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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतकांग्रेस की सरकारों ने OBC के लिए कुछ नहीं किया पर MP, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मैं उसकी जीत चाहता हूं

कांग्रेस की सरकारों ने OBC के लिए कुछ नहीं किया पर MP, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मैं उसकी जीत चाहता हूं

हिंदी पट्टी में अगर कांग्रेस हार जाती है तो यह जातीय जनगणना के लिए विनाशकारी साबित होगा. हारने के बाद पार्टी को अपनी मांग जारी रखने के लिए फिर कोई प्रोत्साहन नहीं मिलेगा.

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कांग्रेस इस समय लोहियावादी या सामाजिक न्यायवादी पार्टी होने का भ्रम पैदा कर रही है. कम से कम भाषणों में तो ऐसा ही है. पिछड़ी और वंचित जातियों को पार्टी संगठन में हिस्सा देने से लेकर जाति जनगणना की मांग करने और ओबीसी की राजकाज तथा नौकरशाही व मीडिया में हिस्सेदारी जैसे सवालों पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, खासकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी खुलकर बोल रहे हैं. कांग्रेस अभी जो कर रही है, वह अगर वह सचमुच कर पाई तो इसे पार्टी के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण कायाकल्प में से एक माना जाएगा.

राजनीति में काम ही नहीं, बात भी बोलती है. खासकर तब जबकि वे बातें चुनाव से ठीक पहले और चुनाव के दौरान किसी महत्वपूर्ण पार्टी द्वारा बोली गई हों. कांग्रेस का नया ओबीसीवाद और सामाजिक न्याय पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले आया है. इनमें तथाकथित हिंदी पट्टी के तीन राज्य राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ भी हैं.

कांग्रेस का इस समय ओबीसी मुद्दे को अचानक से उठाना मुझे चिंतित करता है. मैं दिल से चाहता हूं कि ओबीसी एजेंडा कामयाब हो. लेकिन इसके लिए जरूरी हो गया है कि कांग्रेस इन चुनावों में अच्छा करे तथा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल करे. हालांकि तेलंगाना में सिर्फ बीजेपी ओबीसी मुख्यमंत्री की बात कर रही हैं और गृह मंत्री अमित शाह ने ये बात कह दी है तो मैं चाहूंगा कि वहां बीजेपी बेहतर करे.

इसकी सीधी वजह ये है कि अगर ओबीसी को लेकर इतना सारा हल्ला मचाने के बाद कांग्रेस हार गई तो ये कहा जाएगा कि ओबीसी की बात करके या सामाजिक न्याय के मुद्दे पर चुनाव नहीं जीता जा सकता. इस तरह 2024 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी एजेंडा पीछे चला जा सकता है. यह तकलीफदेह होगा क्योंकि ओबीसी का सवाल, मंडल कमीशन के बाद, पहली बार इतनी मजबूती से राष्ट्रीय राजनीति में आया है.


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‘चुनाव हारने से ओबीसी एजेंडे पर असर पड़ेगा’

कांग्रेस अगर इन चुनावों में बुरी हार हारती है और उसका ओबीसी एजेंडा फेल होता है कि तो इसके तीन संभावित असर हो सकते हैं.

  1. कांग्रेस का पुराना पार्टी सांगठनिक ढांचा, जो अब भी बेहद शक्तिशाली है, फिर से प्रभावी होने की कोशिश करेगा. ये मुख्य रुप से सवर्ण हैं और सामाजिक नीतियों में यथास्थिति चाहते हैं. नई राजनीतिक स्थिति में यह समूह पार्टी को ओबीसी और सामाजिक न्याय के मुद्दे को छोड़ने या ठंडा करने के लिए दबाव बनाएगा. ये दबाव सफल भी हो सकता है क्योंकि कांग्रेस ने ये मुद्दे अपने आंतरिक विश्वास के कारण नहीं, राजनीतिक जरूरत के हिसाब से अपनाए हैं. कांग्रेस ने ओबीसीवाद इसलिए अपनाया है क्योंकि बीजेपी की मौजूदा राजनीति और सामाजिक समीकरण की कोई और काट कांग्रेस को मिल नहीं रही है. इस साल की शुरुआत में रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने अपनी गति बदली है और पार्टी ढांचे में 50 प्रतिशत पद एससी, एसटी, ओबीसी को देने का ऐलान किया है. ओबीसी का मुद्दा विधानसभा चुनाव में नहीं चला तो ये नीति ठंडे बस्ते में जा सकती है.
  2. कांग्रेस की हार से जाति जनगणना का मुद्दा ठंडा पड़ सकता है. ये एक ऐसा मुद्दा है कि जिसे कांग्रेस के बड़े नेता, खासकर राहुल और प्रियंका गांधी चुनावी रैलियों में जोर शोर से उठा रहे हैं. अगर कांग्रेस हारती है तो विश्लेषक ये विचार लेकर आएंगे कि जाति जनगणना को मुद्दा बनाकर चुनाव नहीं जीता जा सकता. सवाल उठेगा कि जाति जनगणना का मुद्दा उठाने से अगर ओबीसी कांग्रेस की ओर नहीं आते हैं तो फिर इसे उठाने का क्या फायदा? ऐसा बाकी पार्टियों को भी लग सकता है. सामाजिक न्याय के मुद्दे, खासकर ओबीसी के लिए ये एक बहुत बड़ी त्रासदी होगी.
  3. सामाजिक न्याय का मुद्दा मजबूत होने के कारण केंद्र की बीजेपी सरकार अब तक लगातार दबाव में रही है. अगर कांग्रेस की हार से ये दबाव हटता है तो बीजेपी अपने पुराने उग्र सवर्णवाद के दौर में जा सकती है. वैसे भी, बीजेपी की मूल पहचान ब्राह्मण बनिया पार्टी की थी, जिसे पार्टी ने 2013 में जाकर बदला, जब उसने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया. अगर कांग्रेस ओबीसी मुद्दा उठाने के बाद भी हारती है, तो बीजेपी ईडब्ल्यूएस आरक्षण जैसे और कदम उठा सकती है.

सामाजिक-राजनीतिक दबाव के कारण बीजेपी ने हाल के वर्षों में ओबीसी के लिए कई पहलकदमियां की हैं. मिसाल के तौर पर, राष्ट्रीय ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की मांग को बीजेपी ने संविधान संशोधन करके पूरा किया. इसी तरह नीट यानी मेडिकल परीक्षा के जरिए मेडिकल की सीटें भरने के क्रम में ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी आरक्षण नहीं था. बीजेपी ने इसे लागू किया. नवोदय स्कूलों और सैनिक स्कूलों में ओबीसी आरक्षण इसी सरकार में लागू हुआ. इसी तरह बीजेपी ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद में 27 ओबीसी मंत्रियों को शामिल किया. नरेंद्र मोदी भी अपनी ओबीसी और पिछड़ी पहचान को आगे करने का कोई मौका नहीं गंवाते.

सवाल उठता है कि अगर ओबीसी राजनीति पीछे जाती है तो भी क्या बीजेपी ये सब करती रहेगी? हो सकता है कि बीजेपी के लिए ये सब करने का कारण ही न बचे.

सवाल ये भी है कि क्या कांग्रेस को ओबीसी के मतदाता इन चुनावों में धुआंधार तरीके से वोट देंगे. होने को तो ये संभव है, पर ये आसान नहीं होगा. कांग्रेस का अतीत ओबीसी को उत्साहित नहीं करता. ऐतिहासिक तौर पर देखें तो कांग्रेस, समाज और धर्म के दो ध्रुवों पर मौजूद समूहों का गठबंधन बनाकर चलती रही है. कांग्रेस एक साथ ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों को केंद्र में रखकर राजनीति करती थी. इस गठबंधन के शिखर पर ब्राह्मण होते थे और बाकी दोनों समूह वोट लेकर आते थे. राजनीति विज्ञानी पॉल आर. ब्रास ने इसे कोएलिशन ऑफ एक्सट्रीम यानी विपरीत ध्रुवों का गठबंधन कहा है. ये चलन आजादी से पहले का है और यह 2014 में जाकर पहली बार निर्णायक रूप से टूटा है.

इस गठबंधन में दलित और मुसलमान सत्ता और संसाधनों में ज्यादा हिस्सा नहीं मांग रहे थे, इसलिए ये बहुत सहजता से चलता रहा. लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में भारत के सबसे बड़े सामाजिक समूह यानी ओबीसी या मध्यवर्ती जातियां असंतुष्ट होती चली गईं. ये लोहियावादी राजनीति का आधार बना और इस क्रम में 1960 का दशक खत्म होते होते 9 राज्यों में गैर-कांग्रेसी गठबंधन सरकारें बन गईं. लेकिन कांग्रेस का गठबंधन केंद्रीय स्तर पर प्रभावी रहा और छिटपुट हार के बावजूद 2014 तक ये चलता रहा.


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‘ओबीसी मुद्दों पर शांति’

इस पूरे दौर को देखें तो कांग्रेस का ओबीसी विरोध या ओबीसी को लेकर ठंडा रवैया साफ दिखता है. अनुच्छेद 340 के तहत आजादी के तुरंत बाद पिछड़ा वर्ग के लिए आयोग बनाकर उनके विकास के लिए उपाय किए जाने थे. ये काम 1990 में जाकर संपन्न हुआ, जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई और केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण आया. वीपी सिंह सरकार के इस कदम के खिलाफ तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष राजीव गांधी ने लोकसभा में ऐतिहासिक भाषण दिया जो संभवत: उनके जीवन का सबसे लंबा भाषण था. 2011 में कांग्रेस के पास ओबीसी को जोड़ने का मौका था क्योंकि जनगणना होनी थी और ओबीसी जातियां जाति जनगणना की मांग कर रही थीं. लेकिन कांग्रेस ने दस वर्षीय जनगणना में जाति का सवाल शामिल नहीं किया. इसकी जगह पर अलग से चल रहे बीपीएल सर्वे में जाति का सवाल जोड़कर उसे सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना यानी सीईसीसी बना दिया गया. इसकी विधि और व्यवस्थाएं बेहद लुंज पुंज थी. इस वजह से सरकार के 4,893 करोड़ रुपए भी खर्च हुए और कोई आंकड़ा भी नहीं आया.

मैंने इस बारे में पहले भी एक लेख लिखा है कि यूपीए-2 में किस तरह ओबीसी नेताओं को परेशान किया गया. 2014 का चुनाव आते आते मनमोहन सिंह कैबिनेट में वीरप्पा मोईली के रूप में सिर्फ एक ओबीसी मंत्री रह गए थे.

2014 में कांग्रेस को बेहद बड़ा झटका लगा जब सवर्ण जातियों ने बीजेपी को अपनी पसंद की पार्टी के तौर पर अपना लिया. 2014 में सीएसडीएस के चुनाव बाद सर्वे के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों, ठाकुरों और वैश्यों के 70 प्रतिशत से ज्यादा वोट बीजेपी के पास चले गए और बीजेपी-एनडीए यूपी में 80 में 73 सीटें जीत गईं. ये चलन 2019 लोकसभा चुनाव और 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में कायम रहा.

यही बात कांग्रेस को खल रही है कि उसके जनाधार का शिखर यानी कोर जाति उससे छिटक गई है और निकट भविष्य में ये समूह उसके पास लौटता भी नहीं दिख रहा है. ये कांग्रेस की ओबीसी नीति की पृष्ठभूमि है. कांग्रेस ओबीसी राजनीति अपनी समझ या विश्वास के कारण नहीं, चुनावी गणित के हिसाब से कर रही है.

इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि कांग्रेस विधानसभा चुनावों में ओबीसी का मुद्दा तो उठा रही है, लेकिन इसकी उसके पास कोई तैयारी नहीं है. मध्य प्रदेश में तो उसे पिछले पांच साल में, थोड़ा समय मिला. पर राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पूरे समय सत्ता में रहने पर भी उसने ओबीसी के लिए ऐसा कुछ नहीं किया, जिसे दिखाकर वह वोट मांग सके. ओबीसी का मामला कांग्रेस के लिए अभी भी दावा और वादा ही है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस को लेकर मुझे चिंता हो रही है. ओबीसी को टिकट देने में भी कांग्रेस खास कुछ नहीं कर पाई.

मुश्किल ये है कि इतने सुस्त तरीके से ओबीसी पॉलिटिक्स करने के बाद अगर कांग्रेस हारती है तो इसे ओबीसी राजनीति की हार माना जाएगा. इसलिए मैं चाहता हूं कि बेशक कांग्रेस ने ओबीसी के साथ अच्छा नहीं किया है पर वो इन विधानसभा चुनावों में अच्छा करे.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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