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Friday, 22 November, 2024
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कोरोनावायरस लॉकडाउन में इस बार ताली और थाली सफाईकर्मियों के लिए बजाइए

अगर खतरा सिर्फ सफाईकर्मियों को हो तो मुमकिन है कि बाकी का समाज उन्हें मरने देगा. लेकिन इस बार इलीट और मध्य वर्ग के लिए भी खतरा है. उन्हें सफाईकर्मियों को लेकर संवेदनशील बनना होगा.

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इस हफ्ते दो ऐसी बातें हुई हैं, जिनका असर कोविड-19 के खिलाफ हमारी लड़ाई पर गंभीर रूप से पड़ने वाला है. एक, केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को दिशानिर्देश दिया है कि दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों, विद्यार्थियों और तीर्थयात्रियों आदि को वे अपने राज्य में ले जाएं. इसके लिए कुछ शर्तों और दिशानिर्देशों का पालन करना होगा. दूसरी घोषणा ये है कि कोविड-19 के जिन मरीजों की हालत ठीक है यानी लक्षण माइल्ड हैं, उनका इलाज घरों में ही किया जाए.

इन दो फैसलों के बड़े मायने हैं और इनका असर आने वाले दिनों में कई तरह से नजर आएगा. इस लेख में हम इन फैसलों के सिर्फ एक पहलू पर बात करेंगे. वह पहलू है – कोविड-19 संक्रमित कचरे के निपटान तथा इस काम में लगे लोगों के स्वास्थ्य का.

भारत में चूंकि पवित्र और अपवित्र की बहुत प्रबल धारणा है और जो अपवित्र है, उसे न सिर्फ छूना, बल्कि उसके बारे में बात करना भी निषिद्ध है, इसलिए कचरा प्रबंधन यहां अकादमिक या वैचारिक चर्चाओं से आम तौर पर बाहर रहता है. लेकिन चूंकि इस बार ये सवाल लोगों की जिंदगी से सीधे जुड़ गया है और ये जिंदगी सिर्फ गरीबों और वंचितों की नहीं है, इसलिए इस बारे में बात हो रही है.

इस संदर्भ में कोराना का संक्रमण के दौर की कुछ घटनाओं पर नजर दौड़ा लेते हैं.

– देश के कई शहरों में सफाईकर्मचारी कोरोनावायरस से संक्रमित पाए जा रहे हैं. उनकी मृत्यु की भी खबरें हैं.
– इसे देखते हुए कई राज्य सरकारों ने उनके परिवारों को 50 लाख से 1 करोड़ रुपए मुआवजा देने की बात की है.
– दिल्ली की एक कॉलोनी में बड़ी संख्या में अस्पताल का कचरा गिरा पाया गया. उस कचरे में पीपीई किट, मास्क, ग्लव्ज, सिरिंज, गॉज आदि शामिल थे.
पुणे में बड़ी संख्या में मास्क फेंके पाए गए.
– जिन अस्पतालों में कोरोना के मरीज हैं, उनमें कई जगह कचरा उठाने वालों के पास सुरक्षा उपकरण और ड्रेस नहीं हैं.

ज्यादातर शहरों में कचरा उठाने वालों के पास मास्क और ग्लव्ज तक नहीं होते.

दरअसल कचरा प्रबंधन कोरोना के खिलाफ लड़ाई का एक प्रमुख मोर्चा है, जिसकी अब तक गंभीर अनदेखी हुई है.


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संक्रामक कचरा

चूंकि कोरोनावायरस की प्रकृति बेहद संक्रामक है, इसलिए उससे बचने के लिए इस्तेमाल होने वाले मास्क, गल्व्ज, पीपीई किट आदि का बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है. इस्तेमाल के बाद ये बेहद संक्रामक कचरा बन जाता है. ऐसा ढेर सारा कचरा अस्पतालों, पैथोलॉजिकल लैबोरेटरीज और क्वारंटाइन सेंटर्स से पैदा हो रहा है. वायरस के अधिकतम असर वाले दिनों में चीन के वुहान में बायोमेडिकल कचरे की मात्रा छह गुना बढ़ गई थी.

भारत के बारे में ये अध्ययन फिलहाल नहीं हुआ है, लेकिन अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां भी बायो-मेडिकल कचरे की मात्रा काफी बढ़ गई होगी. ये भी गौर करने की बात है अस्पतालों का ढेर सारा कचरा अभी तक असंक्रामक माना जाता था – जैसे दवा के पैकेट, दवा और पानी की बोतलें, कागज आदि. लेकिन कोरोना वायरस इन पर भी जिंदा रह सकता है और अब उनको भी संक्रामक कचरा माना जाएगा.

क्या भारत इतनी बड़ी मात्रा में पैदा हो रहे बायो-मेडिकल कचरे को सुरक्षित तरीके से निपटा पाने में सक्षम है? भारत में प्रति दिन स्वास्थ्य सुविधाओं से लगभग 608 टन ऐसा कचरा पैदा होता है, जिसे निबटाने के लिए हमारे पास 198 कॉमन बायो-मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फेसिलिटीज हैं. इसके अलावा 225 अस्पतालों में अपने इनसिनरेटर हैं, जहां कचरा जलाया जाता है. ये संख्या देश में मौजूद लगभग 2.60 लाख हेल्थ केयर फैसिलिटीज के हिसाब से बेहद कम है. गौरतलब है कि देश के सात राज्यों में कोई कॉमन वेस्ट ट्रीटमेंट फेसिलिटी नहीं है.


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इसलिए अक्सर पाया गया कि अस्पतालों का ढेर सारा कचरा यहां वहां फेंका हुआ या म्यूनिसिपल वेस्ट डंप में मिलता है. सामान्य स्थितियों में भी ये खतरनाक है. लेकिन चूंकि इसका खतरा आम तौर पर कचरा चुनने वाले देश के लगभग 40 लाख लोगों को ही होता है, इसलिए नीति नियंताओं की चिंताओं में ये शामिल नहीं रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इनमें से ज्यादातर लोग दलित और बेहद गरीब लोग हैं.

लेकिन कोविड-19 ने अलग ही स्थिति पैदा कर दी है. शोध से पता चला है कि कोरोना वायरस कार्ड बोर्ड पर 24 घँटे और मेटल तथा प्लास्टिक पर 72 घंटे यानी तीन दिनों तक तक सक्रिय रहता है. बेहद संक्रामक होने के कारण वह आसानी से उन लोगों तक पहुंच जाता है, जो इनके संपर्क में आते हैं.

अब उन दो फैसलों को देखिए जितनी चर्चा लेख की शुरुआत में की गई हैं. अभी तक कोरोना के हर मरीज का इलाज निर्धारित कोविड अस्पताल में हो रहा था. इसके अलावा संभावित मरीज निर्धारित क्वारंटाइन सेंटर में रखे जा रहे थे. यानी इन जगहों से जो कचरा पैदा हो रहा था, उसकी निगरानी मुमकिन थी और उसका निपटारा सुरक्षित तरीके से मुमकिन था. हालांकि ये कहना मुश्किल है कि ऐसा किस हद तक किया गया.

लेकिन अब लाखों लोग शहरों से गांवों और कस्बों की ओर जाने वाले हैं. इनमें कई को क्वारंटाइन होने ती जरूरत होगी और मुमकिन है कि उनसे कहा जाएगा कि वे खुद को घर में ही आइसोलेशन में रखें. इसके अलावा मामूली लक्षण वाले कोविड-19 मरीजों को घर पर रहकर इलाज कराने के लिए कह दिया गया है. ये सभी लोग संक्रमण फैलाने में, कम से कम सैद्धांतिक रूप से, सक्षम माने जाएंगे.

सवाल उठता है कि इन लोगों के घरों से जो कचरा पैदा होगा, उसका क्या होगा? क्या उन्हें अलग से संग्रह करके, पीले रंग के खास पॉलिथीन में डालकर रखा जाएगा और फिर उन्हें कोई उठाकर निर्धारित बायो-मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फेसिलिटीज तक पहुंचाएगा, जहां उन्हें निपटाया जाएगा? क्या उन्हें अस्पताल के इनसिनरेटर में जलाया जाएगा?

ऐसा नहीं हुआ तो ये कचरा आम कचरे के साथ मिल कर कचरा डंप तक पहुंचेगा और लोगों को संक्रमित करेगा.
अब ये सोचना तो खामख्याली ही होगी कि कूड़े के संपर्क में आने वाले का संक्रमण सिर्फ उन तक ही रह जाएगा और वे इसका कैरियर नहीं बनेंगे और आगे नहीं बढ़ाएंगे. ये न भूलें कि महानगरों की जिन सोसायटी को रेड जोन घोषित किया गया है वहां भी दो तरह के लोगों को आने से नहीं रोका गया है – वे हैं सुरक्षा गार्ड और सफाईकर्मी. इसके अलावा सफाईकर्मी और उनके परिवार के सदस्य ढेर सारी सार्वजनिक जगहों पर भी जाएंगे. यानी तय है कि सफाईकर्मी अगर संक्रमित हुए तो ये बीमारी बहुत बड़ी आबादी में फैल सकती है.

इस बात को इस तरीके से इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि अगर खतरा सिर्फ सफाईकर्मियों को हो तो मुमकिन है कि बाकी का समाज उन्हें मरने देगा. लेकिन इस बार इलीट और मध्य वर्ग के लिए ये सुविधा नहीं है. खतरा उन्हें भी है. कोरोना काल में पवित्र और अपवित्र लोगों के हित अजीब तरीके से साझा हो गए हैं.

साथ में एक खतरा ये भी है कि अगर सफाईकर्मियों को ये संक्रमण बड़ी संख्या में होने लगा, जो हो भी रहा है, तो क्या उन्हें फिर भी काम करने के लिए मजबूर किया जा सकता है? हो सकता कि आज उनमें से कई को नहीं मालूम हो कि कचरा जानलेवा हो सकता है, लेकिन हो सकता है कि कल उन्हें इसकी जानकारी मिल जाए. बल्कि अब तो आवश्यक हो गया है कि उन्हें इस खतरे के बारे में बताया जाए.

लेकिन इसके बाद अगर जिंदगी और रोजगार के बीच उन्होंने रोजगार की जगह जिंदगी को चुन लिया तो क्या होगा? क्या आप ऐसे लोगों को नौकरी से निकालने की धमकी दे सकते हैं, जिनमें से ज्यादातर नियमित नौकरी पर हैं ही नहीं. वे कैजुवल वर्कर हैं और अक्सर 10 हजार रुपए प्रति माह से भी कम पर काम करते हैं? कई तो कचरा निपटाने के दौरान मिली कुछ काम की चीजों पर ही जिंदगी के लिए निर्भर हैं और उन्हें किसी तरह का वेतन ही नहीं मिलता. ऐसे लोगों को आप किस नौकरी से निकालेंगे?


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क्या उनपर ESMS यानी एसेंशियल सर्विस मेंटेनेंट एक्ट लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया जाएगा?

सवाल उठता है कि अगर उनकी सर्विस एसेंशियल है तो उसे प्राथमिकता देते हुए उन्हें सही वेतन क्यों नहीं दिया जाता? उनको बिना मास्क और ग्लव्ज के काम क्यों करना पड़ता है? जब वे जान जोखिम में डाल कर का काम करते हैं, तो उनका ग्रुप इंश्योरेंस करके सरकार उनका प्रीमियम क्यों नहीं भरती. जिस सीवर में ये कर्मी घुसते हैं उसके बारे में माना जाता है वहां मौत का खतरा भारत-पाकिस्तान सीमा पर ड्यूटी करने से ज्यादा है, तो फिर राष्ट्र उतने ही संजीदा तरीके से उनका ख्याल क्यों नहीं रखता?

उपाय क्या है?

आने वाले संकट से बचने के लिए कई काम करने होंगे. एक तो सभी सफाईकर्मियों को सुरक्षा के सारे उपकरण प्राथमिकता के आधार पर दिए जाएं. उनके काम को वेतन के आधार पर इतना आकर्षक बनाया जाए कि वे काम छोड़कर न जाएं. हर क्वारंटाइन सेंटर और घरों में भी वहीं पर संक्रामक कचरे को अलग करने के बारे में जागरूकता फैलाई जाए. कचरे को अलग करके एक दिन रख देना भी उपयोगी हो सकता है.

एक सामान्य वर्ष में अस्पताल, क्लिनिक, पैथ लैब और बायो-मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फेसिलिटीज में कचरा निपटाने की गाइड लाइंस के उल्लंघन के 27,000 से ज्यादा मामले सामने आते हैं. कोविड-19 के दौर में ये लापरवाही जानलेवा साबित होगी, इसलिए सबको नियमों के बारे में बताना होगा और सख्ती से उनका पालन सुनिश्चित करना होगा.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कोविड-19 कचरे के निपटान के लिए विस्तृत गाइडलाइन जारी की है. उसका सघन प्रचार किया जाए. ये प्रचार आम जनता तक पहुंचना चाहिए क्योंकि अब कोविड-19 के मरीज घरों में भी रहेंगे. बायो-मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फेसिलिटीज और इनसिनरेटर बनाना दो दिन का काम नहीं है, लेकिन कम से कम हर जिले में एक ऐसी सुविधा हो, इसकी दिशा में काम शुरू कर देना चाहिए. ये दीर्घावधि का काम है, लेकिन इनमें से कुछ का काम भी इस दौरान पूरा हो गया, तो उसके लिए कोशिश करनी चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह विचार उनके निजी हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. सफाईकर्मियों के लिए कौन ताली बजाता है। यहां कुछ लोगों के बारे में यह माना जाता है कि सफाई करना उनका जन्मजात कर्तव्य है। सफाई करने पर उन्हें सुख की अनुभूति होती है जिसके कारण वह पीढ़ी दर पीढ़ी सफाई ही करते रहते हैं।

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