ईरान के शासन द्वारा हिजाब लागू करने की घटना ने एक बार फिर दुनियाभर में सुर्खियां बटोर ली हैं, हाल ही में एक फारसी महिला को विरोध के तौर पर सार्वजनिक रूप से लगभग निर्वस्त्र दिखाया गया है. कथित तौर पर हिजाब को अनुचित तरीके से पहनने के कारण हिरासत में ली गईं महसा अमिनी की मौत की यादें अभी भी दर्दनाक रूप से ताज़ा हैं.
यह काफी दुखद है कि 21वीं सदी में भी ईरान में महिलाएं व्यक्तिगत अधिकार के लिए संघर्ष कर रही हैं. ऐसा नहीं है कि ईरान के लोग बदलाव नहीं चाहते हैं, ईरान में दृष्टिकोण का विश्लेषण और मापन करने वाले समूह (GAMAAN) द्वारा 2020 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार — 72 प्रतिशत ईरानी अनिवार्य हिजाब कानून का विरोध करते हैं, जबकि 58 प्रतिशत ने कहा कि वे हिजाब में बिल्कुल भी यकीन नहीं करते हैं. हालांकि, ईरानी अधिकारी इसे राजनीति के चश्मे से अवज्ञा के रूप में देखते हैं.
वही पुराना तर्क
आइए स्पष्ट करें, ईरानी शासन एक सत्तावादी व्यवस्था की तरह काम करता है जहां सर्वोच्च नेता और उनके वफादार देश के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को मजबूती से नियंत्रित करते हैं. जैसा कि सत्तावादी शासन के साथ होता है, नेतृत्व के भीतर काफी खौफ मौजूद है कि कोई भी बदलाव, चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, सत्ता पर शासन की पकड़ को कमज़ोर कर सकता है. ऐसे धर्मतंत्रीय सत्तावादी शासन में, मामूली समायोजन को भी सिस्टम में कमज़ोरी की तरह देखा जा सकता है, जो एक मिसाल कायम करता है जो सुधार या बदलाव की आगे की मांगों को प्रेरित कर सकता है. इसलिए, ईरानी अधिकारियों के लिए हिजाब कानूनों में ढील देना न केवल उनके धार्मिक और वैचारिक रुख को कमज़ोर करेगा, बल्कि व्यापक स्वतंत्रता के लिए खुलेपन का संकेत भी देगा, जिससे शायद वह बचना चाहते हैं.
महिलाओं पर जबरन हिजाब पहनने का बचाव करने के लिए लंबे समय से शालीनता का इस्तेमाल किया जाता रहा है, यह दावा करते हुए कि यह महिलाओं को सार्वजनिक रूप से सुरक्षित रखता है. यह वही पुराना पितृसत्तात्मक तर्क है जो यह सुझाव देता है कि महिलाओं की सुरक्षा वास्तविक मुद्दे पर बात करने के बजाय उनके पहनावे पर निर्भर करती है: महिलाओं के प्रति समाज का रवैया. वास्तव में, यह पीड़िता को दोषी ठहराने का एक तरीका है जो महिलाओं को उनके खिलाफ अपराधों के लिए जिम्मेदार ठहराता है; महिलाओं को सुरक्षा के ‘योग्य’ होने के लिए अपने व्यवहार और कपड़ों में बदलाव करने चाहिए. यह दोषपूर्ण तर्क लिंग आधारित हिंसा के मूल कारणों को संबोधित करने में विफल रहता है और इसके बजाय महिलाओं पर इसे रोकने की जिम्मेदारी डाल देता है.
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‘उदारवादियों’ का तर्क
बतौर महिला कोई भी यह उम्मीद कर सकता है कि उदारवादी उसके चुनाव के अधिकार की रक्षा करने और कानूनी रूप से अनिवार्य ड्रेस कोड की निंदा करने में स्वाभाविक सहयोगी होंगे. हालांकि, टाइम्स नाउ पर एक बहस के दौरान, मैंने जो विचित्र तर्क देखे, उनसे मैं हैरान थी. मूल मुद्दे पर बात करने के बजाय वहां मौजूद लोगों ने ध्यान भटकाया या अनावश्यक बहस में लगे रहे, महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर वास्तविक बातचीत को दरकिनार कर दिया. उनमें से कुछ जिन्होंने कक्षाओं में लड़कियों के बुर्का और हिजाब पहनने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी, उन्होंने तर्क दिया कि ईरानी कानून शरिया पर आधारित हैं. मानो महिलाओं के चुनने के अधिकार को छीनना ठीक है. कई लोगों ने कहा कि सार्वजनिक रूप से कपड़े उतारना अभद्रता है और भारत में भी यह अस्वीकार्य होगा, इस तथ्य की अनदेखी करते हुए कि यह लागू किए गए हिजाब के खिलाफ अवज्ञा के रूप में किया गया था.
जब लोग तर्क देते हैं कि हिजाब एक विकल्प है, लेकिन अधिकारियों द्वारा इसके लागू किए जाने की निंदा करने में विफल रहते हैं, तो यह उनके पाखंड को दिखाता है. उनकी चिंता एक महिला के चुनने के अधिकार का समर्थन करने के बजाय विशिष्ट कपड़ों का बचाव करने में लगती है. ‘पसंद’ सिर्फ एक सुविधाजनक तर्क है, न कि सिद्धांत के प्रति वास्तविक प्रतिबद्धता.
एक और सवाल: भारतीय स्कूलों/कॉलेजों में हिजाब और बुर्का पर प्रतिबंध लगाने के बारे में क्या? जबकि भारत ने कभी भी महिलाओं के लिए किसी विशेष पोशाक पर राष्ट्रीय प्रतिबंध नहीं लगाया है, संस्थानों और कॉलेजों के अपने स्वयं के दिशानिर्देश या वर्दी हो सकते हैं. इस तरह की व्हाटअबाउटरी इस मुद्दे पर चर्चा करते समय अप्रासंगिक और अनावश्यक दोनों है, क्योंकि यह मूल विषय से ध्यान भटकाती है.
गेटकीपिंग समर्थन
सबसे खास बात यह रही कि कुछ उदारवादी मुसलमानों ने हिजाब के लागू होने के खिलाफ ईरानी महिलाओं के विरोध को लेकर सोशल मीडिया पर गुस्सा दिखाया. उनका गुस्सा क्रूर कानून लागू होने के खिलाफ नहीं बल्कि नैतिकता पुलिस के चित्रण में कथित ‘इस्लामोफोबिया’ पर था. बेतुकापन तब और बढ़ गया जब हिजाब के खिलाफ विरोध करने वाली महिलाओं को नैतिकता पुलिस की ‘बहनें’ कहा गया. इतना ही नहीं, कुछ लोगों को ईरानी महिलाओं का समर्थन करने वाले लोगों से भी परेशानी थी. तर्क था कि अगर आप दुनिया के किसी भी हिस्से में मुस्लिम महिलाओं से सहमत नहीं हैं या उनके साथ एकजुटता नहीं दिखाते हैं, तो आपको ईरानी महिलाओं के लिए बोलने का कोई अधिकार नहीं है.
एक तरफ पितृसत्तात्मक समाज और सत्तावादी ताकतों के खिलाफ लड़ाई है; दूसरी तरफ तथाकथित उदारवादी मुस्लिम महिलाएं हैं जिन्हें बुनियादी मानवाधिकारों, स्वायत्तता और चुनने की स्वतंत्रता की लड़ाई में सहयोगी माना जाता था, लेकिन दुख की बात है कि इस बातचीत को कमज़ोर करने या फिर से दिशा देने की कोशिशें — चाहे वह व्हाटअबाउटरी के ज़रिए हो, इस्लामोफोबिया के आरोपों के ज़रिए हो या फिर गेटकीपिंग के ज़रिए हो जो एकजुटता में खड़े हो सकते हैं — मूल मुद्दे से ध्यान हटाने का काम करती हैं: महिलाओं का उत्पीड़न के बिना जीने का अधिकार. मूल रूप से, यह बहस सिर्फ हिजाब के बारे में नहीं है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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