पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम 11 दिसंबर को आएंगे. ये परिणाम मौजूदा भारतीय राजनीति में निर्णायक साबित हो सकते हैं. इसलिए नहीं कि ये परिणाम 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए विभाजक रेखा खीचेंगे. इसलिए भी नहीं कि पांच साल में ये पहली बार होगा जब कांग्रेस किसी राज्य की सत्ता से भाजपा को बाहर कर देगी. और इसलिए तो बिल्कुल भी नहीं कि ये परिणाम हमें नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की लोकप्रियता के बारे में बताएंगे.
मंगलवार को आने वाले चुनावी जनादेश निर्णायक साबित होंगे क्योंकि ये भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का चरित्र और राजनीति निर्धारित करेंगे. विधानसभा चुनावों के इस दौर में अगर किसी का निजी तौर पर कुछ दांव पर लगा है तो वह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हैं.
भाजपा वास्तव में अपने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के लक्ष्य को प्राप्त करते हुए आगे बढ़ रही है, राहुल गांधी इन चुनावों में खुद को नये सिरे से गढ़ने की कोशिश में लगे हुए हैं. एक साल पहले गुजरात के सोमनाथ मंदिर में ‘गैर हिंदू’ के रूप में दर्ज होने के बाद उनकी यात्रा जारी रही. वे ‘जनेऊधारी शिवभक्त’ बने और फिर एक पखवाड़ा पहले दत्तात्रेय ब्राह्मण के रूप में सामने आए. उनकी पार्टी कांग्रेस भी ‘मुस्लिम पार्टी’ और ‘तुष्टीकरण की राजनीति’ करने वाली पार्टी की छवि से पूरी तरह से मुक्त होकर ‘गौमूत्र’ के उत्पादन, ‘राम पथ’ अथवा भगवान राम के वनगमन के समय का मिथकीय पथ निर्माण कराने का वादा कर रही है.
अगर कांग्रेस मंगलवार को अच्छा प्रदर्शन करती है, यानी भाजपा शासित तीन में से दो राज्यों में चुनाव जीत जाती है, तो राहुल गांधी अपनी ब्राह्मण पहचान को और बड़े स्तर पर प्रचारित करेंगे और उनकी पार्टी ब्राह्मणवादी एजेंडे को अपनी राजनीति में शामिल करेगी. हालांकि, शशि थरूर जैसे कई कांग्रेस नेता तर्क दे रहे हैं कि ’कांग्रेस सबकी पार्टी है, अल्पसंख्यकों के लिए सबसे सुरक्षित शरणगाह है और मूलभूत तौर पर धर्मनिरपेक्षता को लेकर प्रतिबद्ध है.’
प्रतियोगी हिंदुत्व
अगर कांग्रेस को मंगलवार को अपेक्षित जीत हासिल होती है तो यह 2019 के लोकसभा चुनाव की दिशा तय करेगी. पार्टी प्रतियोगी हिंदुत्व को चर्चा के केंद्र में लाएगी और यह फैसला लोगों पर छोड़ेगी कि वे ‘सच्चे हिंदू’ को चुनते हैं या ‘फर्जी हिंदू’ को चुनते हैं, जैसा कि भाजपा कहती है. या फिर लोग ओबीसी ‘हिंदू हृदय सम्राट’ को चुनते हैं या दत्तात्रेय ब्राह्मण को. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी में यह बदलाव ऐसा नहीं होगा जो कि फौरी हो या फिर सिर्फ लोकसभा चुनाव 2019 तक के लिए ही हो, यह पार्टी के वैचारिक सिद्धांत को हमेशा के लिए बदल देगा.
लेकिन जैसा कि एग्जिट पोल में कहा गया है कि यदि कांग्रेस को सिर्फ राजस्थान में जीत हासिल होती है और अन्य राज्यों में वह हार जाती है, तो गांधी और उनके सलाहकार (अगर कोई हैं तो) अपने रणनीति कक्ष वापस लौट जाएंगे और भाजपा की बराबरी करने से लेकर भाजपा को हराने की रणनीति बनाएंगे.
फिर राहुल गांधी अपने आर्थिक दृष्टिकोण पर भी निगाह डाल सकते हैं. जो दृष्टिकोण फिलहाल वे कॉमरेड सीताराम येचुरी के साथ साझा करते हैं, नई विचारधारा के तहत वही दृष्टिकोण हिंदू दक्षिणपंथ के साथ साझा करेंगे.
तब राहुल गांधी, कम से कम सार्वजनिक रूप से, अपने दत्तात्रेय ब्राह्मण होने का गौरव भी थोड़ा बहुत खो सकते हैं और अपने को- वे क्या हैं- के रूप में गढ़ने की जगह- वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं- के रूप में गढ़ सकते हैं.
गांधी के नेतृत्व की परीक्षा
मंगलवार को आने वाले परिणाम एक नेता और रणनीतिकार के रूप में राहुल पर भी फैसला होंगे. उनके एक नजदीकी सहयोगी का कहना है कि इन चुनावों में उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ लगाया है, यह योजना बनाकर कि ‘भाजपा का अगला कदम क्या हो सकता है.’ चुनावी दौड़ में शामिल होने के लिए कांग्रेस ने बहुत कुछ ऐसा किया जो पहली बार था.
बूथ स्तरीय कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग दी गई कि मतदाताओं को कैसे बूथ तक लाया जाए, चुनाव में हेरफेर को कैसे रोका जाए और ‘ईवीएम पर नजर’ कैसे रखी जाए. चुनाव को ‘मैनेज’ करने के संदेहास्पद प्रयासों के बीच कांग्रेस ने मुख्यमंत्री आवास और चुनाव अधिकारियों पर ‘कड़ी नजर’ रखी. उन्होंने इनकम टैक्स अधिकारी और जिलाधिकारी को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के आवास में जाने को चिन्हित किया और इस बारे में खूब शोर मचाया.
गांधी ने अपने पार्टी प्रत्याशियों को निर्देश दिया है कि उत्सव मनाने या अन्य कारणों से बूथ छोड़कर न जाएं जब तक मतगणना पूरी न हो जाए और उन्हें प्रमाणपत्र न मिल जाए, ताकि मतगणना में आखिरी क्षण की हेरफेर से बचा जा सके. राहुल गांधी जब राज्यों में हिंदुत्व की राह पर दोगुनी रफ्तार से पहुंच रहे थे, उन्होंने छत्तीसगढ़ में पिछड़े नेताओं को उनके जातीय वोट बटोरने के लिए लगाया. सांसद ताम्रध्वज साहू को साहुओं के साथ, छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल को कुर्मियों के साथ, कांग्रेस सचिव चंदन यादव को यादवों के साथ. ऐसा ओबीसी वोटों को मोदी से छिटकाने के लिए किया गया था.
बड़े पैमाने पर राहुल गांधी यह सुनिश्चित करने में सफल रहे कि एकता बनी रहे और जमीनी स्तर पर विभिन्न गुटों के नेता साथ काम करें. यहां तक कि मध्य प्रदेश में भी वे ऐसा कर सके. ऐसा कहा गया कि वे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को कांग्रेस वर्किंग कमेटी से दूर रखकर उन्हें अपमानित कर रहे हैं, लेकिन यह एक सोचा समझा कदम था ताकि दिग्विजय सिंह के दस साल के ‘कुशासन’ से भाजपा का ध्यान हटाया जा सके.
जब पूर्वोत्तर में भाजपा के रणनीतिकार हेमंत बिस्व सरमा ने मिजोरम में कांग्रेस के कुछ नेताओं पर डोरे डालने शुरू किए तो कांग्रेस ने जल्दी से 15 लोगों की टीम आईजोल भेदी दी कि ‘किसी भी कीमत पर’ सरमा को ऐसा करने से रोका जा सके.
यह वे रणनीतियां हैं जो आम तौर पर अमित शाह से जुड़ी हुई हैं. राहुल गांधी के सहयोगी कहते हैं कि अगर राहुल गांधी ‘भाजपा के अगले कदम को भांप कर अपनी रणनीति बनाते हैं, तो चुनाव का नतीजा यह बता देगा कि कांग्रेस अध्यक्ष अपने भाजपाई समकक्ष के मुकाबले कहां खड़े हैं. मंगलवार को हमें यह संकेत मिल जाएगा कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी अपनी नई छवि के साथ आगे बढ़ेगी, या पुरानी की तरफ लौट जाएगी.
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