कांग्रेस इस समय अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की राजनीति पर खास ज़ोर दे रही है. पार्टी ने जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत दर्ज की तो दो राज्यों में ओबीसी वर्ग से अशोक गहलोत और भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाया. पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़े वर्ग पर निर्भर हो गई हैं जिनकी प्रदेश की टीम में पार्टी के राज्य के अध्यक्ष और 5 उपाध्यक्षों में 2 उपाध्यक्ष पिछड़े वर्ग जबकि एक उपाध्यक्ष अनुसूचित जाति से हैं. इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर कहा है कि मेडिकल और डेंटल की राष्ट्रीय पात्रता और प्रवेश परीक्षा (नीट) में ओबीसी वर्ग को ऑल इंडिया कोटा में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा रहा है.
पारंपरिक रूप से कांग्रेस को पिछड़े वर्ग और आरक्षण का विरोधी माना जाता रहा है और बार-बार राजीव गांधी के उस भाषण का हवाला दिया जाता है जिसमें उन्होंने लोकसभा में मंडल कमीशन की रिपोर्ट का विरोध किया था. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि क्या कांग्रेस पिछड़े वर्ग या आरक्षण की विरोधी रही है? कांग्रेस ओबीसी या ओबीसी आरक्षण की विरोधी नहीं रही है, जिसे इन बिंदुओं में समझा जा सकता है-
आरक्षण के लिए संविधान संशोधन
भारत के संविधान में पहला संशोधन 1951 में हुआ. दरअसल दक्षिण भारत खासकर तमिलनाडु में आरक्षण को लेकर न्यायालय के कुछ फैसले आए, जिनमें कहा गया कि आरक्षण देना संविधान के समता के अधिकार अनुच्छेद-15(2) के खिलाफ है, जिसमें कहा गया है कि किसी नागरिक के साथ धर्म, वर्ण, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. आरक्षण का प्रावधान नागरिकों के साथ भेदभाव है, जिसे मूल अधिकार में संरक्षित किया गया है.
इसके अलावा न्यायालय ने अनुच्छेद 29(2) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि किसी नागरिक को धर्म, वर्ण, जाति, भाषा के आधार पर शिक्षण संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता. यह तर्क आया कि आरक्षण देना संविधान के अनुच्छेद-29 में उल्लिखित अल्पसंख्यकों को दिए गए अधिकार के खिलाफ है.
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहला संशोधन पेश कर इस भ्रम को दूर कर दिया. संविधान के मूल अधिकार में अनुच्छेद-15(4) जोड़ा गया, जिसमें यह साफ किया गया कि इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 29(2) सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के हित के लिए किए गए विशेष प्रावधान से नहीं रोकता है. इसके लिए 10 मई 1951 को नेहरू का संसद में दिया बयान पढ़ा जा सकता है. ये भी नहीं भूलना चाहिए कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था जिस संविधान सभा ने की थी उसमें सबसे ज्यादा सदस्य कांग्रेस के ही थे.
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काका कालेलकर आयोग और नेहरू की भूमिका
नेहरू के ऊपर दूसरा आरोप यह लगता है कि काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित पहले पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों को नेहरू ने दबाए रखा. संविधान के अनुच्छेद-340 के मुताबिक 29 जनवरी 1953 को काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया जिसने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को पेश की. इस पर करीब 6 साल चर्चा होती रही और 1961 में इसे रद्द कर दिया गया.
दरअसल काका कालेलकर आयोग में पिछड़े वर्ग आयोग के सिर्फ एक सदस्य बैरिस्टर शिवदयाल सिंह चौरसिया थे, जिन्होंने 84 पेज का असहमति नोट लिखा. आयोग के सवर्ण सदस्य अन्य पिछड़े वर्ग का चयन आर्थिक आधार पर करना चाहते थे, वहीं शिवदयाल चौरसिया का मानना था कि भेदभाव जातीय आधार पर हुआ है और पिछड़े वर्ग की पहचान भी जातीय आधार पर होनी चाहिए. इस रिपोर्ट पर इतना विवाद हुआ कि कालेलकर ने उसकी ऐसी भूमिका लिखी जिससे संदेह गया कि वह रिपोर्ट लागू किए जाने के पक्ष में नहीं हैं. उसके बाद जवाहरलाल नेहरू ने फैसला किया कि राज्य सरकारें अपने स्तर पर पिछड़े वर्ग की पहचान करें और उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए यथोचित सुविधाएं दें. इस बीच 1959 में चीन ने दलाई लामा को निर्वासित कर दिया और 1962 में भारत पर हमला कर दिया. पंचशील समझौते की धज्जियां उड़ाते हुए जिस तरह चीन ने भारत पर हमला किया था, कहा जाता है कि नेहरू वह पीड़ा बर्दाश्त नहीं कर पाए और 1964 में उनकी मौत हो गई.
ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि नेहरू ओबीसी आरक्षण के समर्थक नहीं थे. 1951 में किए गए संवैधानिक संशोधन के आधार पर ही तमाम राज्यों ने ओबीसी रिजर्वेशन दिया और उसके बाद केंद्र में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हो पाई.
मंडल कमीशन और इंदिरा गांधी
आपातकाल के बाद कांग्रेस हार कर केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई. जनता पार्टी सत्ता में आई और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने 21 मार्च 1979 को बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल) की अध्यक्षता में मंडल कमीशन का गठन किया. कमीशन जब तक अपनी रिपोर्ट तैयार करता, जनता पार्टी की सरकार गिर गई. चुनाव हुए, कांग्रेस सत्ता में आई. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. उन्होंने न तो आयोग भंग किया, न उसके काम में बाधा पहुंचाई. यहां तक कि इंदिरा गांधी के कार्यकाल में एक अप्रैल से 30 सितंबर 1980 और उसके बाद 1 अक्टूबर से 31 दिसंबर 1980 तक दो बार आयोग का कार्यकाल बढ़ाकर रिपोर्ट पूरी कराई गई.
आयोग ने 31 दिसंबर को अपनी रिपोर्ट कांग्रेस नेता और तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को सौंप दी. इसके लिए बीपी मंडल ने रिपोर्ट सौंपते हुए इंदिरा गांधी के प्रति आभार भी व्यक्त किया है. उस पर व्यापक बहस नहीं हुई और इस बीच 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. इंदिरा गांधी ने उस रिपोर्ट को अपने शासनकान में तैयार कराया, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता. ये जरूर है कि उनके कार्यकाल में और उसके बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया.
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मंडल आयोग पर वास्तविक अमल नरसिम्हा राव की सरकार में
1989 में कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार गई. अपने वादे के मुताबिक विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं. इस पर संसद में चर्चा हुई. विपक्ष के नेता के रूप में राजीव गांधी ने रिपोर्ट अधूरी होने सहित कथित रूप से कई तथ्यात्मक खामिया बताते हुए रिपोर्ट लागू किए जाने का विरोध किया. बहरहाल इसका कोई असर नहीं हुआ और सीताराम केसरी सहित पिछड़े वर्ग से जुड़े तमाम कांग्रेसी नेताओं ने संसद के बाहर मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू किए जाने का खुलकर समर्थन किया.
इसके बाद मामला उच्चतम न्यायालय में चला गया. 1991 में चुनाव हुआ और पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. सीताराम केसरी पार्टी के ताकतवर नेता थे. सरकार ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की पैरवी की और 16 नवंबर 1992 को उच्चतम न्यायालय का फैसला आरक्षण के समर्थन में आया. मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के लिए कांग्रेस सरकार ने 8 सितंबर 1993 को अधिसूचना जारी की. अधिसूचना जारी करने में थोड़ी देर इसलिए लगी कि न्यायालय ने क्रीमी लेयर को ओबीसी आरक्षण से बाहर करने का फैसला किया था और इस बीच क्रीमी लेयर की पहचान के लिए मानक तय किए गए. वह मानक शिथिल थे, जिसे अब नरेंद्र मोदी सरकार सख्त करने की तैयारी में है, जिससे कि ओबीसी का बड़ा तबका सिर्फ आर्थिक आधार पर ही नौकरियां पा सके, जैसे सरकार ने 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण किया है.
20 फरवरी 1994 को मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत वी राजशेखर को तत्कालीन केंद्रीय समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने नियुक्ति पत्र सौंपा.
उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण
मंडल कमीशन की नौकरियों में आरक्षण देने की एक सिफारिश तो लागू कर दी गई थी लेकिन केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में ओबीसी रिजर्वेशन नहीं था. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग)-1 के शासनकाल में अर्जुन सिंह मानव संसाधन विकास मंत्री बने. उन्होंने लगातार सोनिया गांधी को पत्र लिखा और बताया कि शिक्षण संस्थानों में ओबीसी का आरक्षण क्यों जरूरी है.
21 अगस्त 2007 को कांग्रेस सरकार ने अनुसूचित जाति, जनजाति के साथ अन्य पिछड़े वर्ग को केंद्रीय संस्थानों में आरक्षण देने का प्रस्ताव पारित कर दिया. न्यायालय में सुनवाई के बाद कानून लागू हो गया और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के साथ जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी सहित देश के तमाम जाने माने विश्वविद्यालयों में पिछड़े वर्ग के लिए प्रवेश का दरवाजा खुल गया. कांग्रेस को इस दौरान काफी विरोध झेलना पड़ा और मध्य वर्ग के बीच उसकी साख कमजोर भी हुई.
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निजी क्षेत्र में आरक्षण
खुली अर्थव्यवस्था लागू होने और निजीकरण के साथ नौकरियां प्राइवेट सेक्टर के हाथों में जाने लगीं. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मांग उठी कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की व्यवस्था की जाए. सिंह ने कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री की सालाना बैठक में 2006 में कहा कि अगर उद्योग जगत स्वेच्छा से वंचित तबके के लिए महत्त्वाकांक्षी सकारात्मक कार्रवाई नहीं करता तो वह निजी क्षेत्र में नौकरियों में आरक्षण देने के लिए बाध्य होंगे. उसके बाद जमशेद जे ईरानी की अध्यक्षता में कार्यबल गठित किया गया, जिसे सकारात्मक कार्रवाई पर रिपोर्ट सौंपनी थी.
इस रिपोर्ट में कहा गया कि निजी क्षेत्र सभी स्तर पर एससी और एसटी समुदाय के लोगों को नई भर्तियों में ज्यादा प्रतिनिधित्व देगा. बड़ी कंपनियां हर साल एससी-एसटी समुदाय से एक उद्यमी बनाएंगी और इस तरह कम से कम 100 उद्यमी हर साल तैयार किए जाएंगे. (मंडल कमीशनः राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी पहल- पेज 41)
यह निजी क्षेत्र में आरक्षण दिए जाने की दिशा में पहला महत्त्पूर्ण कदम था जो कांग्रेस के शासन काल में उठाया गया.
कांग्रेस के शासनकाल में वंचितों को हक दिए जाने की रफ्तार बहुत धीमी रही है. लेकिन यह कहना न्यायोचित नहीं होगा कि कांग्रेस के शासनकाल में एससी-एसटी और ओबीसी तबके के लिए कुछ भी नहीं किया गया है. कांग्रेस कई और अन्य पार्टियों की तरह ओबीसी की पार्टी नहीं है. ये एक सर्वसमावेशी पार्टी है. कांग्रेस में कम ही सही लेकिन ओबीसी, एससी और एसटी की भी आवाज सुनी जाती रही है.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
ऐसा लिखने के लिए कितना पैसा मिला है?