लोकसभा चुनाव 2019 में कुल पांच कम्युनिस्ट सांसद जीते हैं. इनमें केरल से एक और तमिलनाडु से चार सांसद हैं. पार्टी के हिसाब से देखें तो सीपीएम के चार और सीपीआई के एक सांसद मौजूदा लोकसभा में हैं. कभी वाम मोर्चे में रही आरएसपी ने केरल से एक सीट जीती है, लेकिन सीपीएम को हराकर. अपने गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में सीपीएम केवल हारी ही नहीं है, उसका भविष्य भी ख़त्म हो गया प्रतीत होता है. 2014 के चुनाव में उसे वहां सीटें तो केवल 2 मिली थी, लेकिन उनका वोट 34 प्रतिशत था. इस दफा उन्हें पश्चिम बंगाल में कोई सीट तो नहीं ही मिली, वोट प्रतिशत गिर कर 7.46 प्रतिशत भर रह गया. त्रिपुरा भी सीपीएम के हाथ से निकल चुका है. पूरे उत्तर, मध्य और पूर्वी भारत से कम्युनिस्टों का लोकसभा नतीजों के लिहाज से सफाया हो गया है. (देखें – लोकसभा में दलीय स्थिति)
सीपीआई, सीपीएम और आरएसपी का संसदीय रूप फिलहाल जीवित है. यह संभवतः इनके सृष्टिबीज हों, जो द्रविड़ इलाकों में शेष हैं. बाकी हिंदुस्तान से इनकी विदाई हो चुकी है.
दूसरी तरफ आरएसएस है, जिसकी छाया-पार्टी भाजपा के लोकसभा में 303 सांसद हैं. यानी वह अपने दम पर सामान्य बहुमत 272 से बहुत आगे है. पिछली दफा से भी उसने 21 सीटें अधिक हासिल की हैं. वैचारिक रूप से उसने वाम तो वाम, सेक्युलर वैचारिक राजनीति को भी ध्वस्त कर दिया है. आरएसएस अपनी सौवीं वर्षगांठ 2025 में मनाएगा. आरएसएस का लक्ष्य देश की सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करना और हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना था. इसके लिए उनसे सौ वर्ष का लक्ष्य निर्धारित किया था. निर्धारित समय से 11 वर्ष पूर्व ही उसने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है.
संघ और कम्युनिस्टों की यात्रा
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कब हुई, इस पर विवाद है. कुछ इतिहासकारों का दावा है कि 1920 (17 अक्टूबर) में ही मानवेंद्रनाथ राय और अवनि मुखर्जी जैसे कुछ युवा कम्युनिस्टों ने मिल कर कोमिन्टर्न की दूसरी कांग्रेस के तुरंत बाद ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बना ली थी. लेकिन आधिकारिक रूप से इसकी स्थापना 26 दिसंबर 1925 को समारोह पूर्वक कानपुर में हुई. उसी वर्ष नागपुर में हिन्दुत्ववादियों के एक जत्थे ने केशव बलिराम हेडगेवार के नेतृत्व में आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की.
वैचारिक रूप से दोनों एक दूसरे के विरोधी थे. कम्युनिस्टों का लक्ष्य था कि रूस की बोल्शेविक क्रांति का अगला पड़ाव भारत हो. वहीं, आरएसएस ने हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य रखा और इसके लिए सौ वर्ष का समय निर्धारित किया. दोनों जल्दी ही अलग-अलग कारणों से अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हो गए. रूसी बोल्शेविक क्रांति का भारतीय राजनीति पर असंदिग्ध रूप से प्रभाव पड़ा था. कम्युनिस्ट पार्टी तो बनी ही, आरएसएस के गठन में भी, नकारात्मक ही सही, इसकी भूमिका थी. दरअसल भारत का सामाजिक दकियानूसी तबका भी बोल्शेविक क्रांति से भयभीत हो गया था.
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पहली बाजी वामपंथ के हाथ रही
कांग्रेस के अंदर भी उत्साही समाजवादी चेतनायुक्त युवाओं ने 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी नाम से एक मंच बना लिया, जिसमें आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण जैसे लोग अग्रणी भूमिका निभा रहे थे. जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे लोग वाम विचारों से गहरे प्रभावित थे. नयी और पुरानी विचारधारा का दिलचस्प संघर्ष छिड़ चुका था. कम्युनिस्ट और आरएसएस– इन दोनों विचार शक्तियों की सक्रियता अखिल भारतीय स्तर पर दिखने लगी थी.
कम्युनिस्टों ने 1945 में बंगाल के तेभागा और हैदराबाद निज़ाम राज के तेलंगना में किसान मुक्ति आंदोलन शुरू कर दिया. तेभागा में तो उसे सफलता मिली. लेकिन तेलंगना में वे भारत सरकार द्वारा कुचल दिए गए. अंततः 1951 में कम्युनिस्टों ने तेलंगना आंदोलन वापस ले लिया. इस बीच 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या कर दी गयी. इसके बाद के घटनाक्रम में आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया और इसके सरसंघचालक गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया.
संसदीय राजनीति में वामपंथी आगे रहे
आज़ादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने संसदीय राजनीति में भाग लेने का फैसला किया था. वहीं, आरएसएस से जुड़े लोगों ने एक नए राजनैतिक दल ‘भारतीय जनसंघ‘ का गठन 1951 में कर लिया था. 1952 के लोकसभा चुनाव में दोनों दलों ने हिस्सा लिया. कम्युनिस्ट पार्टी ने 3.29 फीसद वोट लेकर 16 सीटें जीत लीं. वहीं जनसंघ तीन फीसद वोट लेकर केवल तीन सीटें जीत सका. अलबत्ता, एक फीसद से भी कम वोट पाकर अखिल भारतीय हिन्दू महासभा ने चार सीटें जीत ली थीं. जनसंघ और हिन्दू महासभा अधिकतर मुद्दों पर समान विचार रखते थे. पहले लोकसभा चुनाव में सीपीआई प्रमुख विपक्षी दल बन कर उभरी.
बाद के दिनों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय राजनीति में लगातार बढ़त पर रही. दूसरी लोकसभा (1957) में इसके सदस्य 27 हो गए. संख्या बढ़ती रही. तीसरी लोकसभा (1962) में सीपीआई के 29 सदस्य थे. इसी वर्ष भारत-चीन सीमा विवाद हुआ और इसकी व्याख्या कम्युनिस्टों के कई गुटों ने भिन्न -भिन्न तरीके से की. इस प्रश्न पर पार्टी में विवाद हो गया. इसके बाद 1964 आया, जब पार्टी दो भागों में बंट गयी. दूसरे हिस्से को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और संक्षेप में माकपा या सीपीएम कहा गया.
1967 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई को 23 और सीपीएम को 19 सीटें मिली. दोनों को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 42 हो जाती है. संसद में कम्युनिस्ट पार्टी की बढ़त जारी रही. 1969 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में, नक्सलवाड़ी किसान आंदोलन को लेकर एक और टूट हुई. इस तरह तीसरी कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी–लेनिनवादी) कहा गया. बोल-चाल में इसे नक्सलवादी या माले भी कहा जाता था. इसके अब कई धड़े हो चुके हैं.
1971 में सीपीआई ने इंदिरा कांग्रेस के नेतृत्व वाली कांग्रेस से मिल कर चुनाव लड़ा, लेकिन नतीजे पिछली दफा जैसे ही आये. उसे फिर 23 सीटें मिली. अलबत्ता सीपीएम बढ़ कर 25 पर पहुंच गयी. इमरजेंसी का समर्थन करने के कारण सीपीआई का जनसमर्थन घट गया. सीपीएम को इससे फायदा मिला. धीरे-धीरे वह मजबूत होने लगी. 1977 में सीपीआई को केवल 7 सीटें मिली. सीपीएम 22 पर थी.
1980 में सीपीआई 11 और सीपीएम 37 पर आ गई. 1984 में सीपीआई 6 और सीपीएम 22 पर थे. वहीं 1989 में सीपीआई को 12 और सीपीएम को 33 सीटें मिलीं. फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी जैसे कुछेक अन्य वाम दल मिल कर लोकसभा में वाम धड़े के 53 सांसद थे. 1991 लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे की संख्या बढ़ कर 56 हो गयी. लेकिन 1996 में वे घट कर 50 रह गए. 1998 में वे कुछ और घटे. वे अब 46 रह गए. संख्या गिरने का क्रम जारी रहा. 1999 के चुनाव में 42 वामपंथी सांसद ही आ सके. हिंदी क्षेत्र में वह केवल बिहार में एक सीट ला सकी. पंजाब और तमिलनाडु से भी उसके एक-एक सदस्य जीत कर आये थे. 2004 चुनाव में उनकी संख्या एक बढ़ी और वे 43 हो गए.
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2009 लोकसभा चुनाव के बाद वामपंथ ढलान पर
2009 के लोकसभा चुनाव में वाम पक्ष अचानक धड़ाम हो गया. इस बार कांग्रेस 145 से बढ़ कर 206 पर पहुंच गई, लेकिन वाम पक्ष 16 सीटें ही ला पाया. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने उनकी स्थिति अत्यंत कमजोर कर दी. वहां सीपीएम अब सिंगल डिजिट में थी. उनके मात्र 9 सदस्य चुन कर आ सके. और फिर आया 2014 का मोदी युग.
इस बार वाम पक्ष से पूरे देश में केवल 10 सदस्य चुन कर आ सके. पूरे उत्तर भारत से वाम पक्ष का खात्मा हो गया. एक समय था जब रामजन्मभूमि आंदोलन के विषम काल में रामचंद्र की ‘जन्मभूमि’ और ‘कर्मभूमि,’ यानी फ़ैजाबाद और बक्सर दोनों से कम्युनिस्ट जीते थे. फैज़ाबाद से मित्रसेन यादव और बक्सर से तेजनारायण यादव सीपीआई के उम्मीदवार थे और दोनों ने भाजपा को सीधी टक्कर में शिकस्त दी थी. अब इन इलाकों में कम्युनिस्टों का नामलेवा भी नहीं रह गया है.
ऐसा क्यों हुआ और आरएसएस ने वामपंथियों को किस मैदान में और कैसे हराया, ये एक और कहानी है.
(लेखक साहित्यकार और विचारक हैं. बिहार विधानपरिषद के सदस्य भी रहे हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)