कई लोग काफी सुकून महसूस कर रहे होंगे कि इमरान खान सत्ता के गलियारे से बाहर कर दिए गए हैं. अब उन्हें सियासी तौर पर ध्वस्त करने के लिए फौज के कई जनरल उन पर कुशासन का जिम्मेदार ठहराने की कोशिश में जुटे हैं, हालांकि उसमें वे भी बराबर के हिस्सेदार थे. लेकिन मुश्किल यह है कि ‘वजीर-ए-आज़म इमरान खान तो हटा दिए गए हैं’ मगर फौज जिस ‘खान फलसफे’ को गढ़ने में शामिल थी वह कायम है और पाकिस्तान के शहरी हलके— मध्यवर्ग, प्रवासी पाकिस्तानियों और युवाओं— को दो हिस्से में बांट रहा है. इसके अलावा, ऐसा लगता है कि इसने फौजी बिरादरी को भी ऊपर से नीचे तक बांट दिया है. आला अफसरान तो जनरल क़मर जावेद बाजवा का साथ देने को तैयार हैं लेकिन ब्रिगेडियर और उससे नीचे के ओहदों के कई अफसर अभी भी इमरान के लिए हमदर्दी रखते हैं.
जनरल बाजवा ने आईएसआई के मुखिया के साथ मिलकर इमरान खान को 2018 में गद्दी पर बिठाया लेकिन सियासत के ‘ओल्ड गार्ड’ की जगह लेने के लिए एक करिश्माई नेता को सामने लाने का यह विचार मूलतः बाजवा का नहीं था. वे उसी विचार को अमली जामा पहना रहे थे जिसे जनरल अशफाक़ परवेज़ कयानी और उनके जमाने में आईएसआई के मुखिया जनरल पाशा ने आगे बढ़ाया था. पाशा को भी इसकी प्रेरणा जनरल हामिद गुल जैसे अपने पूर्ववर्तियों से मिली थी. खुद गैर-ईमानदार जनरल यही चाहते थे कि कोई ऐसा ईमानदार राजनीतिक नेता या और कोई आए जो शासन कुशलता से चलाए और उसकी रणनीति वे खुद तय करते रहें.
संसदीय व्यवस्था और निर्वाचित नेताओं के प्रति उपेक्षा का भाव जनरल अय्यूब खान द्वारा किए गए तख्तापलट के अनुभवों से ही उपजा है. इतिहास बताता है कि सेना पारंपरिक नेताओं को सामंती बताती रही लेकिन वास्तव में ऐसे नेता को पसंद करती रही, जो ज्यादा आधुनिक थे और उनके जैसे थे. इसी विचार में से इमरान खान उभरे. इस विचार से वे लंबे समय तक जुड़े रहे मगर इमरान खान को खारिज करना पड़ा है. कई जनरलों के लिए इस विचार को खारिज करना मुश्किल लगता है. पीटीआई के नेता इमरान खान की सत्ता से विदाई ने शहरी मध्यवर्ग में, जिसका प्रतिनिधित्व सेना में सबसे ज्यादा है, विभाजन पैदा कर दिया है.
‘एक सैद्धांतिक समस्या’ माने गए इमरान से अधिक कल्पनाशीलता के साथ निपटना होगा. वास्तव में, यह कोई पहली बार नहीं हुआ है कि सियासी रूप से ताकतवर फौज ने एक ऐसी सरकार की छुट्टी करवा दी है, जो फौज के लिए महंगी साबित हो रही थी या उसे चुनौती दे रही थी. इतिहास बताता है कि सेना ने जिन नेताओं को खड़ा किया उन्हें निशाना भी बनाया. दूसरी सटीक मिसाल हैं नवाज़ शरीफ, जिन्हें 1980 के दशक में जनरल ज़िया-उल-हक़ के निज़ाम ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) से निपटने के लिए खड़ा किया था लेकिन कई बार उनकी छुट्टी भी की.
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इमरान का मामला अलग क्यों है
बर्खास्त की गई हर सरकार को भ्रष्ट बताकर कोसा जाता रहा है. मुझे याद आता है कि युवा बिलावल भुट्टो के बारे में भी कई कहानियां मुझे भेजी जाती थीं. लेकिन इस बार मसला कहीं ज्यादा अलग और पेचीदा नज़र आ रहा है. इमरान के भ्रष्टाचार, अपनी खुशी के लिए सत्ता के दुरुपयोग की कहानियां धीरे-धीरे सामने आ रही हैं लेकिन उन पर उतना विश्वास नहीं किया जा रहा जितना पहले वालों की कहानियों पर किया जाता था. इसकी तीन वजहें हैं.
पहली यह कि भ्रष्टाचार के जो आरोप अब तक सामने आए हैं उनमें आंकड़े उतने बड़े नहीं हैं जितने पिछली कहानियों में हुआ करते थे. लोगों, खासकर इमरान की कहानी में विश्वास करने वालों की धारणा यह है कि उन्होंने 52 सरकारी उपहारों को मामूली कीमत में खरीदने और फिर उन्हें बेचकर जो 14.2 करोड़ पीकेआर कमाए, या अपने सरकारी तथा निजी आवास के बीच हेलिकॉप्टर से आवाजाही में जो 50 लाख डॉलर खर्च किए वे पनामा पेपर्स में दर्ज घोटाले की रकम या पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी की गैर-कानूनी कमाई की रकम के मुकाबले कुछ भी नहीं हैं. ऐसा लग रहा है कि फौज इमरान का पर्दाफाश करने में हिचक रही है या वह ज्यादा ही समय ले रही है.
दूसरी वजह यह है कि ‘इम द डिम’ के विशेषण से नवाजे जाने वाले इमरान को जितना सीधा-सादा या मंद बुद्धि माना जाता था उससे वे कहीं ज्यादा चतुर और तिकड़मी साबित हुए हैं. पिछले करीब डेढ़ साल से जब वे शासन संबंधी चुनौतियों का सामना कर रहे थे तब उन्होंने इस मिथक को बढ़ावा दिया कि उनके शासन की कमजोरी या तो अक्षम टीम के कारण है या उन्हें काम करने नहीं दिया जा रहा है. उन्होंने दूसरा कारण जो बताया उसने उनकी जगह फौज को ही निशाने पर ला दिया, जिसे इस मुल्क में काफी दखलंदाजी करने के लिए जाना जाता है.
तीसरी वजह यह है कि इमरान को ‘पैदा’ करके फौज ने किसी साधारण नेता को नहीं तैयार किया. वे लोकप्रिय, मसीहाई छवि वाले ऐसे नेता के रूप में सामने आए, जिनके पीछे लोग ज्यादा बड़ी उम्मीद न रखते हुए भी चल पड़ते हैं. फौज ने केवल एक राजनीतिक नेता को ही नहीं तैयार किया था. इमरान एक ऐसा करिश्मा साबित हुए जिस पर लोग इसलिए विश्वास कर लेते हैं कि उन्हें यही सिखाया गया है कि बाकी सब फरेब है.
इमरान 2018 में जब सत्ता में आए थे तब आम धारणा यह थी कि उन्हें कम-से-कम दस साल टिकने दिया जाएगा, कि उन्हें पारंपरिक सियासतदानों की जगह लाया गया है और वे मुल्क की दो दलीय व्यवस्था में तीसरे विकल्प के तौर पर जुड़ेंगे. यह बांग्लादेश की दो दलीय व्यवस्था के प्रति उसकी सेना के विद्वेष की याद दिलाता है, जिस व्यवस्था को फौज ने 2007 में बदलने की नाकाम कोशिश की थी.
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आंतरिक विभाजन
पाकिस्तानी फौज के सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग और उसे खारिज किए जाने ने उसकी बड़ी बिरादरी में, जिसमें सेवारत और सेवानिवृत्त दोनों तरह के फौजी शामिल हैं, विभाजन पैदा कर दिया. संकट जब अप्रैल के शुरू में उभरा था तब फौज में ऊपर से नीचे और एक ही रैंक वाले फौजियों के बीच दो गुट बन गए. यहां तक कि उदारवादी माने गए और अमेरिका को पसंद रिटायर्ड जनरल तारीक़ खान, पूर्व नौसेना अध्यक्ष अफजल ताहिर ने इमरान का समर्थन किया है और उन्हें बर्खास्त करने के लिए न्यायपालिका के खिलाफ भी आवाज़ उठाई है. मीडिया में तो विभाजन हुआ ही है, नौकरशाहों और पूर्व राजनयिकों ने भी इमरान के इस दावे का समर्थन किया है कि उनके खिलाफ साजिश हुई है. बाजवा को सेवारत और सेवानिवृत्त बड़े फौजी अफसरों के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी.
सूत्रों का दावा है कि सेना मुख्यालय में ब्रीफिंग के दौरान कम-से-कम दो बड़े अफसरों ने इमरान को खारिज करने और आजमाए जा चुके नेताओं को वापस लाने के बाजवा के फैसले पर सवाल उठाए. एक सूत्र के अनुसार, बाजवा ने यहां तक कहा कि इमरान ने अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ आईएसआई का इस्तेमाल उनकी मंजूरी के बिना किया.
सूत्रों से मिले संकेतों के अनुसार, सेना अध्यक्ष अपनी बिरादरी के आला अफसरों को अब तक तो अपने साथ रखने में सफल रहे हैं, भले ही वे इमरान की बर्खास्तगी से नाखुश हों. इसकी वजह शायद फौजी अर्थव्यवस्था या ‘मिलबस’ (मिलिटरी+बिजनेस) की ताकत है, जो अनुशासन बनाए रखने में मदद करती है. पॉल स्टानीलैंड, अदनान नसीम उल्लाह और अहसान बट्ट ने अपने लेख ‘पाकिस्तान्स मिलिटरी इलीट’ में संकेत दिया है कि सेना में चोर-चोर मौसेरे भाई वाली व्यवस्था ने किस तरह अनुशासन बनाए रखा है और उसमें उच्च स्तर पर पेशेवर रुख भी बनाए रखा है.
पुरस्कार फौजियों को अनुशासन में रखता है लेकिन कम लाभ पाने वाले निचले रैंक के फौजियों या पूर्व फौजियों के कारण संगठन को तब समस्या होती है, जब वे विचारधारा संबं धी प्रयोगों की ओर आकर्षित होते हैं. उदाहरण के लिए, मुझे बताया गया कि 2001 में सेना को अफगान और दूसरे जिहादी गुटों के साथ जोड़ने वाले तत्कालीन आईएसआई चीफ ले. जनरल महमूद ने दौरे पर ‘रैंड कॉर्पोरेशन’ की टीम को बताया था कि 15-16 फीसदी फौजी अफसर मजहबी रुझान वाले हैं. इस समस्या को कई अफसरों को बर्खास्त करके काबू में लाया गया था.
आज सोशल मीडिया में इमरान के समर्थन का शोर है और उन्हें तीनों सेनाओं के इस हलके से भारी समर्थन मिल रहा है. उनकी भावनाएं विदेश में बसे पाकिस्तानी प्रवासियों की भावनाओं जैसी ही हैं, जो न केवल इमरान का समर्थन कर रहे हैं बल्कि उन्हें नीचा दिखाने के लिए जनरल बाजवा पर अपना गुस्सा भी जता रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री को ब्रिगेडियर (रिटा.) अशफाक़ अहमद और मेजर (रिटा.) आदिल जैसों का समर्थन हासिल है. बताया जाता है कि आदिल को लंदन भागना पड़ा ताकि वे खुफिया एजेंसियों द्वारा पूछताछ के लिए हिरासत में न ले लिये जाएं.
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निराश हुओं ने चुना इमरान को
इमरान नामक ‘विचारधारात्मक प्रयोग’ ने धार्मिक संस्कृति को उस ‘विज़न’ से जोड़ा, जो पुराने, भ्रष्ट और सामंती पाकिस्तान को नष्ट करना चाहता था. भ्रष्टाचार विरोध का सुर फौजी मुख्यालय ने छेड़ा. इसका खाका मई 1988 में जनरल ज़िया-उल-हक़ द्वारा प्रधानमंत्री मोहम्मद खान जुनेजो की बर्खास्तगी से लिया गया. भ्रष्टाचार को उस सरकार की बर्खास्तगी का बहाना बनाया गया था लेकिन असली मुद्दा यह था कि वह असैनिक सरकार ओझरी कैंप हादसे की जांच करवाना चाहती थी और फौजी जनरलों की मर्जी के खिलाफ जेनेवा समझौते पर दस्तखत करना चाहती थी. इसके बाद चार और सरकारों (1988, 1990, 1993, 1996) को भी भ्रष्टाचार विरोधी मंत्र का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति के विशेष अधिकारों के तहत बर्खास्त किया गया.
जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने 1999 में नवाज़ शरीफ की दूसरी सरकार को इसी बहाने से हटा दिया और इसके बाद भ्रष्ट नेताओं या सरकार में उनके साथियों को निशाना बनाने के लिए नेशनल एकाउंटेबिलिटी ब्यूरो (एनएबी) का गठन कर दिया. इसकी जांच के दायरे से जजों, जनरलों को अलग रखा गया. बेईमानों की जमात की जगह एक ईमानदार को स्थापित करने के लिए इमरान को खड़ा किया गया.
लेकिन इमरान भ्रष्टाचार के कीचड़ को साफ न कर पाए और फौजी जनरल भी एक नया पाकिस्तान बनाने में नाकाम रहे. इससे बड़ी समस्या यह है कि ठेठ नेताओं के प्रति नफरत फौज के डीएनए में शामिल है. उसका प्रचार तंत्र राजनीतिक तबके को भ्रष्ट, सामाजिक रूप से पिछड़ा, सामंती, और बिकाऊ बताता है. यह धारणा शहरी मध्यवर्ग में भी भरी हुई है, खासकर युवाओं और उन तबकों में भी जिन्हें पुराने दलों द्वारा दिए गए संरक्षण से कोई लाभ नहीं हासिल हुआ.
2018 में करीब 31 फीसदी वोटरों ने इमरान को वोट दिया था. ये लोग ही आज सबसे ज्यादा दुखी हैं. बढ़ते शहरीकरण के बीच इन वोटरों ने इमरान को उन्हीं कारणों से वोट दिया था जिन कारणों भारत में भी इस तरह का मतदान देखा गया. 2014 में नरेंद्र मोदी भी भ्रष्टाचार विरोधी नारे के ज़ोर पर सत्ता में आए. आज भी इमरान का जो लोग समर्थन कर रहे हैं वह इसलिए नहीं कर रहे कि वे उन्हें चाहते हैं बल्कि इसलिए कि वे जरदारियों और शरीफों को खारिज करते हैं.
अब चूंकि ‘इमरान विज़न’ बाजवा की आंखों के सामने ध्वस्त हो गया है, सेना अध्यक्ष को अब इस घालमेल को साफ करना होगा. इसमें बड़ी मुश्किल पेश आएगी क्योंकि उनका कार्यकाल भी खत्म होने को है. यानी वे अब सफाई करने से परहेज कर सकते हैं. उनके अपने घर में जो घपले हैं उनके कारण बाजवा बहुत ज़ोर नहीं लगाना चाहेंगे. जैसा कि एक पत्रकार अली वारसी ने कहा, वे ‘दुश्मन को हजार घाव देकर मारने’ की चाल चलना चाहेंगे और यह सिर्फ भारत नहीं हरेक दुश्मन के लिए लागू होगा. ‘इमरान वाले विकल्प’ को धीरे-धीरे, हमला-दर-हमला मरने दिया जा सकता है, केवल उनकी भूलों का खुलासा करके ही नहीं बल्कि पुरस्कारों, पोस्टिंग और तबादलों और दूसरे प्रलोभनों के जरिए भी. लेकिन इमरान की छुट्टी करने वाले अगर ‘बेहतर सियासत’ देने का वादा पूरा नहीं करते तो शहरी मध्यवर्ग को अपना रुख बदलने और जवाबी हमला करने से बाज आने के लिए राजी नहीं किया जा सकेगा.
(लेखिका लंदन स्थित किंग्स कॉलेज के डिपार्टमेंट ऑफ वॉर स्टडीज में सीनियर फेलो हैं. उन्होंने मिलिट्री इंक किताब लिखी है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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