कोई भी समस्या हो और वह कितनी भी जटिल क्यों न हो, सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे नागरिकों को उसके समाधान के प्रति आश्वस्त रखेंगी. वे ऐसा करती हैं तो इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि बेवजह के अंदेशे नहीं फैलते. साथ ही उन्हें लेकर उद्वेलित तबकों में ऐसे विश्वास का संचार होता है जो उन्हें सच्चे झूठे भयों से पीड़ित होने से बचाता है. इसके उलट सरकारें खुद ही समस्या को बड़ी करके दिखाने, राजनीतिक लाभ उठाने पर आमादा हो जायें तो वही होता है, जो इन दिनों राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर मचाये जा रहे बवालों के बीच हो रहा है.
एक ओर असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट किये जाने से जुड़ी उलझनें सुलझने के बजाय और उलझती जा रही हैं और दूसरी ओर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी देश भर को वैसी ही प्रक्रिया के हवाले करने की दिशा में बढ़ जाने के फेर में है. पिछले दिनों यह खबर प्रचारित की गई कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय देश भर से अवैध प्रवासियों की पहचान कर उन्हें बाहर निकालने की तैयारी में जुटा हुआ है और अब गृह मंत्री अमित शाह द्वारा भी इसके स्पष्ट संकेत दिया जाने के बाद भाजपा शासित राज्यों के वे मुख्यमंत्री ‘देश भर में एनआरसी लागू करने के अभियान’ के आगे-आगे चल रहे हैं, जिन्हें अगले कुछ महीनों में नये जनादेश के लिए जनता के पास जाना है.
जानकारों का मानना है कि उन्हें यह मुद्दा इस दृष्टि से बहुत मुफीद लग रहा है कि इसकी आड़ में जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होगा, वह उनकी जनरोष पैदा करने वाली अन्य कारगुजारियों की ओर से मतदाताओं का ध्यान हटाकर उनकी चुनावी नैया पार लगा देगा.
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दूसरी ओर उनके समर्थक और विरोधी दोनों इस बात को लेकर हैरान हैं कि नरेन्द्र मोदी जैसे करिश्माई नेता के होते हुए ये मुख्यमंत्री अपनी सरकारों की वापसी को लेकर इस कदर चिंतित क्यों महसूस कर रहे हैं कि एनआरसी के मुद्दे में सुरक्षा तलाशने पर उतर आये हैं? अभी तो लोकसभा चुनाव में हासिल भाजपा के जनादेश को एक सौ से कुछ ही ज्यादा दिन बीते हैं और उसकी चमक भी फीकी नहीं पड़ी है. तिस पर जिन विपक्षी दलों को उसे चुनौती देनी है, वे बुरी तरह लस्त-पस्त हैं.
इन लस्त-पस्त विपक्षी दलों से भाजपा के डर की विडम्बना यह है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी, जहां विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं और मामला कुल मिलाकर कुछ विधानसभा सीटों के उपचुनावों में प्रतिष्ठा बचाने का ही है, उसके मुख्यमंत्रियों योगी आदित्यनाथ और त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने खम ठोंक कर कह दिया है कि वे भी अपने-अपने राज्यों में एनआरसी लागू करने वाले हैं.
गौरतलब है कि भाजपाई मुख्यमंत्री एनआरसी के सिलसिले में असम की बात तो करते हैं, लेकिन वहां एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बाद के हश्र से सबक नहीं लेना चाहते. असम में उन्हीं की पार्टी की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की गई समय सीमा में जो एनआरसी बनाया है, उससे अवैध प्रवासियों और घुसपैठियों की पुष्टि नहीं हुई है. इसके उलट रजिस्टर से बाहर रह गये लोगों में, और तो और देश के एक पूर्व राष्ट्रपति के परिजन भी हैं. एनआरसी की समूची प्रक्रिया उसकी अंतिम सूची जारी होने के बाद भी लोगों के लिए इस कदर परेशानी का सबब बनी हुई है कि किसी को भी उससे कुछ हासिल होता नहीं दिख रहा है. उन्हें भी नहीं, जो घुसपैठियों का हल्ला मचाकर आसमान सिर पर उठाये फिर रहे थे. स्वयं भाजपा भी उस सूची को नाकाबिल-ए-एतबार ही मान रही है. ऐसे में यह उम्मीद भी नाउम्मीद होकर रह गई है कि उससे राज्य के जातीय संघर्षों के समाधान के ठोस आधार तलाशे जा सकेंगे. उलटे उसकी वजह से कई परिवारों में टूटन का विकट खतरा भी सामने है.
हां, भाजपा के नेताओं और मुख्यमंत्रियों की सुविधा यह है कि देशवासियों में एनआरसी को लेकर पर्याप्त जानकारी का अभाव है, जिसके चलते उनमें नाना प्रकार के भ्रम और भय फैले हुए हैं. इन भ्रमों और भयों का अनुचित लाभ उठाने की नीयत न होती तो भाजपा और उसकी सरकारें लोगों को बतातीं कि बंटवारे के बाद 1951 में सारे देश में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) बनाया गया था, क्योंकि यह जानना जरूरी था कि देश में कितने लोग वैध या अवैध तरीके से रहे हैं? असम में 1951 के इस एनआरसी को ही अपडेट करके उसकी अंतिम सूची जारी की गई है.
अगर देश के दूसरे राज्यों के बारे में भी इस तरह के अपडेशन की जरूरत महसूस की जाती है तो साफ नीयत से उसे करने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन सवाल है कि जिस असम में व्यापक पैमाने पर घुसपैठियों के होने का प्रचार किया जा रहा था, वहां भी एनआरसी के अनुसार उनकी संख्या नगण्य ही है तो दूसरे राज्यों में या देश भर में उसकी कवायद से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के राजनीतिक ‘लाभों’ या ‘नुकसानों’ के अलावा क्या हासिल होगा?
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यहां यह जानना दिलचस्प है कि 1951 में देश भर में जनगणना हुई थी, जिसमें हर गांव में सभी मकानों की क्रमवार ऑर्डर के मुताबिक जानकारी मिली थी. साथ ही यह भी कि उनमें कितने लोग रहते हैं. बाद में इन जानकारियों की सहायता से ही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस तैयार किया गया था. इसको तैयार करने के बाद केंद्र सरकार के निर्देश पर सभी क्षेत्रों के डिप्टी कमिश्नरों और एसडीएमों के दफ्तरों में रखा गया और 1960 के दशक में पुलिस विभाग को सौंप दिया गया था. लेकिन अब सारे देश में एनआरसी के लिए अधीर भाजपा और उसकी सरकारें 2021 की जनगणना तक इंतजार करने को भी तैयार नहीं हैं. हालांकि वे उससे जुड़े कई सवालों के जवाब नहीं दे पा रही हैं.
गृह मंत्री अमित शाह संसद के अन्दर और बाहर कई मौकों पर कह चुके हैं कि उनकी सरकार अवैध प्रवासियों या कि घुसपैठियों की पहचान करके उन्हें देश के हर इंच से निकाल कर बाहर करेगी. लेकिन जब असम जैसे सीमावर्ती राज्य में एनआरसी बनाने पर ग्यारह सौ करोड़ रुपये फूंककर भी वे यह लक्ष्य हासिल नहीं कर पा रहे तो अन्य राज्यों में कैसे करेंगे? असम में जिन ‘दीमकों’ को वे पहले 40 लाख बताया करते थे, उनकी ही बनवाई एनआरसी की अंतिम सूची जारी होते-होते वे घटकर आधे हो गये हैं. तिस पर ये आधे भी अभी अपनी नागरिकता सिद्ध करने के मौकों या विकल्पों से हीन नहीं हुए हैं. मान लेते हैं कि उनमें से कुछ को देश का नागरिक नहीं माना जाएगा लेकिन क्या तब भी गृह मंत्री या उनकी सरकार के लिए उन्हें कहीं ले जाकर किसी गड्ढे में धकेलना संभव होगा? अगर नहीं तो क्या गृह मंत्री बता सकते हैं कि उन्हें अपनाने या स्वीकार करने के लिए उन्होंने किस अन्य देश को राजी कर रखा है?
साफ है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को हौवा बनाकर पेश करने के पीछे भी घुसपैठियों को निकालने की नहीं, निकालते हुए दिखने की नीयत है. ताकि बहुसंख्यक यह समझें कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ भाजपा का अभियान ठंडा नहीं पड़ा और अनवरत जारी है. पूछा जाना चाहिए कि इस नीयत के साथ सारे देश में एनआरसी लागू करने से कौन-सी उपलब्धि हासिल हो सकती है? हां, इससे यह संभव है कि भाजपा और उसकी सरकारें अर्थव्यवस्था की बदहाली की ओर से लोगों का ध्यान हटाने और उसका चुनावी लाभ पाने में सफल हो जायें.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)