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Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमतपिछले एक दशक में जनता ताकतवर, जनतंत्र रंगीन हुआ है

पिछले एक दशक में जनता ताकतवर, जनतंत्र रंगीन हुआ है

जनतंत्र तभी मजबूत होगा जब जनता अपने ऊपर थोपी गई चीजों को तोड़कर आगे निकलने का प्रयास करे. यह वही वक्त है. अभी वही बदलाव हो रहा है, चाहे अच्छा लगे या बुरा.

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देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और किसी को नहीं पता कि जनता किसको जिताना चाहती है. हालांकि लोग तरह तरह से दावा कर रहे हैं लेकिन सबको पता है कि यह दावा सिर्फ अनुमान के आधार पर है. चाहे आप इसको कितना भी साइंटिफिक बताने का प्रयास करें. यहां पर यह बात महत्वपूर्ण है कि 2014 के बाद हो रहे चुनावों में से ज्यादातर में जनता ने क्लियर मैंडेट यानी कि पूर्ण बहुमत दिया है. न सिर्फ केंद्र में बल्कि राज्यों में भी. जनता की राजनैतिक साइकोलॉजी के हिसाब से यह बड़ा बदलाव है.

चुनावी विश्लेषक यह दावा करते हैं कि राजनीतिक पार्टियां मुद्दे उठाकर जनता को भटका देती हैं और मूलभूत मुद्दे दबे रह जाते हैं. यह हालात लंबे समय तक थे क्योंकि जनता के पास अपनी बातों को व्यक्त करने का माध्यम नहीं था, न ही जनता तक सूचनाएं पहुंचती थीं. इस कुव्यवस्था का एक अप्रतिम उदाहरण है. 1980 में केंद्रीय सत्ता में वापसी के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने एक झटके में नौ राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया था. उस वक्त तक तो जनता बिल्कुल पंगु थी. जिस सरकार ने इमर्जेंसी लगाई, उसी सरकार को तीन साल बाद वापस सत्ता दी और जनतंत्र का विखंडन देखना पड़ा. पर इस दशक में एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है. राज्य सरकारें अपने स्वतंत्र अस्तित्व में हैं और यह फेडरलिज्म की ताकत का सबसे बड़ा प्रदर्शन है.


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इससे यह बात जाहिर होती है कि चाहे राजनीतिक पार्टियां किसी भी तरीके से मुद्दे स्थापित करें, बैकग्राउंड में जनता ही मुद्दे तय कर रही है. जो भी पार्टी उन चीजों को समझ रही है, वह जीत रही है. इसकी गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि चाहे केंद्रीय चुनाव हों या राज्यों के हों, या फिर पंचायती या नगर निगम के हों, या छात्र संघ के चुनाव हों, सारी पार्टियों को अर्श से लेकर फर्श तक जोर लगाना पड़ रहा है. शीर्ष से लेकर बिल्कुल निचले स्तर तक- हर किसी को जनता को समझाने निकलना पड़ता है. आखिर क्यों चुनाव अब बहुत मुश्किल और संघर्षपूर्ण हो गये हैं? उम्मीदवारों की छंटनी हो रही है, उनके रिपोर्ट कार्ड न सिर्फ देखे जा रहे हैं बल्कि कई जगहों पर तो जनता के बीच भी आ रहे हैं.

यहां पर यह बात ध्यान रखनी होगी कि क्या जनतंत्र सिर्फ संविधान की बातों को दुहराने से चलता है या फिर बड़े बड़े विचारकों को कोट करने से या सिर्फ अच्छी अच्छी बातें करने से? क्या जनतंत्र सिर्फ सिस्टम से चलता है और क्या यह सिर्फ कानून के भरोसे रह सकता है? इसका साधारण जवाब है- नहीं. एक सौ चालीस करोड़ की जनता की सबसे बड़ी ताकत है- इमोशन यानी भावना. किस जगह पर कौन सा कलेक्टिव इमोशन हावी है, यह सिर्फ अनुच्छेदों और पॉलिटिक्स के नियमों से नहीं समझा जा सकता. 20वीं शताब्दी के अंत और 21वीं शताब्दी की शुरुआत में इंटरनेट के माध्यम से बहुत बड़ी क्रांति आई है, इस वजह से जनता और उसकी राजनीतिक समझ बदल रही है. हम बदलाव के फेज में हैं. जिस प्रकार से औद्योगिक क्रांति आने के बाद राजनीति बदली, भूमंडलीकरण के बाद राजनीति बदली, परमाणु परीक्षण के बाद राजनीति बदली उसी प्रकार का यह अहम बदलाव है.

पिछले एक दशक में जनतंत्र जन के द्वार तक पहुंचा है. मोबाइल फोन और इंटरनेट के माध्यम से आज देश की तमाम जनता जागरूक है और लगभग हर मुद्दे पर बहस कर रही है. एक पल को यह काफी घना और अराजक लग सकता है, लेकिन जनतंत्र के नजरिए से यह अराजक नहीं है. यह सिर्फ अकादमिक नजरिये से अराजक है जिसमें कुछ चुनिंदा लोगों को ही पद, डिग्री और एक विशेष अनुभव की वजह से अपनी बातें रखने का अवसर मिलता है. आज सोशल मीडिया के माध्यम से गांव में बैठे हुए एक रमाशंकर की बातें उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि न्यूयॉर्क के किसी बड़े ऑफिस में बैठे रमाशंकर जैक्सन की. वह सिस्टम ब्रेक हुआ है जो कि अकादमिक व्यवस्था और कॉर्पोरेट व्यवस्था की वजह से बना हुआ था- क्लास सिस्टम. अब जनता को समझ आ रहा है कि यह सारा वातावरण एक जाली श्रेष्ठता पर रचा हुआ था.

अब हम कह सकते हैं कि जनतंत्र किताबों से निकलकर लोगों के पास पहुंचा है. इसी वजह से हमारे देश के संविधान को लचीला बनाया गया था. इस संविधान को लिविंग डॉक्यूमेंट कहा जाता है जो खुद को वक्त से मिलाकर चलने का माद्दा रखता है. यह किसी भी धर्म की किताब की तरह आखिरी किताब नहीं है जिसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता. हमारे संविधान निर्माताओं का सपना धीरे धीरे पूरा हो रहा है अलबत्ता नये तरीके से.

बहुत लोगों को यह बात खल सकती है कि जनता कितने असामान्य मुद्दे उठा रही है, उन्हें तो रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा ही चाहिए. यह चार चीजें मिल रही हैं, इसके साथ ही इंटरनेट भी मिल रहा है. पर जनता जो मुद्दे उठा रही है, उससे जनतंत्र जुड़ा हुआ है. जनतंत्र कोई ऐसी व्यवस्था तो है नहीं जिसमें चार विचारक सारी चीजें तय करें और जनता चार चीजें खोजती रहे- फिर आप कहें कि जनतंत्र मजबूत है. नहीं.

जनतंत्र तभी मजबूत होगा जब जनता अपने ऊपर थोपी गई चीजों को तोड़कर आगे निकलने का प्रयास करे. यह वही वक्त है. अभी वही बदलाव हो रहा है, चाहे अच्छा लगे या बुरा.

(ऋषभ प्रतिपक्ष हिंदी के लेखक, ब्लॉगर हैं और साहित्य व सिनेमा में काफी रुचि रखते हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)


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