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Monday, 18 November, 2024
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इमरान खान का पतन पाकिस्तान के जनरलों की जीत है, लोकतंत्र की नहीं

जनरलों ने अपने चुने पुतले से कुर्सी छीन कर दूसरे पालतू को उस पर बैठाया, इससे पता चलता है कि पाकिस्तानी फौज के हाथ कमान बदस्तूर कायम है.

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खासमखास विदेशी मेहमानों के साथ डिनर मेज पर बैठे प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो अपने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक पर चिल्ला पड़े, ‘इधर आ, बंदर!’ भुट्टो के जीवनीकार स्टैनले वोलपर्ट ने लिखा, प्रधानमंत्री यह दिखा रहे होंगे कि वे जिया को एक अदृश्य डोरे से नचाते हैं, जैसे किसी कठपुतली को. अपने जनरलों के चेहरे-मोहरे, उनकी समझदारी, उनकी बीवियों की बदचलनी के प्रति हिकारत कभी नहीं हटी.

जिया अपमान को हल्की मुस्कान और थोड़ा झुककर पी गए, प्रधानमंत्री का ‘मेहरबानी, हुजूर!’ शुक्रिया अदा किया. उसके बाद 1977 की गर्मियों में जनरल ने अपने फौजियों को हुक्म दिया कि प्रधानमंत्री को घर से निकाल बाहर करो, यह ऐसा सफर था, जो फांसी के तख्ते पर ही जाकर खत्म हुआ.

अब इस हफ्ते, जब प्रधानमंत्री इमरान खान अविश्वास प्रस्ताव से मुकाबिल हुए, जिसमें उनके जीतने की संभावना कुछ थोड़े लोगों को ही है, तो उसे शायद पाकिस्तान में लोकतंत्र की जीत की तरह देखा जा रहा है. 2018 में खान ऐसे चुनाव के बाद कुर्सी पर बैठाए गए थे, जिसमें विरोधियों को धमकाने, न्याय-वयवस्था के दुरुपयोग और खुलेआम धांधली के आरोप लगे थे. दलील यह दी जाती है कि खान ने जिस तरह देश को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया, उससे उनका कुर्सी पर रहना मुश्किल हो गया, यहां तक कि उनके संरक्षक भी हाथ खींचने लगे.

हालांकि कहानी ऐसी नहीं है. जनरलों की अपने चुने हुए बंदर को कुर्सी से हटाकर दूसरे पालतू को बैठाने की काबिलियत साबित करती है कि पाकिस्तानी फौज की ताकत बदस्तूर कायम है.


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जनरलों से जंग

पिछले साल इमरान खान ने गलत सलाह पर फौज प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के खिलाफ लंबी जंग छेड़ दी. उन्होंने इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के डायरेक्टर जनरल फैज हमीद की जगह लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम को बैठाने के कागज पर दस्तखस्त करने से इनकार कर दिया. माना जाता है कि लेफ्टनेंट जनरल हमीद ने ही खान को 2018 में जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. प्रधानमंत्री को उनकी तांत्रिक बीवी बुशरा खान के साथ उनके सहयोगियों ने बताया कि फैज को गंवा देने से उनका पतन भी करीब आ जाएगा.

बाजवा को किनारे धकेलने और नवंबर में फौज प्रमुख का पद खाली होने पर जनरल हमीद की ताजपोशी की राह आसान करने का इमरान का फैसला बुनियादी लाल रेखा को पार कर गया. फौज के हलके में दखल देने वाले प्रधानमंत्रियों का हटया जाना पाकिस्तान में जिया के बाद की सियासत का नियम-सा बन गया है.

इमरान खान जिस शख्स की जगह प्रधानमंत्री बने थे और जिसके भाई ने अब उनकी जगह ली है, वे ही इस कहानी के केंद्र में हैं.

कथित तौर पर आईएसआई की धांधली वाले चुनाव में 1990 में चुने गए नवाज शरीफ को पाकिस्तानी फौजी प्रतिष्ठान के भरोसेमंद आदमी की तरह देखा गया था. इमरान खान की तरह उनकी सियासत भी लोकप्रिय इस्लामवाद के इर्द-गिर्द केंद्रीत थी. उन्होंने पंजाबी जिहादी गुटों को संरक्षण दिया. शरीफ ने बाकी बातों के अलावा पाकिस्तान की कानूनी व्यवस्था को शरीया के मुताबिक ढालने का वादा किया था और शिक्षा संस्थानों तथा आर्थिक व्यवस्था का इस्लामीकरण की पेशकश की थी.

शरीफ की फौज में आला जनरलों को महंगी कार मुहैया कराने जैसे तोहफों के जरिए अपनी पैठ बनाने की कोशिशें तब के फौज प्रमुख जनरल आसिफ नवाज को नहीं भायी.

पूर्व भारतीय खुफिया अधिकारी राणा बनर्जी ने लिखा, ‘फौज प्रमुख ने सीधे नवाज से पूछा, उन्होंने इनकार नहीं किया. उसके बदले उन्होंने आसिफ नवाज को नई बीएमडब्ल्यू की चाबी देनी चाही और कहा कि अपनी पुरानी टोयोटा कोरोना में ही सवार न करें, क्योंकि चीफ के लिए वह ‘सही’ नहीं लगता!’

शरीफ और जनरल नवाज के बीच लेफ्टिनेंट जनरल जावेद नसीर को आईएसआई का डायरेक्टर जनरल बिना फौज प्रमुख की सलाह पर नियुक्त करने से ठन गई. जावेद मजहब का प्रचार करने वाले तबलीगी जमात के सदस्य थे. और जनरल नवाज ने जब इस्लामी गुटों के प्रति सहानुभूति रखने वाले लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल के तबादले की कोशिश की तब भी टकराव हुआ. गुल ने बतौर आईएसआई चीफ नवाज को चुनाव में मदद की थी. फौज प्रमुख नहीं चाहते थे कि उनके जाने के बाद गुल को कुर्सी मिले और उन्हें किसी गैर-कमांड पद पर देखना चाहते थे, ताकि उनके इरादों पर अंकुश लग जाए. आखिरकार शरीफ की आपत्तियों के बावजूद गुल रिटायर हो गए.

फिर 1993 में जनरल अब्दुल वहीद कक्कड़ लेफ्टिनेंट जनरल रेहम-दिल भाटी, मोहम्मद अशरफ, फराख खान और आरिफ बंगेश जैसों की बारी लांघकर फौज प्रमुख नियुक्त किए गए. नवाज शरीफ ने इसका विरोध किया और फौज ने उन्हें इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया.

मिले-जुले लोकतंत्र’ में और झड़पें

नवाज शरीफ के 1997 में दोबारा चुनाव जीतने पर जनरलों के साथ नई झड़पें शुरू हो गईं. अपनी स्थिति मजबूत करने की उम्मीद में शरीफ ने लेफ्टिनेंट जनरल ख्वाजा जियाऊद्दीन बट को आईएसआई का डायरेक्टर जनरल नियुक्त किया. फौज प्रमुख जहांगीर करामात बिना उनकी सलाह के इस फैसले से नाराज हो उठे. उसके बाद करामात ने सरकारी फिजूलखर्ची की खुलेआम आलोचना की और सरकारी फैसलों में फौज की भूमका के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल के गठन की मांग की.

1998 में शरीफ ने करामात को बर्खासत कर दिया ओर लेफ्टिनेंट जनरल परवेज मुशर्रफ को उनकी जगह लाने के लिए चुना. इसके लिए लेफ्टिनेंट जनरल अली कुली खान और खालिद नवाज खान की बारी लांघ दी गई. कारगिल युद्ध के बाद शरीफ ने मुशर्रफ को हटाने की योजना बनाई, जिन्होंने प्रधानमंत्री को जानकारी दिए बगैर युद्ध में जाने का फैसला किया था. जनरल ने तख्तापलट कर दिया.

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की सरकार ने भी 2008-2013 के दौरान रणनीतिक फैसलों में फौज का असर घटाने की कोशिश की. अमेरिका की मदद से एक मौके पर एक गैर-फौजी राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र कायम करने की कोशिश की. सरकार तो बच गई लेकिन फौज ने उसकी वैधता को खत्म कर दी.

जिया की मृत्य के बाद जनरलों ने एक व्यवस्था बनाई, जिसे कूनयिक हुसैन हक्कानी ‘दूसरे तरीके से फौजी शासन’ कहते हैं. 1988 में हवाई दुर्घटना में मौत भी अभी तक रहस्य है, जिसे केजीबी, मोसाद, सीआईए, हाइड्रोलिक गड़बड़ी, नर्व गैस और आम के बक्सों में रखे विस्फोटक जैसे कई तरह की साजिशों के कयास लगाए जाते रहे हैं. विद्वान हसन अस्करी रिजवी ने बताया है कि फौज प्रमुख इस सियासी व्यवस्था के केंद्र बन गए. कार्प कमांडरों के विचार-विमर्श से वे देश में प्रशासन में फौज की सांस्थानिक सहमति का प्रतिनिधित्व करते थे.

1848-49 की क्रांतियों के बाद, इतिहासकार ए.पी.जे. टेलर ने लिखा है, ‘जर्मन इतिहास निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका था, लेकिन वह नहीं हो पाया.’ पाकिस्तान में इस प्रेटोरियम व्यवस्था ने तय कर दिया कि इस ‘मिलीजुले लोकतंत्र’ को चुनौती देने वाले हर नेता का एक ही हश्र होगा.

नए नेता भी पुरानों की तरह

भारत में नेताओं को अमूमन बड़े सख्त तरीके से यह पता चला कि पाकिस्तान में फौज फैसले लेती है, प्रधानमंत्री नहीं. प्रधानमंत्री आसिफ अली जरदारी ने 2008 में जीतने के बाद देश के पूर्वी पड़ोसी के बारे में नजरिए में ऐतिहासिक बदलाव लाने की कोशिश की और कहा कि ‘भारत कभी पाकिस्तान के लिए खतरा नहीं रहा है.’ अब यह पता चला है कि लगभग उसी दौरान लश्कर-ए-तैयबा 26/11 की योजना बना रहा था. जरदारी ने दोषियों पर मुकदमा चलाने की कोशिश की और आईएसआई पर सरकार के नियंत्रण पर जोर दिया, मगर नाकाम रहे.

इसी तरह नवाज शरीफ ने वादा किया कि वे ‘आश्वस्त करेंगे कि भारत के खिलाफ किसी तरह (आतंकी) की साजिश के लिए पाकिस्तान की धरती का इस्तेमाल नहीं होने देंगे.’ उनकी आतंकी गुटों पर कार्रवाई और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत’ की कोशिशों पर पाकिस्तानी फौज ने पानी फेर दिया.

हालांकि 2019 में पुलवामा संकट के बाद जनरल बाजवा ने आतंकवाद पर काबू पाया और उससे कश्मीर में आतंकवाद पर काफी अंकुश लगा है. कहते हैं कि पाकिस्तान फौज प्रमुख के दूत और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बीच बैक चैनल वार्ता हुई है, ताकि दोनों देशों को अनचाही जंग में न जाना पड़े.

अलबत्ता यह संभव है कि पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री जनरल बाजवा को पद पर विस्तार दे दें, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उनकी भारत नीति कितनी टिकाऊ साबित होगी. जनरल मुर्शरफ ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ शांति समझौते पर लगभग पहुंच चुके थे. हालांकि डर यह था कि पाकिस्तानी जेहादी शायद फौज के खिलाफ अभियान शुरू कर देंगे. सो, शांति समझौता नहीं हुआ.

जनरल परवेज अश्फाक कयानी ने अपने पूर्ववर्ती से अलग नजरिया अपनाया और कहा कि पाकिस्तानी फौज ‘भारत केंद्रीत संस्थान’ है. उन्होंने जोर दिया कि यह ‘हकीकत काफी हद तक तब तक नहीं बदलेगी, जब तक कश्मीर मुद्दा और पानी विवाद हल नहीं होते.’

पाकिस्तान में देश की प्रमुख संस्था होने के नाते फौज सिर्फ उसकी सीमा का ही रख वाली नहीं है, बल्कि उसकी विचारधारा का भी रखवाली है. आजादी के वक्त से फौज खुद को पाकिस्तान की आजादी, पहचान और इस्लाम का रखवाला मानती रही है. राजनीति और नेता अगर उस भूमिका को हथिया लें तो जनरलों का बेहद अहम आर्थिक विशेषाधिकार भी खतरे में पड़ जाएगा.

इतिहास के इस एकदम साफ आईने में पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री भी पुराने से एकदम अलग नहीं होंगे.

(प्रवीण स्वामी दप्रिंट के नेशनल सेक्यूरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है  @praveenswami. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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