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शुक्रवार, 9 मई, 2025
होममत-विमतमुझे एएस दुलत के लिए बुरा लग रहा है—उन्होंने फारूक अब्दुल्ला से दोस्ती पर किताब लिखी, मिली बेरुखी

मुझे एएस दुलत के लिए बुरा लग रहा है—उन्होंने फारूक अब्दुल्ला से दोस्ती पर किताब लिखी, मिली बेरुखी

दुलत जब आईबी में थे, तब उन्होंने कश्मीर में काम किया था और फारूक अब्दुल्ला के साथ उनके करीबी संबंध थे. तब से दिल्ली ने गुप्त वार्ता के लिए उनका इस्तेमाल किया है.

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क्या फारूक अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन किया था? क्या उन्होंने नरेंद्र मोदी से एक निजी बैठक में कोई गुप्त समझौता किया था? क्या अनुच्छेद 370 को लेकर उनके बाद के बयान—जिसमें उन्होंने इसे धोखा कहा और लगातार इसकी निंदा की—झूठ थे, जिनका मकसद इस साजिश में उनकी असली भूमिका से ध्यान भटकाना था?

नहीं। बिलकुल नहीं. इस तरह की सोच को समर्थन देने वाला कोई सबूत नहीं है.

तो फिर यह मुद्दा सोशल मीडिया पर क्यों ट्रेंड कर रहा है? कश्मीर में फारूक के राजनीतिक विरोधियों ने इस दावे का सहारा लेकर उन्हें बदनाम करने की कोशिश क्यों की? फारूक ने खुद पीटीआई को एक छोटा इंटरव्यू देकर यह क्यों कहा कि उन्हें इस फैसले की कोई जानकारी पहले से नहीं थी और उन्होंने इन आरोपों की निंदा क्यों की?

अच्छे सवाल हैं. और इनके जवाब हमें आज के दौर के बारे में कुछ बताते हैं.

मुख्यमंत्री और जासूस

आइए आरोपों के स्रोत से शुरू करते हैं. एएस दुलत शायद भारत के सबसे सम्मानित पूर्व जासूस हैं. रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख बनने से पहले वे इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के विशेष निदेशक बने. रिटायर्मेंट के बाद, वे कश्मीर पर प्रधानमंत्री के सलाहकार बन गए.

दुलत अब 85 साल के हैं लेकिन अब भी सक्रिय हैं. सरकार उन्हें कश्मीर से जुड़े मुद्दों पर सलाह देने और दूत के तौर पर भेजने के लिए बुलाती रहती हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान के साथ ट्रैक टू डिप्लोमेसी में भी उनकी कुछ भूमिका है, लेकिन एक गुप्तचर की तरह जो बहुत ही गोपनीय रहता है, वह जासूसी और गुप्त कूटनीति की इस दुनिया में अपनी भागीदारी के बारे में बात नहीं करते.

हालांकि, पिछले दो दशकों में, जासूसी की दुनिया के लोग उन्हें उनके कई किरदारों में से एक से सबसे ज़्यादा जोड़ते हैं: फारूक विस्परर.

दुलत जब आईबी में थे तब कश्मीर में तैनात थे और उन्होंने फारूक अब्दुल्ला से घनिष्ठ संबंध बना लिया. तब से दिल्ली ने उन्हें फारूक से गुप्त बातचीत और उन्हें साथ लेकर चलने के लिए इस्तेमाल किया. ये दोनों अच्छे दोस्त बन गए हैं.

इसलिए, जब मुझे पता चला कि दुलत फारूक पर एक किताब लिख रहे हैं, तो मेरे अंदर के आलोचक को शक हुआ कि यह कितनी चाटुकारिता भरी किताब होगी. इससे मदद नहीं मिली कि किताब का नाम था दि चीफ मिनिस्टर एंड दि स्पाई: एन अनलाइकली फ्रेंडशिप और कवर पर फारूक अब्दुल्ला और एएस दुलत की मुस्कुराती तस्वीरें थीं. (किताब के अंदर भी दुलत और अब्दुल्ला परिवार की कई अनौपचारिक तस्वीरें हैं.)

मुझे जगरनॉट, किताब के प्रकाशक, ने 18 अप्रैल को दिल्ली में होने वाले लॉन्च कार्यक्रम में दुलत और अब्दुल्ला के साथ बातचीत करने के लिए कहा. चूंकि ये दोनों पुराने दोस्त हैं, मैंने मान लिया कि फारूक ने मैनुस्क्रिप्ट पढ़ ली होगी और उसे मंजूरी दे दी होगी. (असल में, मैं अब भी मानता हूं कि उन्होंने पढ़ी होगी; या शायद फारूक ज्यादा पढ़ने वाले नहीं हैं और बिना पूरी किताब पढ़े ही कह दिया कि उन्हें किताब से कोई दिक्कत नहीं है. यह भी मुमकिन है.)

फिर, बुधवार को, लॉन्च से दो दिन पहले, एक तूफान खड़ा हो गया.

सोशल मीडिया पर यह रिपोर्ट आई कि दुलत ने किताब में लिखा है कि नरेंद्र मोदी ने फारूक को अनुच्छेद 370 हटाने की योजना के बारे में पहले ही बता दिया था, और फारूक ने इसे गुप्त रूप से समर्थन दिया था.

दुलत ने क्या लिखा?

जैसे ही यह तूफान उठ रहा था, मेरे पास किताब की एडवांस कॉपी आ गई. यह वैसी ही किताब थी जैसी कोई इंसान अपने किसी करीबी दोस्त के लिए लिखता है, जिसे वह बहुत सम्मान देता है. लेकिन यह पढ़ने लायक भी थी, जिसमें पिछले तीन दशकों की कश्मीर की राजनीति को लेकर कई महत्वपूर्ण बातें थीं.

फिर मैं उस हिस्से तक पहुंचा जहां अनुच्छेद 370 के हटाए जाने का ज़िक्र है, जिसे लेकर यह तूफान खड़ा किया गया है.

“अनुच्छेद हटाए जाने के दिनों में, फारूक और उमर दोनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की,” दुलत ने लिखा. “उस बैठक में क्या हुआ, यह कोई कभी नहीं जान पाएगा. फारूक ने तो कभी इसका ज़िक्र नहीं किया है.”

ठीक है, मैंने सोचा. शायद दुलत को यह लिख देना चाहिए था कि रिकॉर्ड पर अब्दुल्ला यह कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें अनुच्छेद हटाने की कोई जानकारी नहीं दी थी. जब मैंने पिछले साल उमर अब्दुल्ला का इंटरव्यू किया था, तब उन्होंने इस बारे में बिल्कुल साफ-साफ कहा था.

लेकिन फिर भी, यह बात सोशल मीडिया पर जो दावा किया जा रहा है—कि अब्दुल्ला ने मोदी के साथ कोई गुप्त समझौता किया था—उससे बिल्कुल अलग है.

एक पेज बाद, जब दुलत यह लिखते हैं कि किस तरह सभी ने अनुच्छेद 370 को हटाने और अब्दुल्ला परिवार की गिरफ्तारी की निंदा की, तो उन्होंने यह भी लिखा:

“फारूक बेहद आहत थे. जिस तरह बीजेपी ने कभी कश्मीर और अनुच्छेद 370 को लेकर अपनी मंशा नहीं छिपाई थी, वैसे ही फारूक ने भी दिल्ली के साथ काम करने की अपनी इच्छा कभी नहीं छिपाई थी. शायद, उन्होंने कहा, नेशनल कॉन्फ्रेंस इस प्रस्ताव को जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पास करवा सकती थी. ‘हम मदद करते,’ उन्होंने मुझसे 2020 में मुलाकात के दौरान कहा. ‘हमें भरोसे में क्यों नहीं लिया गया?’”

यही वह पैराग्राफ है जिसने इस तूफान को जन्म दिया. यह साफ करता है कि फारूक को इस फैसले की कोई जानकारी नहीं थी (‘हमें भरोसे में क्यों नहीं लिया गया?’) और यह कहीं से भी नहीं बताता कि उन्होंने इस कदम का निजी तौर पर समर्थन किया जबकि सार्वजनिक रूप से निंदा की.

हां, यह ज़रूर दर्शाता है कि फारूक दिल्ली के साथ मिलकर विधानसभा में प्रस्ताव पास कराने को तैयार थे, लेकिन सोशल मीडिया का शोर इस बारे में नहीं है. दुलत के लिए फारूक की यह बात “सबसे कठिन राजनीतिक और जनदबाव के बीच उनकी व्यावहारिक सोच” को दर्शाती है. लेकिन, जैसा कि उन्होंने लिखा, “यह भी दिखाता है कि वह दिल्ली की मनमानी कार्रवाई से कितने आहत थे.” दूसरी ओर आलोचक कह सकते हैं कि फारूक ने अनुच्छेद हटाने की पूरी तरह खिलाफत नहीं की; वे इसे विधानसभा में चर्चा का विषय मानते थे.

क्या इनमें से कोई बात यह साबित करती है कि फारूक अब्दुल्ला ने नरेंद्र मोदी के साथ मिलकर अनुच्छेद 370 हटाने की साजिश रची और फिर झूठ बोलते हुए इसे छिपाया?

बिल्कुल नहीं.

जैसे ही एक्स (पहले ट्विटर) पर पोस्ट्स ने रफ्तार पकड़ी, मैं दुलत का इंटरव्यू करने निकल पड़ा—यह बातचीत पहले से दिप्रिंट के लिए तय थी. दुलत इस हंगामे से हैरान लग रहे थे. उन्होंने कहा कि उन्होंने वो कुछ भी नहीं लिखा था जो उनके नाम से फैलाया जा रहा था. किताब तो अभी बाजार में आई भी नहीं थी. फिर लोग ये सब बातें कहां से ला रहे थे?

मैंने उन्हें समझाया कि सोशल मीडिया के दौर में अब फर्क नहीं पड़ता कि आपने असल में क्या लिखा. मायने यह रखता है कि लोग दावा करते हैं कि आपने क्या लिखा है.

इस दौरान अब्दुल्ला के राजनीतिक विरोधियों का दबाव इतना बढ़ चुका था कि अब्दुल्ला परिवार के सदस्य भी दुलत की आलोचना करने लगे थे. इस बात से वे खासे आहत लगे. चूंकि यह किताब फारूक की तारीफ में लिखी गई थी, ऐसे में यह हमला उन्हें सबसे ज़्यादा चुभने वाला लगा.

दुलत को नहीं लगता था कि यह सोशल मीडिया का हंगामा पूरी तरह से खुद-ब-खुद हुआ है. उनका मानना था कि “कोई शरारत कर रहा है.” मैंने कैमरे पर उनसे पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि सत्ता में बैठे लोग इस अभियान के पीछे हैं? आखिरकार, सत्ता पक्ष को यह फायदा पहुंचाता है कि फारूक अब्दुल्ला को बदनाम किया जाए और उन्हें ऐसा दिखाया जाए मानो वे अपने ही लोगों से झूठ बोलने वाले एक मोहरा हों। दुलत ने सीधा जवाब नहीं दिया.

मैंने फिर पूछा: क्या उन्होंने इस संभावना को खारिज किया?

नहीं, उन्होंने कहा, उन्होंने ऐसा नहीं किया.

जब तक हमारी रिकॉर्डिंग खत्म हुई और मैं घर पहुंचा, तब तक फारूक अब्दुल्ला भी इस विवाद में कूद चुके थे—न सिर्फ आरोपों का खंडन करते हुए, बल्कि अपने पुराने दोस्त को ही सार्वजनिक रूप से झूठा साबित करते हुए. उन्होंने दावा किया कि दुलत ने कश्मीर की घटनाओं में अपने रोल को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है और यह भी कहा कि उन्होंने कभी दुलत से किसी मुद्दे पर सलाह नहीं ली.

मुझे नहीं पता कि यह सब कहां जाकर खत्म होगा. सोशल मीडिया पर अधिकतर विवाद कुछ ही दिनों में थम जाते हैं, खासकर जब उनके केंद्र में कोई सच्चाई न हो. लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा अगर यह बनाई हुई कंट्रोवर्सी उस किताब से ध्यान हटा दे, जिसमें कई अहम बातें और जानकारियां हैं.

और मुझे दुलत के लिए बुरा लग रहा है, जिन्होंने अपने दोस्त की तारीफ में एक किताब लिखी—लेकिन उसी दोस्त ने उन्हें नकार दिया. वक्त बदलता है. पत्रकारिता आगे बढ़ती है, तथ्यों की जगह “वैकल्पिक सच्चाइयां” ले लेती हैं, और सोशल मीडिया अपनी खुद की नकली हकीकत गढ़ लेता है.

और बेचारे बूढ़े दुलत, जो अपने ज़माने के सबसे चतुर और बड़े जासूस माने जाते हैं, इस नए दौर से उलझे हुए दिखते हैं. जैसे जॉर्ज स्माइली साइबर वॉर को समझने की कोशिश कर रहा हो.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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