scorecardresearch
Thursday, 14 November, 2024
होममत-विमतनागरिक सत्ता और सेना के रिश्ते को सुधारें, एनएसएस लाएं, सीडीएस का बोझ कम करें

नागरिक सत्ता और सेना के रिश्ते को सुधारें, एनएसएस लाएं, सीडीएस का बोझ कम करें

सीडीएस पर कई जिम्मेदारियों का बोझ सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका को प्रभावित कर सकता है, सरकार इस मसले को सुलझाए.

Text Size:

2024 के लोकसभा चुनाव और उसके नतीजों ने भारत की लोकतांत्रिक छवि को निश्चित रूप से मजबूत किया है. तीसरी बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार किस दिशा में आगे बढ़ती है, यह उसकी नीतियों और कार्रवाइयों से स्पष्ट हो जाएगा. इससे यह भी स्पष्ट होगा कि वह चुनावी नतीजे के व्यापक राजनीतिक आयामों को किस हद तक स्वीकार करती है. वैसे, यह आकलन बेशक व्यक्तिनिष्ठ ही होगा.

राष्ट्रीय सुरक्षा और खासकर नागरिक-सैनिक संबंध के मामले में सुधारों का रास्ता हमेशा लंबा और अंतहीन ही होता है. सुधारों की निरंतर कोशिश कितनी महत्वपूर्ण है इसे बताने की ज़रूरत नहीं. इसकी ज़रूरत इस तथ्य की वजह से है कि राजनीतिक नेतृत्व राजकाज चलाने में सैन्य तंत्र का उपयोग तो करता है और उसे स्वरूप भी प्रदान करता है, लेकिन सैन्य मामलों के बारे में उसका ज्ञान पेशेवर सैन्य नेतृत्व द्वारा दी गई जानकारियों के बिना ज़ाहिर तौर पर अपर्याप्त होता है. ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि सैन्य बल के जरिए जो राजनीतिक लक्ष्य हासिल किए जाने हैं उन्हें ठोस रूप राजनीतिक और सैन्य नेतृत्वों के बीच गहरे संवाद के जरिए ही दिया जाना चाहिए. ऐसे संवादों को लक्ष्यों, क्षमताओं, आवश्यक संसाधनों और जोखिमों के बारे में आपसी समझदारी का सहारा मिलना ही चाहिए. 

नागरिक-सैन्य संबंधों का प्रथम लक्ष्य जटिल होते राजनीतिक, रणनीतिक, तकनीकी, आर्थिक और भू-राजनीतिक माहौल में सेना की प्रभावशीलता को मजबूत बनाना होना चाहिए. आपसी समझदारी के अभाव में राजनीतिक नेतृत्व या तो सेना की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पाएगा या उससे अपनी क्षमता से बाहर के काम करवाने की कोशिश करेगा. 

भारत के संवैधानिक ढांचे में राष्ट्रपति सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर होता है, जो नागरिक सत्ता को वरीयता प्रदान करता है, लेकिन जिस सेना से ताकत के इस्तेमाल की अपेक्षा की जाती है वह एकमात्र पेशेगत सत्ता है जो बड़े पैमाने पर हिंसा को रोकने और देश को दुश्मनों द्वारा हिंसा फैलाने की कोशिश से सुरक्षा देने के लिए जिम्मेदार होती है. इसका अर्थ यह है कि नागरिक सत्ता की सर्वोच्चता के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व सैन्य रणनीति को स्वरूप देने और उसे लागू करने के लिए सैन्य परामर्श पर बहुत हद तक निर्भर होता है. 


यह भी पढ़ें: अग्निपथ खत्म भी कर दी जाती, तो भी सेना के पेंशन बिल में कमी लाने वाले सुधार करने ही होंगे


बोझ से दबे सीडीएस 

चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के पद का निर्माण 1 जनवरी 2020 को किया गया. आदेश दिया गया कि सीडीएस तीनों सेनाओं के मामलों में रक्षा मंत्री के प्रधान सैन्य सलाहकार की और न्यूक्लियर कमांड ऑथरिटी (एनसीए) के सैन्य सलाहकार की भूमिका निभाएंगे. ये भूमिकाएं सेना के विकास और संभावित उपयोग से संबंधित होंगी, जबकि एनसीए सिर्फ परमाणु हथियारों के उपयोग के मामले देखेगी.   

इसके साथ सीडीएस को दो और जिम्मेदारियां निभानी हैं — एक तो सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) के सेक्रेटरी की और दूसरी चीफ ऑफ द स्टाफ कमिटी के स्थायी चेयरमैन (पीसीसीओएससी) की. इन पदों की सलाहकार वाली भूमिका को शांति काल में निभाना चुनौतीपूर्ण होता है और सुरक्षा संकट तथा युद्ध के काल में और भी कठिन होता है. सीडीएस को डीएमए के सेक्रेटरी की ज़िम्मेदारी से मुक्त करने के पक्ष में जोरदार तर्क दिए जाते हैं. यह ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार उठा सकती है. इसके साथ बहुप्रतीक्षित थिएटर कमांड की स्थापना की जा सकती है. उम्मीद है कि एनडीए सरकार इसकी स्थापना को प्राथमिकता देगी. 

युद्ध काल में सलाहकार वाली भूमिका और थिएटर कमांडरों की ऑपरेशन संबंधी भूमिका के महत्व पर विचार करने पर आदर्श स्थिति तो यही लगती है कि सीडीएस की केवल दो जिम्मेदारियां होनी चाहिए — रक्षा मंत्री के प्रधान सैन्य सलाहकार की और एनसीए के सैन्य सलाहकार की. उन पर ऑपरेशन से संबंधित किसी भूमिका का बोझ न डाला जाए. इसका अर्थ यह भी हुआ कि एक अलग (पीसीसीओएससी) की नियुक्ति की जानी चाहिए. सीडीएस को जब ज़रूरी हो तब ‘सीओएससी’ या थिएटर कमांड के गठन के बाद ऐसे ही किसी संगठन की बैठक में आमंत्रित किया जाए. 

एनएसएस और राजकाज 

नागरिक सत्ता और सेना के संबंधों का एक सबसे महत्वपूर्ण तत्व है वैश्विक तथा क्षेत्रीय भू-राजनीतिक माहौल के बारे में साझा आकलन. इस साझा समझदारी से राष्ट्रीय सुरक्षा को पहुंचने वाले खतरों के स्वरूप तथा संभावना का पता चलेगा और उन अवसरों के बारे में भी पता चलेगा कि जिनका लाभ उठाया जा सकता है. इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) की ज़रूरत होगी, जो थिएटर कमांड की तरह अपूर्ण आकांक्षा बनी हुई है. 2018 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अध्यक्षता में एक शीर्ष स्तरीय ‘डिफेंस प्लानिंग कमिटी’ (डीपीसी) का गठन एनएसएस और नेशनल डिफेंस स्ट्रेटजी बनाने के लिए किया गया. डीपीसी को रक्षा मंत्रालय में ‘इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ’ (आईडीएस) के मुख्यालय में स्थापित किया गया, लेकिन इसके बाद उसमें क्या प्रगति हुई इसकी कोई जानकारी नहीं है. 

नई सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) के एक हिस्से नेशनल सिक्यूरिटी एड्वाइज़री बोर्ड (एनएसएबी) को एनएसएस तैयार करने का काम सौंपे और वार्षिक समीक्षा को संस्थागत रूप दे. माना जाता है कि एनएसए के अधीन काम करने वाले एनएसएबी में बहुपक्षीय प्रतिनिधित्व है. इसमें सरकार के बाहर के लोग हैं, मुख्यतः सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी और निजी क्षेत्र तथा शैक्षिक क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल हैं. 

एनएसएस के निर्माण के लिए एनएसएबी उपयुक्त मंच है क्योंकि यह नीति निर्माण की सर्वोच्च स्थिति में है. यह जरूरी विशेषज्ञता हासिल कर सकता है और खुफिया जानकारियां तथा सूचनाएं हासिल कर सकता है. के. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व वाले प्रथम एनएसएबी ने भारत का परमाणु सिद्धांत बनाया था. यह सिद्धांत आज तक अपने मूल रूप में कायम है, यह एनएसएबी की क्षमता का प्रमाण है. 

राजकाज के विभिन्न साधनों — सेना, अर्थव्यवस्था, कूटनीति, टेक्नोलॉजी, खुफिया जानकारी तथा सूचानाएं आदि — के विकास की दीर्घकालिक योजना ‘एनएसएस’ के मार्गदर्शन पर निर्भर होती है. दूसरी ओर, भंडार में उपलब्ध तात्कालिक संसाधनों का उपयोग करने वालों के लिए ‘एनएसएस’ की कमी की भरपाई व्यापक नीतियों और प्रभावी साधनों से की जा सकती है, लेकिन यह तर्क दीर्घकालिक योजना के लिए कारगर नहीं हो सकता कि भारत ‘एनएसएस’ के बिना भी अच्छी तरह काम चला रहा है. राजकाज के साधनों के विकास के लिए सीमित संसाधनों का आवंटन ज़रूरी है ताकि यह उपयोग करने वालों के लिए उपलब्ध हो. 

उच्च स्तरीय सैन्य नेतृत्व का चयन राजनीतिक नेतृत्व का विशेषाधिकार है, लेकिन यह चयन मुख्यतः पेशेगत क्षमता पर आधारित होना चाहिए. सैन्य विशेषज्ञता रखने वालों की ओर से साफ सलाह आनी चाहिए और उन्हें नेताओं का जी-हुजूर नहीं होना चाहिए. इसके लिए ज़रूरी है कि सैन्य नेतृत्व निजी हितों की जगह राष्ट्रीय हितों के बारे में पेशेगत धारणा को तरजीह दे. राजनीतिक नेतृत्व इस तथ्य के प्रति संवेदनशील रहे कि सैन्य नेतृत्व के चयन में वरिष्ठता को लांघने का मामला अपवाद ही हो. नियमों का उल्लंघन करने का जो माहौल है उसे खत्म किया जाए. पिछले दिनों सेनाध्यक्ष जनरल मनोज पाण्डेय का कार्यकाल अचानक एक महीने के लिए जिस तरह बढ़ाया गया और उसके बाद जो अटकलें तेज़ हुईं उसने ऐसा माहौल बनाया जिसे ठीक करना जरूरी है. 

राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और उसके आनुषंगिक राष्ट्रीय प्रतिरक्षा रणनीति पर आधारित राजनीतिक मार्गदर्शन की लंबे समय से प्रतीक्षा है. ऐसी कमजोरियां अक्सर अनावश्यक समस्याएं पैदा करती हैं, जैसे सेना के उच्च पदों के लिए चयन में राजनीतिक दबदबा; सीडीएस पर कई जिम्मेदारियों का बोझ, जो सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका को प्रभावित कर सकता है; और थिएटर कमांड के गठन में देरी. इन कारकों का सेना की तैयारियों और उसके प्रभाव पर जो नकारात्मक असर पड़ेगा उस पर विचार करते हुए नयी सरकार को तेज़ी से कदम उठाना चाहिए ताकि वैश्विक तथा क्षेत्रीय भू-राजनीतिक तनावों के गहराते सायों के मद्देनजर राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सके. 

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (सेवानिवृत्त) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह  भी पढ़ें: शक्सगाम घाटी में सड़क बनाने की चीन की मंशा से भारत की सुरक्षा को खतरा नहीं, राजनीतिक पहलू पर गौर कीजिए


 

share & View comments