क्या नरेंद्र मोदी सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर के बाद ग्लोबल आउटरीच के लिए सभी दलों के प्रतिनिधिमंडलों में विपक्षी सांसदों और नेताओं को चुनकर राजनीति की?
हां, बिल्कुल. जब सरकार ने पहले ही कांग्रेस के प्रतिनिधियों को तय कर लिया था और मंत्री चार कांग्रेस नेताओं—शशि थरूर, मनीष तिवारी, सलमान खुर्शीद और अमर सिंह—से बात भी कर चुके थे, तो फिर संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू का राज्यसभा और लोकसभा में विपक्ष के नेताओं मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी को फोन करने का क्या मतलब रह गया?
अगर सरकार को इन चार नेताओं को ही प्रतिनिधिमंडल में शामिल करना था, तो वह कांग्रेस नेतृत्व से सीधा अनुरोध कर सकती थी कि इन्हें ही नामित किया जाए. लेकिन इसके बजाय रिजिजू ने खड़गे और गांधी के प्रतिनिधि भेजने का इंतज़ार किया और फिर सरकार ने अपने हिसाब से कांग्रेस के नाम घोषित कर दिए.
भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व को पहले से अंदेशा था कि कांग्रेस थरूर, तिवारी और बाकी दो को नामित नहीं करेगी. कांग्रेस इस जाल में फंस गई. अब मुख्य विपक्ष पार्टी की स्थिति शर्मनाक हो गई है. पार्टी के अंदरूनी मतभेद भी खुलकर सामने आ गए हैं.
लेकिन इससे पहले कि हम यह चर्चा करें कि कांग्रेस हाईकमान ने कैसे गड़बड़ी की, यह साफ़ होना चाहिए कि सरकार ने विपक्ष को राजनीतिक मकसद से इस्तेमाल किया.
सरकार के प्रचार तंत्र से इस बात पर बहस नहीं की जा सकती कि शशि थरूर, जो संसद की स्थायी समिति (विदेश मामलों) के अध्यक्ष हैं और जो संयुक्त राष्ट्र में लगभग तीन दशक तक काम कर चुके हैं, अमेरिका और अन्य देशों में प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए उपयुक्त व्यक्ति थे. 2019 में उन्होंने इस संसदीय समिति के एक सामान्य सदस्य के रूप में काम करने से इनकार कर दिया था क्योंकि वह पिछली लोकसभा में इसके अध्यक्ष थे. मोदी सरकार उन्हें दोबारा इस समिति का अध्यक्ष नहीं बनाना चाहती थी. लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों की प्रकृति ने सरकार को मजबूर किया कि वह उन्हें फिर से इस समिति का अध्यक्ष माने.
तो सोचिए, अचानक ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शशि थरूर अच्छे लगने लगे — वही थरूर जिनकी पत्नी को मोदी ने कभी “50 करोड़ की गर्लफ्रेंड” कहा था?
मान लीजिए, ये सब राजनीति है. यह उस वक्त हो रहा है जब मुख्य विपक्षी पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के विश्वगुरु नारे को चुनौती देने की कोशिश कर रही है. 18 मई को कर्नाटक कांग्रेस ने एक्स पर पोस्ट किया: “11 सालों में 72 देशों के 129 दौरे हुए, जिसमें करोड़ों टैक्सपेयर्स का पैसा खर्च हुआ. नतीजा शून्य है. किसी देश ने #OperationSindoor #BJPFailsIndia का समर्थन नहीं किया.”
हालांकि इस पोस्ट में पीएम मोदी का नाम नहीं लिया गया, लेकिन सभी यात्राओं की सूची ने कुछ भी छिपा नहीं छोड़ा. कर्नाटक कांग्रेस की सूची के मुताबिक, पीएम मोदी 2014 से अब तक अमेरिका 9 बार जा चुके हैं, और UAE, फ्रांस, जापान, रूस — हर एक देश का दौरा 5 बार कर चुके हैं.
कांग्रेस के दूसरे नेता और हैंडल्स भी मोदी के 2020 वाले नारे “अबकी बार, ट्रंप सरकार” को पोस्ट कर रहे हैं, जब ट्रंप दोबारा चुनाव लड़ रहे थे. अब ट्रंप भारत को लेकर रोज़ाना विवादास्पद दावे कर रहे हैं, और वो पुराना नारा मोदी सरकार के लिए गले की फांस बन गया है. कांग्रेस “विश्वगुरु” दावे को चोट पहुंचाना चाह रही है और यह पूछ रही है कि IMF की कार्यकारी बोर्ड बैठक में भारत ने पाकिस्तान के बेलआउट पैकेज के खिलाफ वोट क्यों नहीं किया, भारत किसी भी देश को इस बेलआउट के खिलाफ वोट देने के लिए मना नहीं पाया — यह बात विपक्ष के हाथ एक और मुद्दा दे रही है जिससे वह बीजेपी सरकार को घेर सके.
सरकार ने भी अपनी चाल चल दी है. 45 सांसदों और 6 वरिष्ठ नेताओं वाले सभी दलों के प्रतिनिधिमंडल की यात्रा — जो 33 देशों की राजधानियों में जाएंगे — विपक्ष के हमले की धार को कम करने की कोशिश है. इन प्रतिनिधिमंडलों में 19 विपक्षी नेता हैं — जिनमें से ज़्यादातर मुखर और तर्कशील माने जाते हैं. सोचिए, थरूर, तिवारी और कांग्रेस के तीन और नेता विदेशों में भारत की आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और सरकार के रुख का समर्थन करेंगे, जबकि देश में उनकी ही पार्टी सरकार को अंतरराष्ट्रीय समर्थन न मिल पाने के लिए कोस रही है.
इसलिए, जब भी संसद में इस पर बहस होगी, विपक्षी पार्टियों को मजबूरी में अपने उन सांसदों को इस मुद्दे पर नहीं उतारना पड़ेगा जो इन प्रतिनिधिमंडलों का हिस्सा थे.
बीजेपी का राजनीतिक खेल
ऑल पार्टी डेलिगेशन में कांग्रेस के साथ मोदी सरकार ने राजनीति की, ये तो ठीक है, लेकिन राजनीति में ऐसा होना आम बात है. सवाल ये है कि कांग्रेस इस चाल में फंसी क्यों? शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे नेता तो अपनी बात साफ-साफ कहने के लिए जाने जाते हैं, खासकर जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा की हो. उन्हें गांधी परिवार की तरह अल्पसंख्यक बहुल वायनाड जैसी सुरक्षित सीटें नहीं मिलतीं.
मनीष तिवारी ने तीन लोकसभा चुनाव तीन अलग-अलग सीटों से लड़े और हर बार जीते. थरूर ने 2009 में पहली बार तिरुवनंतपुरम से चुनाव लड़ा, जहां पहले दो बार कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) जीत चुकी थी. उन्होंने तब से ये सीट लगातार बरकरार रखी है. ऐसे नेता जो हर दिन अपने क्षेत्र में पसीना बहाते हैं, उन्हें जनता की भावनाओं का ध्यान रखना होता है और उसी के हिसाब से जवाब देना होता है.
तो एक ओर जहां बीजेपी ने ऑल पार्टी डेलिगेशन के चयन में राजनीति की, वहीं मुख्य विपक्ष इतनी भोली निकली कि उस जाल में फंस गई. थरूर और तिवारी जैसे नेता अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक मंचों पर सम्मानित और प्रभावशाली आवाज़ें हैं. सलमान खुर्शीद तो पूर्व विदेश मंत्री रह चुके हैं. ये नेता कांग्रेस की तरफ से डेलिगेशन में नामित होने के स्वाभाविक विकल्प थे. फिर कांग्रेस ने इन्हें अपनी सूची से बाहर रखकर झटका क्यों दिया?
सीधा जवाब है—छोटापन और निजी स्वार्थ. राहुल गांधी और उनके परिवार के आसपास जो चापलूसों का एक गिरोह है, वही उन्हें असुरक्षित महसूस कराता है और सच्चाई नहीं देखने देता कि ये लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए उनका इस्तेमाल कर रहे हैं.
कांग्रेस ने थरूर का अपमान किया
मैं यहां खुद को शशि थरूर और केरल की राजनीति तक सीमित रखूंगा. ये एक ऐसी स्थिति है जहां कांग्रेस पार्टी उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित कर रही है. ज़रा सोचिए, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव (संचार) जयराम रमेश ने थरूर को लेकर एक के बाद एक टिप्पणी करके कैसे उनकी छवि को ठेस पहुंचाई. रमेश ने कहा कि थरूर जो भी बोलते हैं, वह उनका निजी विचार है, पार्टी का नहीं. रमेश की दूसरी टिप्पणियां भी देखिए: कांग्रेस में होने और कांग्रेस के होने में बड़ा फर्क है; कांग्रेस एक विशाल गंगा की तरह है, जिसकी कई सहायक नदियां हैं… कुछ सूख जाती हैं और कुछ प्रदूषित हो जाती हैं. तो फिर एक ‘प्रदूषित’ शशि थरूर को इस गंगा की सहायक नदी बने रहने की क्या जरूरत है? थरूर कहते हैं कि उन्हें आसानी से अपमानित नहीं किया जा सकता, लेकिन उनकी पार्टी उनकी सहनशीलता की परीक्षा ले रही है.
सबको पता है कि इस अपमान के पीछे कौन है. वो हैं केसी वेणुगोपाल, जो संगठन के महासचिव हैं और राहुल गांधी पर पूरा नियंत्रण रखते हैं. वेणुगोपाल की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा किसी से छुपी नहीं है. इसलिए उन्हें हर संभावित प्रतिद्वंद्वी—सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी थरूर—को रास्ते से हटाना है. वेणुगोपाल का राहुल गांधी पर पूरा असर जानते हुए, गांधी परिवार के करीबी हर नेता—मसलन, जयराम रमेश—थरूर की छवि खराब करने में लग जाता है. अब जब मोदी सरकार को इसमें मौका दिखा, तो उसने फायदा उठा लिया। तो फिर बीजेपी को दोष क्यों देना?
आइए, वापस चलते हैं उस समय में जब पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को 2022 विधानसभा चुनाव से पहले गांधी परिवार ने अपमानित किया—सिर्फ इसलिए कि वह ब्लू-ब्लडेड रॉयल, जो राजीव गांधी के स्कूल के दिनों के दोस्त थे, गांधी परिवार के बच्चों की चापलूसी नहीं कर पाए. गांधी भाई-बहन नवजोत सिद्धू से प्रभावित हो गए, जो बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में आए थे. कांग्रेस पंजाब चुनाव हार गई, लेकिन गांधी परिवार जीत गया क्योंकि वह कैप्टन अमरिंदर सिंह के राजनीतिक संन्यास का कारण बना.
केरल में भी वैसा ही प्लॉट तैयार हो रहा है, क्योंकि राहुल गांधी केसी वेणुगोपाल के प्रति बेहद मोहग्रस्त हैं. कांग्रेस के नेता नहीं जानते कि ऐसा क्यों है, लेकिन थरूर को जाना ही होगा. हाईकमान ने अमरिंदर सिंह को इतना अपमानित किया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया और पार्टी छोड़ दी. अब केसी-जयराम एंड कंपनी थरूर के साथ भी वैसा ही कर रही है, ताकि वह भी जल्दी या देर से यही कदम उठाएं. पार्टी केरल में जीते या हारे—किसे फर्क पड़ता है?
थरूर के विकल्प
थरूर के पास क्या विकल्प हैं? उनके पास मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा है. क्यों न हो? एक चार बार के सांसद, जिनका केरल और देशभर में इतना फॉलोअर्स बेस है, उनके इस सपने को गलत नहीं कहा जा सकता. आखिरकार, वह ऐसे नेता हैं जिन्हें जाति की सीमाओं से परे युवा पसंद करते हैं. केरल की दो प्रमुख अल्पसंख्यक आबादी—ईसाई और मुस्लिम, जो कुल जनसंख्या का 45 प्रतिशत हैं—थरूर के उदार विचारों और सोच के कारण उन्हें पसंद करते हैं. नायर सर्विस सोसाइटी, जो केरल की दूसरी बड़ी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, उन्हें अपनाने के लिए तैयार है.
वहीं, एझवा समुदाय, जो केरल का सबसे बड़ा हिंदू समुदाय है और परंपरागत रूप से वामपंथ के साथ रहा है, उसमें अब वफादारी बदलने के संकेत दिख रहे हैं. 2021 विधानसभा चुनावों के दौरान किए गए सीएसडीएस-लोकनीति के पोस्ट-पोल सर्वे के मुताबिक, 23 प्रतिशत एझवाओं ने एनडीए को वोट दिया—जो 2016 के 18 प्रतिशत से बढ़ा. 2024 लोकसभा चुनावों के पोस्ट-पोल सर्वे में, 32 प्रतिशत एझवाओं ने एनडीए को वोट दिया. यानी वामपंथी वोट पहले से ही बंट रहे हैं. जहां तक नायरों की बात है, 2021 विधानसभा चुनावों में बीजेपी को मिले उनके वोट 27 प्रतिशत थे, जो 2024 लोकसभा चुनावों में बढ़कर 45 प्रतिशत हो गए.
तो, जो लोग मानते हैं कि थरूर के पास बीजेपी में जाने का विकल्प नहीं है, वे गलत हैं. ये आंकड़े एक सच्चाई को सामने लाते हैं. देखिए 2024 लोकसभा चुनाव में तिरुवनंतपुरम सीट पर थरूर और उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी बीजेपी के राजीव चंद्रशेखर के बीच का अंतर—करीब 16,000 वोट. और इनमें से बड़ी संख्या में कांग्रेस के वोटर असल में थरूर के वोटर थे. तो जब कोई कहता है कि थरूर बीजेपी में नहीं जा सकते, तो सीधा सवाल बनता है—क्यों नहीं? उनकी संसदीय सीट सुरक्षित रहेगी. कांग्रेस तो उन्हें सीएम चेहरा बना नहीं रही. तो अगर वो बीजेपी के सीएम उम्मीदवार बनते हैं, तो उन्हें क्या नुकसान है?
संभावनाएं देखिए. पहला, बड़ी संख्या में हिंदू वोटर—जिनमें नायर और एझवा समुदाय के बहुत लोग पहले ही बीजेपी की ओर झुक रहे हैं—थरूर के साथ जा सकते हैं.
दूसरा, थरूर अल्पसंख्यकों में भी लोकप्रिय बने रह सकते हैं—जैसा कि बीजेपी के सफल त्रिशूर उम्मीदवार सुरेश गोपी के मामले में हुआ.
इससे खेल खुलता है. मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि थरूर बीजेपी में जा रहे हैं। मैं केवल एक काल्पनिक स्थिति की बात कर रहा हूं. अगर वो कांग्रेस छोड़ने का फैसला करते हैं—जैसा कि केसी वेणुगोपाल और जयराम रमेश उन्हें बाहर निकालने की पूरी कोशिश कर रहे हैं—तो उनके पास कई विकल्प हैं. वामपंथ भी उन्हें गले लगा सकता है. मुझे याद है जब 2006 में वो दिल्ली में सीपीआई-एम मुख्यालय एकेजी भवन आए थे.
तब वो चाहते थे कि भारत उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासचिव पद के लिए समर्थन दे और उस समय वामदलों की सरकार में बड़ी भूमिका थी. मुझे आज भी याद है कि वहां के कॉमरेड्स उस दौरे से कितने उत्साहित थे।. हाल ही में नियुक्त सीपीआई (एम) महासचिव एमए बेबी ने कहा है कि मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, जो 79 साल के हैं, 2026 के चुनाव प्रचार का नेतृत्व करेंगे, लेकिन अगर वामपंथ फिर से जीता तो मुख्यमंत्री चुनाव के बाद तय होगा. मतलब, विजयन अगली बार जरूरी नहीं कि सीएम बनें. तो क्या थरूर के पास वामपंथ में अपना सपना पूरा करने का विकल्प है? वो उन्हें जरूर अपनाना चाहेंगे. लेकिन एक गैर-कॉमरेड के लिए उस अहम पद तक पहुंचना मुश्किल है. केसी वेणुगोपाल वाली कांग्रेस तो उन्हें वैसे भी यह मौका नहीं देगी. इसलिए अगर थरूर को अपने सपनों को हकीकत में बदलना है और राज्य के लिए अपना विजन लागू करना है, तो बीजेपी एक विकल्प बनती है—खासतौर पर जब राहुल गांधी एंड कंपनी उन्हें बाहर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है.
थरूर को जरूर याद होगा कि गांधी परिवार ने कैसे कैप्टन अमरिंदर सिंह को रोज़-रोज़ छोटे-छोटे कट मारकर खत्म कर दिया था, उन्हें हर रोज़ अपमानित किया गया. जैसा कि दिख रहा है, गांधी परिवार केरल विधानसभा चुनाव में पंजाब दोहराने की तैयारी कर रहा है, जो अगले साल की शुरुआत में होने हैं.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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