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Saturday, 2 November, 2024
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लोकसभा में इतने कम मुसलमान सांसद क्यों हैं?

मुसलमानों समेत वंचित तबकों के सांसदों की पर्याप्त संख्या के बिना लोकसभा वैसी नहीं है, जिसकी कल्पना आंबेडकर ने की थी. क्या है इसका समाधान?

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संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 1952 के बाद आज सबसे कम है. कुल 543 सदस्यों वाली लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या आज घटकर 19 रह गई है, इस तरह 14 प्रतिशत मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व लोकसभा में महज 3 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा है. ख्याल रहे कि 1952 के बाद संसद में मुसलमानों का यह सब से कम प्रतिनिधित्व है. अगर हम संख्यानुपात में प्रतिनिधित्व की बात करें तो मुस्लिम आबादी को लोकसभा में 75 सीटें मिलनी चाहिए.

मगर सबसे अफसोसनाक बात पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में देखने को मिली. प्रदेश की 4 करोड़ की मुस्लिम आबादी में से किसी को भी भाजपा ने टिकट नहीं दिया. इस कदम को न सिर्फ जायज करार दिया गया बल्कि भाजपा के कट्टर नेताओं ने यहां तक कहा कि जब मुसलमान उनकी पार्टी को वोट नहीं देते, तो उनको टिकट किस बात का दिया जाये.

सत्ता में हिस्सेदारी की बात तो छोड़िये, भारतीय राजनीति में कट्टरपंथी ताक़तें इस क़दर मज़बूत हो गयी हैं कि वह आज मुसलमानों से “मुक्त” राजनीति की बात कहने में नहीं हिचकतीं. क्या यह रुझान भारतीय संविधान के मूल्यों के प्रतिकूल नहीं हैं?

दरअसल इन प्रश्नों का सम्बन्ध सिर्फ मुसलमानों से ही नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र से है. इन प्रश्नों का सम्बन्ध संविधान के स्तम्भ सामाजिक न्याय, सेकुलरिज्म, अल्पसंख्यक अधिकार से भी है. मुल्क की विविधता और सांप्रदायिक सद्भाव के ताने-बाने भी इन प्रश्नों से जुड़े हुए हैं. दूसरे शब्दों में, यह पूरा मामला न्याय से जुड़ा हुआ है.


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इन प्रश्नों को बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी अपनी पूरी जिंदगी उठाते रहे. अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकार को दबाने या निगल जाने को वह लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रतिकूल मानते थे. उनका कहना था कि जब तक वंचित समाज के लोग संसद और अन्य संस्थाओं में नहीं पहुंच जाते, तब तक शासक वर्ग के लोग उनके हित को दबाते रहेंगे.

बेहद अफ़सोस की बात है कि अंबेडकर के इन विचारों को आज भुला दिया गया है और राजनीतिक दल मुसलमानों की हिस्सेदारी के प्रश्न को बड़ी बेईमानी से नजरअंदाज कर रहे हैं. इस मामले में कांग्रेस का रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं है. उसके अच्छे दिनों में भी लोकसभा में मुसलमानों की हिस्सेदारी सात परसेंट के आसपास रही.

मुसलमानों के गिरते हुए प्रतिनिधित्व को ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ की खामियों के तौर पर भी देखा जा रहा है. देश में प्रचलित चुनाव की इस पद्धति के अनुसार विजेता उम्मीदवार को ‘मेजोरिटी वोट’ हासिल करने की जरूरत नहीं होती है. जिसने भी अन्य उम्मीदवारों से एक भी ज्यादा वोट हासिल कर लिया, वह विजयी घोषित कर दिया जाता है.

‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ बड़ी सियासी पार्टियों के लिए फायदेमंद साबित हुआ है और इसने बहुसंख्यकवाद को भी बढ़ावा दिया है. दूसरी तरफ, यह सिस्टम छोटी पार्टियों और वंचित समाज के दलों की जीत की राह में बड़ी रुकावट साबित हुआ है क्योंकि वोट शेयर के मुताबिक उनको सीटें नहीं मिलती हैं. उदाहरण के तौर पर, 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने उत्तर प्रदेश में 19.6 फीसद वोट हासिल किया था, मगर उसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई.

इन्हीं कमियों को ध्यान में रखकर ‘प्रोपोशनल रिप्रजेंटेशन’ की मांग हो रही है. इसका मतलब यह है कि वोट शेयर के मुताबिक पार्टियों को सीटें दे दी जाएं. कुछ ने तो एससी और एसटी की तरह मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित किये जाने की वकालत की है. इसके अलावा, बड़ी मुस्लिम आबादी वाली सीट को एससी के लिए आरक्षित करने का भी विरोध किया जा रहा है क्योंकि ऐसी सीटों पर मुसलमान चुनाव लड़ ही नहीं सकते.


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मगर इस विवाद में कई प्रश्न उठाये जा सकते हैं. मिसाल के तौर पर, सारे मुसलमानों की बात इकट्ठे कैसे की जा सकती है, जब मुस्लिम समाज के अन्दर लोग सेक्ट, जाति, फिरके के आधार पर बंटे हुए हैं? बात तो ठीक है कि मुसलमानों में भी अशराफ, अजलाफ और अरजाल हैं. जातियां वहां भी हैं, जिनका खासकर निकाह में खूब ध्यान रखा जाता है.

परन्तु, इन तथ्यों को स्वीकार करने का यह भी मतलब नहीं है कि हम मुसलमान के ऊपर हो रहे अन्याय और भेदभाव को भूल जाएं. बतौर धार्मिक संप्रदाय, उनको हर तरह से कमज़ोर किया जा रहा है. इसलिए इंसाफ का तकाज़ा है कि न सिर्फ मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधित्व की बात हो, बल्कि उनके अन्दर की विविधताओं का भी ध्यान में रखा जाये. कोटे के अन्दर कोटा बनाकर इस प्रश्न का हल ढूंढा जा सकता है.

कुछ लोग मुस्लिम प्रतिनिधित्व में कमी की समस्या का हल ‘मुस्लिम कयादत’ में देखते हैं. उनकी दलील है कि मुस्लिमों को अपनी राजनीतिक पार्टी बनानी चाहिए और उनके ज़रिये अपने हित की रक्षा करनी चाहिए. मगर इस तरह की सियासत की अपनी कमियां भी हैं.

मसलन, जब मुस्लिम सियासत होगी इसके जवाब में बहुसंख्यकवाद पर आधारित हिन्दू सियासत को बढ़ावा मिल सकता है. मुसलमानों की एक बड़ी तंजीम ‘जमीयत उलेमा-ए-हिन्द’ इस खतरे के खिलाफ ध्यान आकर्षित करती रही है. उसका मानना है कि मुसलमानों को सेकुलर पार्टियों से मिल कर साम्प्रदायिक शक्तियों को हराना चाहिए और खुद की पार्टी बनाने से बचना चाहिए.

आखिर में मैं बाबा साहेब आंबेडकर की बात को दोहराना चाहूंगा कि वंचित समुदाय के हितों के पूरा किये बगैर किसी भी लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती. इसके लिए ज़रूरी है कि समाज में वंचित समूहों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जाये.

(अभय कुमार ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के विषय पर अपनी पीएचडी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडी में जमा की है.)

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