भारत सरकार द्वारा गरीब सवर्ण आरक्षण बिल की मंजूरी और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति में संस्थान के आधार पर आरक्षण समाप्त किए जाने के बाद पूरे देश में आरक्षण व्यवस्था पर बहस छिड़ी हुई है. चूंकि भारतीय समाज जातियों में बंटा हुआ है, अतः हर जाति समुदाय दूसरे जाति समुदाय को शक की निगाह से देख रहा है. मनमुटाव बहुत नीचे तक पहुंच चुका है.
चूंकि आरक्षण का लाभ सिर्फ सरकारी संस्थानों में मिलता है, जिससे लगता है कि सरकारी नौकरी की लालसा खत्म कर देनी चाहिए. यह आरक्षण के नाम पर गालियां और अपनों के बीच बढ़ती खाइयों को देखकर लगता है. लेकिन आरक्षण की वजह तो जाति-व्यवस्था है, जो समाज में ही जहर की तरह घुला हुआ है. आरक्षण नहीं रहेगा, तो भी जाति तो रहेगी ही. फिर, समाज से अलग कहां भागा जाए?
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सरकारी से निकलकर निजी क्षेत्र में जाने के बारे में सोचते ही और डर समा जाता है. इसका भी कारण एक ही है – निजी क्षेत्र के प्रति भय की ये भावना यूं ही नहीं उपजी है. इसके कुछ कारण हैं, जिसे नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं.
साहित्य की दुनिया में जाति-व्यवस्था
हिंदी साहित्य जगत में फणीश्वरनाथ रेणु की अनदेखी सब जानते हैं. रेणु को जितना सम्मान मिलना चाहिए था, उन्हें नहीं मिल सका. संयोग नहीं कि वे गैर-सवर्ण जाति से आते थे. इसका उल्लेख खुल कर आज भी नहीं होता कि आखिर क्यों रेणु जैसे बड़े रचनाकार जीवन भर उपेक्षा के शिकार क्यों रहे. राजकमल चौधरी रचनावली के संपादक प्रो. देवशंकर नवीन बताते हैं कि जब उन्होंने अपने शोध-निर्देशक कवि केदारनाथ सिंह से पूछा कि उन्होंने कहानियां क्यों नहीं लिखीं तो जवाब में केदारनाथ सिंह ने कहा था कि जब तक वे कहानी लिखने की सोचते उसके पहले ही रेणु जैसे महान रचनाकर हो चुके थे, जिससे उन्हें लगा कि वे रेणु की उंचाई को कभी नहीं छू पाएंगे. अतः, वे कविता ही लिखते रहे और उन्हें इसके लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया. विदित हो कि फणीश्वरनाथ रेणु को साहित्य अकादमी सम्मान नहीं मिला था.
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हालांकि कुछ सवर्ण साहित्यकारों की उपेक्षा भी हुई जिन्हें उचित सम्मान नहीं मिल सका. बिहार के राजकमल चौधरी ऐसे ही एक महान रचनाकार हैं. लेकिन गैर-सवर्ण साहित्यकारों में से किसी को भी कोई महत्वपूर्ण सम्मान आज तक नहीं मिला. दुःखद आश्चर्य है कि मोदी सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ जब साहित्यकारों ने अवार्ड वापसी की मुहीम चलाई तो यह सवर्ण साहित्यकारों द्वारा मोदी सरकार के खिलाफ खोला गया मोर्चा भर बनकर रह गया. आश्चर्य है कि हिंदी साहित्य में योगदान के लिए किसी भी गैर-सवर्ण को पुरस्कार नहीं मिला जिसे लौटाकर मोदी सरकार के खिलाफ गुस्सा ज़ाहिर किया जा सके.
यह सोचनीय है कि जिस हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनने के लिए आवाज़ें उठती रहती हैं, उसमें सिर्फ सवर्ण समुदाय के लोगों का वर्चस्व है. जिसके कारण हिंदी भाषा के नाम पर राष्ट्र की कल्पना सवर्णों के राष्ट्र की अवधारणा बनकर रह जाती है.
बॉलीवुड में जाति-व्यवस्था
हाल ही में ख़बर छपी कि मशहूर कॉमेडी कलाकार राजपाल यादव को बैंक लोन न चुका पाने के कारण जेल की सज़ा हुई है. कुछ दिन बाद ख़बर छपी कि वे जेल में भी कैदियों को हंसाकर लोटपोट कर रहे हैं. वे वहां भी मशहूर हो गए हैं. कैदी उन्हें बहुत चाहने लगे हैं. व्यक्तिगत रूप से मैं राजपाल यादव को एक महान कॉमेडी कलाकार मानता हूं. नये फिल्मों से लेकर पुराने फिल्मों तक राजपाल यादव जैसी कॉमेडी शायद ही कहीं दिखती है. वर्तमान समय में मुझे राजपाल यादव दक्षिण भारतीय फिल्मों के नागेश के टक्कर के लगते हैं.
राजपाल यादव की हर फिल्म की कॉमेडी भारत के सबसे दुःखी व्यक्ति को हंसा सकती है. लेकिन, आज वे जेल में हैं. क्यों? सिर्फ पांच करोड़ रुपए न चुका पाने के कारण? राजपाल यादव जैसे कलाकार के लिए क्या यह रकम इतनी बड़ी थी? या उनका पिछड़ी जाति से होने के कारण सीधे जेल भेज दिया गया? इसके कई गुना ज्यादा रकम का लोन हड़प जाने वाले विजय माल्या से लेकर नीरव मोदी और मेहुल चोक्सी एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए.
हाल ही में, विवादित फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर’ के निर्देशक विजय गुट्टे के पिता रत्नाकर गुट्टे पर फर्जी दस्तावेजों के हवाले से किसानी मद में 5400 करोड़ का लोन लेने का आरोप लगा था। जबकि उसके बेटे और उपर्युक्त फ़िल्म के निर्देशक विजय गुट्टे पर फर्जीवाड़ा कर 34 करोड़ का जीएसटी कर चुराने का आरोप लगा और उन्हें गिरफ्तार भी किया गया. इसके बावजूद, उन्हें प्रसिद्धि भी मिली और पैसा भी.
भारतीय फ़िल्मी जगत में जाति-भेदभाव पुराना है. दिव्या भारती की हत्या के बारे में ऐसे ही कयास लगाए जाते हैं. दिव्या भारती के बारे में आज भी धारणा है कि वे दलित समाज से थीं. उनकी हत्या या दुर्घटना को जितनी आसानी से भुला दिया गया, उससे उनके दलित होने का ही प्रमाण मिलता है.
हद तो तब हो गई जब शेखर कपूर ने फूलन देवी पर बायोपिक बनाई और फ़िल्म में मसाला डालने के लिहाज़ से वीभत्स बलात्कार का दृश्य डाल दिया. इस फिल्म का प्रीमियर शो फूलन देवी को दिखाया भी गया था. जिसपर आपत्ति जताते हुए फूलन देवी ने बलात्कार के दृश्यों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि पहली बार मेरा बलात्कार सामंतों ने किया और दूसरी बार अभिजात्य वर्ग ने. ज़ाहिर है भारत में सामंती और अभिजात्य वर्ग दोनों सवर्ण समाज से ही आते हैं. शेखर कपूर ने फूलन देवी के आपत्ति के बावजूद फिल्म को ज्यों का त्यों रहने दिया. फलतः, फूलन देवी का बलात्कार बार-बार हो रहा है.
जाति का सवाल या तो हिंदी फिल्में उठाती ही नहीं हैं और जब उठाती हैं तो लगान फिल्म के दलित चरित्र कचरा की तरह कचरा कर देती है. मणिकर्णिका फिल्म में झलकारी बाई के रोल को जिस तरह काटा गया, वह भी एक मिसाल है.
जातीय दुर्भावना के ऐसे प्रसंग गीतकार, कलाकार, फिल्मकार, निर्देशक इत्यादि से लेकर बॉलीवुड के हर क्षेत्र में हैं. संक्षेप में कहें तो बॉलीवुड की दुनिया कपूर से निकलकर खान पर खत्म हो जाती हैं. लेकिन जब कोई जातीय प्रभुता के सवालों को लेकर सामने आता है तो लोग उसे ही जातिवादी घोषित कर देते हैं.
भारत इतना उदार भी नहीं है कि अमेरिका की हॉलीवुड डायवर्सिटी रिपोर्ट की तरह सालाना बॉलीवुड डायवर्सिटी रिपोर्ट प्रकाशित करने का जिम्मा कोई यूनिवर्सिटी उठाए ताकि सामाजिक, लैंगिक विविधता के बारे में तथ्य सामने आ सकें.
उपर्युक्त उदाहरणों के मद्देनजर में सरकारी नौकरी से इतर पत्रकारिता, खेल और व्यापार इत्यादि क्षेत्रों के बारे में सोचता हूं. निष्कर्ष एक ही निकलता है कि भारत में जाति-व्यवस्था के दंश से बच पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हैं. हालांकि, अपवाद हर क्षेत्र में मौजूद हैं. लेकिन अपवादों ने आज तक कोई मुकम्मल दुनिया नहीं दी है.
अतः मैं चाहता हूं कि मेरे अन्दर भी आरक्षण के प्रति घृणा का भाव भरे. ठीक उसी तरह जैसे सवर्णों के अंदर आरक्षण को लेकर घृणा है. लेकिन वास्तविकता यह है कि निजी क्षेत्र में सवर्ण आरक्षण यानी जातिवाद का दलदल ज़्यादा भयावह है जिससे लड़ने के लिए कोई पुख्ता संवैधानिक आरक्षण नहीं है.
(लेखक जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं)
मार्मिक/शोधपरक/साहित्य एवं फिल्मी दुनिया की सच्चाई का अनावरण।प्रभावित/पीड़ित वर्ग को निराश न होकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना है।विषमताओं के आँधी-तूफान आते रहेंगे।