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Sunday, 3 November, 2024
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आईसीएमआर को कोरोना का टीका जल्दी तैयार करना चाहिए, 15 अगस्त नहीं बल्कि विज्ञान के हित में

कोरोनावायरस के टीके का क्लिनिकल परीक्षण 15 अगस्त तक पूरा करना संभव नहीं है. नियामक अधिकारियों का नैतिक कर्तव्य है कि वे राजनीतिक नेताओं को ‘ना’ कहें.

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इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दुनिया को नोवल कोरोनावायरस या सार्स-एन-कोव-2 के टीके की शीघ्र ज़रूरत है और इस टीके के विकास में बाज़ी मारने वाले देश को न सिर्फ स्वास्थ्य संबंधी एवं आर्थिक लाभ मिलेंगे, बल्कि उसे इसके भूसामरिक फायदे उठाने का भी अवसर मिलेगा. इसलिए सामरिक कारणों से जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, ‘भारत को एक स्वदेशी टीके के विकास की कोशिशें तेज़ कर देनी चाहिए’ और ‘हमें अपनी आबादी के उपयोग के लिए और शेष विश्व को बड़ी मात्रा में निर्यात के वास्ते टीके की पर्याप्त खुराकें निर्मित करने के लिए तैयार रहना चाहिए.’

जैसा कि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के ’सारे क्लिनिकल परीक्षणों को पूरा करते हुए 15 अगस्त 2020 तक सार्वजनिक स्वास्थ्य हेतु उपयोग के लिए टीका जारी करने’ को लेकर कतिपय अस्पतालों को लिखे विवादास्पद पत्र से जाहिर होता है. नरेंद्र मोदी सरकार टीके की होड़ को लेकर गंभीर है, जो कि अच्छा संकेत है. हालांकि जैसा कि वारेन बफ़ेट ने एक बार कहा था, ‘चाहे कितनी भी प्रतिभा हो और कितनी भी कोशिशें की जाती हों, कुछ चीज़ें वक्त लेती हैं. आप नौ महिलाओं को गर्भवती कर एक महीने में एक बच्चा पैदा नहीं कर सकते.’ वास्तव में, आईसीएमआर की उम्मीद, मांग या हुक्म- उसे चाहे जो कहें- को पूरा करना तार्किक रूप से असंभव है. सारे क्लिनिकल परीक्षण 15 अगस्त तक पूरे किए ही नहीं जा सकते हैं. ऐसा लगता है कि बाद में दिए स्पष्टीकरण में आईसीएमआर ने भी इस बात को मान लिया है.

मोदी सरकार को टीकों और दवाइयों के क्षेत्र में भारत की तुलनात्मक बढ़त को ऐसे बेतुके मानकों के ज़रिए कमज़ोर नहीं करना चाहिए जिन पर कि अन्य देशों का भरोसा नहीं हो.

स्वदेशी टीके की ज़रूरत का अनिवार्यत: ये मतलब नहीं है कि भारत को इस होड़ में बाज़ी मारनी चाहिए. हमारे पास पहला टीका भले ही नहीं हो, पर हमारे पास एक महत्वपूर्ण टीका होना चाहिए, सुरक्षित और पर्याप्त रूप से प्रभावी, सस्ता और बड़ी मात्रा में उपलब्ध.

विज्ञान पर नीति को प्राथमिकता?

जैसा कि ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में चाणक्य छद्म नाम से लिखा गया है, ’15 अगस्त के डेडलाइन की प्रतीकात्मकता (यह भारत का स्वतंत्रता दिवस है) से किसी को इनकार नहीं होना चाहिए. लेकिन ये प्रतीकवाद राजनीतिक नेताओं के लिए मायने रखता है, वैज्ञानिकों के लिए नहीं और जब टीकों, वास्तव में जीवन और मौत का विषय, की बात हो तो प्रतीकवाद और राजनीति को विज्ञान के लिए जगह छोड़ देनी चाहिए.’ एक घातक और अभूतपूर्व महामारी के दौरान उपयोगी विज्ञान पर राजनीति को हावी होने देना भारतीय समाज के बारे में बहुत कुछ कहता है.


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टीके के लिए राजनीति प्रेरित टाइमलाइन की बात हो या बिना प्रायोगिक सत्यापन के एक सिद्धा औषधि के सौ फीसदी कारगर होने का तमिलनाडु के एक मंत्री का दावा या फिर आयुर्वेद के नाम पर एक संदिग्ध दवा को रामदेव द्वारा आगे बढ़ाया जाना- इस तरह के दावों से कहीं अधिक ख़तरनाक है इनके विरुद्ध सार्वजनिक आक्रोश का अभाव. इस कारण राजनीतिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों का कम से कम महामारी के दौरान, विज्ञान के प्रति सम्मान भाव रखना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. राजनीति के विज्ञान का स्थान लेने पर हमारा अहित तय है.

परीक्षण मॉडल

राजनीति और उपयोगी विज्ञान का सामंजस्य बिल्कुल संभव है. राजनीति प्राथमिकताएं तय करने का काम कर सकती हैं. यह संसाधनों के आवंटन और संगठनात्मक प्राथमिकताओं को व्यवस्थित करने का काम कर सकती है और यह नीति निर्माण में विज्ञान के सहयोग को स्वीकार कर सकती है.

टीकों और उपचार के संदर्भ में क्लिनिकल परीक्षण अवधि को छोटा करने के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की चार चरणों वाली क्लिनिकल परीक्षण व्यवस्था के तहत किसी भी दवा को पहले कई वर्षों की अवधि में हज़ारों लोगों पर आजमाया जाता है. इसका उद्देश्य ये सुनिश्चित करना होता है कि दवा सुरक्षित है यानि उसे लेने वालों को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा और वो प्रभावी है यानि प्लेसीबो से बेहतर असर करेगा. कोरोनावायरस टीके को स्वीकृति देने के लिए अमेरिका की दवा नियामक संस्था एफडीए ने विस्तृत क्लिनिकल परीक्षण (परीक्षण का तीसरा चरण) की शर्त लगा रखी है ताकि ये साबित किया जा सके कि ‘टीके लगवाने वाले लोगों के संक्रमित होने की आशंका न्यूनतम 50 फीसदी कम हो जाएगी.’ यह एक विवेकपूर्ण दृष्टिकोण है और इसमें लोगों को दवा के प्रभाव या साइड इफेक्ट से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए पर्याप्त सतर्कता बरती जाती है.


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कोविड-19 महामारी के मामले में हमारे पास वर्षों के इंतजार का विकल्प नहीं है जैसा कि सामान्य दौर में होता. नैतिक दुविधा अलग तरह की है. हमें महामारी की स्वास्थ्य संबंधी एवं आर्थिक कीमत तथा द्रुत गति से विकसित टीके या उपचार में से एक को चुनना है. इस बात पर आमतौर पर सहमति है कि इस असाधारण समय में टीकों और उपचार के विकास में हरसंभव शीघ्रता दिखाना उचित है. लेकिन जहां कंप्यूटिंग शक्ति बढ़ाकर बहुत से दवाइयों के विकास में लगने वाले समय को कम किया जा सकता है, वहीं एक जिस चीज़ की गति नहीं बढ़ाई जा सकती है, जिस पर बफ़ेट ने भी ज़ोर दिया था, वो है मानव की जैव प्रणाली.

इनकार करना

वैसे डब्ल्यूएचओ की चार चरणों वाली व्यवस्था में कुछ भी अनुल्लंघनीय नहीं है और आपातकालीन समय में आप अलग तरीके अपनाते भी हैं. इसलिए, आईसीएमआर को टीके के विकास के लिए मनमर्जी समय सीमा थोपने की बजाय अपनी बौद्धिक क्षमताओं को क्लिनिकल परीक्षण की समयावधि कम करने के तरीके ढूंढने में लगाना चाहिए. ये कोई असंभव लक्ष्य नहीं है, बस इसमें विज्ञान, गणित, प्रक्रियात्मक इंजीनियरिंग, लॉजिस्टिक्स, लोक प्रशासन और संचार से जुड़े विशेषज्ञों के मिलकर काम करने और ‘सरकार के शीर्षतम स्तर’ के लिए विकल्प उपलब्ध कराने की दरकार है. वैसे भी, समयावधि में कटौती से आईसीएमआर का सुरक्षा और प्रभाविकता सुनिश्चित करने और जनता को इस बात पर आश्वस्त करने का दायित्व खत्म नहीं हो जाता कि क्यों सामान्य मानकों से हटने की ज़रूरत है.

उसे विकल्पों के चयन को लेकर स्पष्टता बरतने, संबद्ध जोखिमों की पहचान करने और ये बताने की ज़रूरत है कि अनपेक्षित परिणामों की स्थिति के लिए सरकार की क्या योजनाएं हैं. सरकारी पारदर्शिता जितनी अधिक होगी, भारत में विकसति टीकों और उपचारों की विश्वसनीयता भी उसी हिसाब से बढ़ सकेगी.

वास्तव में, भारत के चिकित्सा और औषध नियामक संस्थाओं की विश्वसनीयता का सामरिक महत्व है. भारतीयों को सलामत रखने के अलावा, स्वदेश में विकसित टीकों और उपचारों की वैश्विक संभावनाएं हैं. धरती पर मौजूद हर इंसान को कम से कम एक बार कोविड का टीका लगाने की ज़रूरत पड़ेगी.

और इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सेना से लेकर चिकित्सा के क्षेत्र तक हर पेशे के नियामक अधिकारियों के दायित्वों में गंभीरतापूर्वक विचार के बाद राजनीतिक नेतृत्व से ये कहने का नैतिक कर्तव्य भी शामिल होता है कि ‘नहीं, ऐसा नहीं किया जा सकता.’

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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