नरेंद्र मोदी सरकार की लैटरल एंट्री योजना संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव स्तर पर ‘विषय के जानकारों’ और बाहरी विशेषज्ञों को नियुक्त करने की प्रक्रिया का नाम है. इसका मतलब ये नहीं है कि आईएएस बिरादरी में अच्छे कामकाज के लिए आवश्यक खूबियों का अभाव है. शहरी ‘बुद्धिजीवियों’ की आलोचना के बावजूद, आईएएस अधिकारियों का प्रदर्शन बहुत बढ़िया रहा है.
हाल ही में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन और लोकनीति के एक सर्वे में ये तथ्य निकल कर सामने आया कि जिलाधिकारी/कलेक्टर कार्यालयों (जहां आईएएस नियुक्त होते हैं) की विश्वसनीयता बहुत अधिक है. भारत के लोग चुनाव आयोग और यूपीएससी जैसी संस्थाओं पर गर्व करते हैं, जिन्हें कि आमतौर पर वरिष्ठ नौकरशाह चलाते हैं. सुदूर के इलाकों में ज़बरदस्त काम कर रहे अधिकारी बड़ी संख्या में हैं, पर उनकी चर्चा बहुत कम होती है.
हालांकि, इनके कामकाज में सुधार की अभी काफी गुंजाइश है. एक बड़ा सवाल भर्ती, सेवा में दाखिले, प्रशिक्षण, सेवा काल में ट्रेनिंग, प्रोत्साहन या दंड और पदोन्नति के संदर्भ में सिविल सर्विसेज़ के मानव संसाधन प्रबंधन को लेकर है.
पर एक वरिष्ठ नौकरशाह में हम क्या ढूंढ रहे हैं? शुरुआती कुछेक वर्षों को छोड़ दें तो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के सभी अधिकारी मुख्यत: नेतृत्व की भूमिका में होते हैं – वे एसडीएम हों, या जिलाधिकारी, विभाग प्रमुख या सचिवालय में तैनात अधिकारी. इसलिए उनके बुद्धिमान और परिश्रमी होने की उम्मीद की जाती है (इन गुणों को अभी यूपीएससी की परीक्षा में परखा जाता है), पर साथ ही उनके नैतिक, मानवीय, सदा उपलब्ध, निर्णायक, सहयोगी, संवाद में कुशल और अपनी टीम को प्रेरित करने वाला होने की भी अपेक्षा की जाती है (उनके सेवा में दाखिले के समय अभी इन गुणों का आकलन नहीं किया जाता है).
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क्या मौजूदा प्रक्रिया नेतृत्व क्षमता वाले अधिकारियों का चयन करती है और इन गुणों को काम में लाने में उनकी मदद करती है? जवाब नकारात्मक है.
आइए इस बात पर गौर करते हैं कि किसी वरिष्ठ नौकरशाह में अच्छे नेतृत्व के गुणों का मूल्यांकन और अधिष्ठापन किस तरह संभव है.
भर्ती: यदि अधिकारियों की भर्ती बड़ी उम्र में होती है, तो उन्हें नेतृत्व की भूमिका में ढालने की संभावना बहुत कम रह जाती है. क्योंकि तब तक वे अपने व्यक्तित्व में पूरी तरह ढल चुके होते हैं. उनसे बदलने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. हाल के वर्षों में भर्ती की औसत उम्र बढ़ी है, और इसे कम कर 26 वर्ष के स्तर पर लाने की ज़रूरत है.
परीक्षा: मौजूदा परीक्षा प्रणाली में उम्मीदवार के नेतृत्व की क्षमताओं को नहीं परखा जाता है. यह परीक्षा ‘क्रैक करने’ की उनकी क्षमता का आकलन करती है, और इसमें उम्मीदवार की मदद के लिए विभिन्न कोचिंग संस्थान मौजूद हैं. परीक्षा के प्रश्न-पत्र ज्ञान और जागरुकता के स्तर, थोड़ी तर्कशीलता और विश्लेषणात्मक क्षमताओं का परीक्षण करते हैं. ज़रूरी नहीं कि इन क्षमताओं के सहारे कोई अच्छा टीम लीडर बन सके. जबकि वर्तमान में नेतृत्व के गुणों को परखने के तरीके उपलब्ध हैं जिनका निजी सेक्टर में दुनिया में अन्य जगहों पर इस्तेमाल हो रहा है. साथ ही, उद्देश्य महज मेधावी लोगों के चयन का ही नहीं होना चाहिए (जो कि अभी हो रहा है), बल्कि ऐसे लोगों को चुना जाना चाहिए जो कि एक समूह के सदस्य के रूप में शानदार प्रदर्शन कर सकें.
प्रशिक्षण: चयन हो जाने के बाद, एक अधिकारी को लीडर के रूप में ढालने के लिए कड़ी ट्रेनिंग दिए जाने की ज़रूरत है. और यही वो चरण है जब चुने गए अधिकारियों के भीतर सिविल सर्विसेज़ के चरित्र और उद्देश्य की समझ डाली जानी चाहिए. किसी अधिकारी की प्रतिभा आवश्यक है, पर अधिक महत्वपूर्ण है समूह के रूप में बेहतर प्रदर्शन की उसकी क्षमता. इस बात को दिमाग में बिठाने के लिए सामूहिक क्रियाकलापों को बढ़ावा दिए जाने की ज़रूरत है. युवा अधिकारियों को एक संस्थागत व्यवस्था के तहत वरिष्ठ अधिकारियों के संरक्षण में रखा जाना चाहिए.
सेवाकाल में ट्रेनिंग: सेवा के दौरान प्रशिक्षण दक्षता बढ़ाने और एक-दूसरे से सीखने की प्रक्रिया पर केंद्रित होना चाहिए. तीव्र तकनीकी परिवर्तनों वाले मौजूदा दौर में ऐसा करना आवश्यक है. इसी प्रकार अधिकारी विशेष की भावी तैनातियों पर फैसला करने के लिए उसके गुणों और प्रवृतियों का बीच-बीच में मूल्यांकन किया जाना चाहिए. इस तरह, फील्ड में अच्छा कर रहे किसी व्यक्ति को बुनियादी अनुभव के लिए आवश्यक अवधि से अधिक समय तक सचिवालय में तैनात किए जाने की ज़रूरत नहीं है.
स्थानांतरण: कुछ राज्य अधिकारियों का निरंतर स्थानांतरण करते रहने के लिए बदनाम हैं. स्थानांतरण कोई सज़ा नहीं है, पर ये मनोबल तोड़ने वाला और गलत संदेश देने वाला साबित हो सकता है. एक गलत स्थानांतरण से अधिकारी बेईमान नेताओं के चक्कर में फंस जाता है. राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना इस गड़बड़ी को ठीक करना मुश्किल है क्योंकि नेताओं की नज़र में स्थानांतरण अधिकारियों को काबू में रखने का एक औजार है. इस सिलसिले में सिविल सर्विसेज़ बोर्ड की स्थापना से कोई खास मदद नहीं मिली है. इस समस्या का कोई सरल समाधान नहीं है, पर यदि अधिकारियों की सही भर्ती और ट्रेनिंग हो, और उनमें नैतिक मूल्य भरे जाएं, तो वे स्थानांतरणों से अविचलित रहेंगे. और फिर जब नेताओं को अहसास हो जाएगा कि वे आईएएस अधिकारियों को स्थानांतरण से ‘दंडित’ नहीं कर सकते, तो गलत स्थानांतरण की घटनाएं कम हो जाएंगी.
मूल्यांकन और पदोन्नति: सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद, किसी अधिकारी को प्रतिकूल टिप्पणियों समेत वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) की सारी बातों से अवगत कराना अनिवार्य हो गया है. इस तरह इनका उद्देश्य खत्म हो गया है क्योंकि कोई भी अधिकारी अपने अधीनस्थ को दिए ग्रेड के बारे में बारंबार पूछताछ किया जाना पसंद नहीं करेगा. इससे भी बुरी है अपारदर्शी 360-डिग्री मूल्यांकन प्रक्रिया, जो कि अधिकारियों को हतोत्साहित करती है. नियुक्ति के पैनल से बाहर रखे जाने पर उन्हें कोई कारण नहीं बताया जाता है, इस तरह उनके लिए सुधार की गुंजाइश नहीं रह जाती है. निजी क्षेत्र में 360-डिग्री मूल्यांकन एक गहन और इंटरएक्टिव प्रक्रिया है, जहां संबंधित व्यक्ति को बताया जाता है कि उसका चयन क्यों नहीं किया गया. अधिकारियों को पैनल में शामिल करने और फिर पदोन्नति देने की इस प्रक्रिया पर गंभीरता से पुनर्विचार की ज़रूरत है. अधिकारियों के समूह को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले और अधिक समय दिया जाना चाहिए, जैसा कि उन सेक्टरों में हो रहा है जहां से कि 360-डिग्री मूल्यांकन की प्रक्रिया ली गई है.
प्रोत्साहन: अहम पदों के लिए चयन ईमानदारी और क्षमताओं के आधार पर होना चाहिए, ना कि महज व्यक्तिगत निष्ठा के आधार पर. नियुक्ति का पैनल यूपीएससी जैसी कोई एजेंसी बनाए और फिर सरकार उस पैनल में से किसी का चयन करे. सुप्रीम कोर्ट पहले ही राज्यों के पुलिस महानिदेशकों के चयन के लिए दिशा-निर्देश जारी कर चुका है. अन्य संवेदनशील पदों के लिए भी उसी तरह के दिशा-निर्देश तैयार किए जाने चाहिए.
बाहरी लोगों का दाखिला: एक ऐसा वर्ग मौजूद है जो कि अधिकारियों की लैटरल भर्ती की वकालत करता है. वैसे तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है, पर इसमें चयन की प्रक्रिया महत्वपूर्ण हो जाती है. बाहरी लोगों का नौकरशाही में दाखिला सिर्फ यूपीएससी के ज़रिए हो. साथ ही, उनकी भूमिका और कार्यकाल संबंधी जटिलताओं पर पहले से ही विचार कर लिया जाना चाहिए. हालांकि सिर्फ लैटरल एंट्री से ही शासन में सुधार नहीं आएगा. विशेषज्ञता को शायद आउटसोर्स किया भी जा सकता हो, पर नेतृत्व के साथ ऐसा नहीं हो सकता. शासन में तभी सुधार होगा जब मानव संसाधन प्रबंधन से जुड़े तमाम मुद्दों पर व्यस्थित तरीके से विचार किया जाता हो.
(लेखक एक सेवानिवृत नौकरशाह हैं. वह भारत सरकार में सचिव रह चुके हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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