इनकार और क्रोध वालों के मामले में प्रभावी सूचना और संवाद की जरूरत है. इससे जागरूकता बढ़ती है और जानकारों के विचारों में भरोसा बनता है, उम्मीद बनी रहती है. भारत में कई ब्रांड इस मामले में थोड़ी चूक कर बैठे. उन्होंने विज्ञापन को विराम दे दिया.
सौदेबाजी वालों के मामले में भावनात्मक सहारा देने की जरूरत थी. हालात चाहे जो भी हों, उन्हें यह भरोसा दिलाने की जरूरत थी कि हम आपके लिए ही हैं. बहुत कम ब्रांडों ने ऐसा किया. आम रवैया यह रहा कि उपभोक्ता गायब हैं तो संवाद भी बंद!
हताशा और स्वीकार वाली जमातों को दिशा निर्देश की जरूरत थी. कुछ ब्रांड वापसी कर रहे हैं. मसलन एशियन पेंट्स, कोटक महिंद्रा बैंक. हुंडई क्रेटा सही आवाज़ दे रही है. लेकिन ज़्यादातर ब्रांडों की तीन महिनी की नींद अभी नहीं टूटी है.
पिछले तीन महीने अनजानी राहों पर सफर करने में बीते हैं. उपभोक्ताओं में उथलपुथल है और ब्रांड सदमे में हैं. ‘अनलॉक-1’ शायद उपभोक्ताओं और ब्रांडों को भी ‘न्यू नॉर्मल’ के लिए खुद को तैयार करने में मदद करे.
(लेखक ज़ी टेलीफिल्म्स के पूर्व ग्रुप सीईओ हैं और डेंट्सू इंडिया के फाउंडर चेयरमैन हैं. फिलहाल मोग मीडिया चेयरमैन. विचार निज़ी है. )