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Thursday, 19 December, 2024
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राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के बहाने जाट कैसे पटेंगे? एक हाथ से दो तरबूज क्यों कर उठेंगे

किसानों में छोटे और बड़े का विभाजन पैदा करके उन्हें जातीय अस्मिता की राजनीति में उलझाया जा रहा है. राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के जाट होने की याद दिलाकर उनके नाम पर विवि के शिलान्यास के पीछे यही राजनीति है, जिसका उद्देश्य है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुल जनसंख्या के 17 प्रतिशत से ज्यादा जाट किसानों को पटाना.

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जब से अलीगढ़ की जिला पंचायत ने उसका नाम बदलने का अपना सर्वसम्मत प्रस्ताव प्रदेश सरकार को भेजा है, लोग कहने लगे हैं कि कोई ठिकाना नहीं कि वह कब तक अलीगढ़ बना रह पायेगा और कब हरिगढ़ बना दिया जायेगा.

प्रदेश में भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार के नाम बदलने के पुराने पड़ चुके शौक का वैसे भी कुछ ठिकाना नहीं रहता कि वह कब चर्राने लग जाये. उसी के चलते फैजाबाद को अयोध्या में तो इलाहाबाद को प्रयागराज में बदला जा चुका है.

इस लिहाज से देखें तो गत मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अलीगढ़ आकर राजा महेन्द्र प्रताप सिंह विश्वविद्यालय और रक्षा गलियारे की चुनावी बताई जा रही आधारशिला रखने के बाद अलीगढ़ ने खैर ही मनाई होगी कि फिलहाल, वह अलीगढ़ बना रह गया और प्रधानमंत्री या उनके द्वारा बार-बार प्रशंसित मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उसे ‘हरिगढ़’ बनाने का एलान नहीं किया. हालांकि प्रदेश विधानसभा के चुनाव के मौसम में उनके लिए यह कोई कठिन काम न था. इस मौसम में वे कृषि कानूनों के मुद्दे पर नाराज जाटों को खुश करने के लिए स्वतंत्रता संघर्ष के क्रांतिकारी नायक राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को जाट बनाकर अपनी अस्मिता की राजनीति का मोहरा बना सकते हैं तो हिन्दुत्व के एजेंडे को धार देने के लिए अलीगढ़ को हरिगढ़ क्यों नहीं बना सकते?


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अलीगढ़ का ताला और पीएम का बचपन

लेकिन प्रधानमंत्री ने इसके उलट अलीगढ़ की जमकर तारीफ की और कहा कि वह अरसे से अपने तालों की मार्फत घरों व दुकानों की सुरक्षा करता आया है और अब रक्षा गलियारे की मार्फत देश की सुरक्षा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा. उन्होंने अपने बचपन का किस्सा सुनाकर यह सिद्ध करने की कोशिश भी की कि उनका अलीगढ़ से पुश्तैनी रिश्ता है. किस्से के अनुसार अलीगढ़ से एक मुस्लिम विक्रेता उनके गांव और आसपास के इलाकों में ताले बेचने जाते-जाते उनके पिता के दोस्त बन गये थे. अक्सर वे तालों की बिक्री से मिले पैसे लिये-लिये घूमने के बजाय पिता के पास रख देते और वापसी में ले लिया करते.

किस्सा सुनकर लोगों को प्रधानमंत्री के सुनाये कई और किस्से याद आ गये. खासकर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित विश्वभारती के शताब्दी समारोह में सुनाया गया किस्सा, जो गुरुदेव का गुजरात से रिश्ता जोड़ता था. किस्से के अनुसार गुरुदेव के बड़े भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर की नियुक्ति अहमदाबाद में हुई तो गुरुदेव उनसे मिलने वहां जाया करते थे और अपनी दो प्रसिद्ध कविताएं उन्होंने वहीं रची थीं. इतना ही नहीं, गुजरात की एक बेटी गुरुदेव के घर बहू बनकर भी आई थी. सत्येंद्रनाथ टैगोर की पत्नी ज्ञानेंद्री देवी ने अहमदाबाद में ही महिलाओं द्वारा साड़ी का पल्लू दायें के बजाय बाएं कंधे पर रखने का चलन शुरू किया था.

कई लोगों को 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में कही प्रधानमंत्री की वह बात भी याद आई कि वे मां गंगा के बेटे हैं और उसी मां के बुलावे पर वाराणसी आये हैं.

ऐसे किस्से कम से कम इस अर्थ में स्वागतयोग्य हैं कि वे रिश्ते तोड़ने की नहीं बल्कि जोड़ने की बात करते हैं. सो भी ऐसे कठिन समय में जब प्रधानमंत्री की जमात के जाये धार्मिक-साम्प्रदायिक उद्धेलनों के चलते ऐसे किस्से किस्से भर होकर रह जा रहे और वाकये बनने को तरस रहे हैं.

लेकिन इनके साथ यह एक ऐब भी जुड़ा है कि प्रधानमंत्री को ऐसे रिश्ते चुनाव के वक्त ही याद आते हैं और चुनाव दूर हों तो वे उन्हें निभाने को लेकर गम्भीर नहीं हो पाते. वे खुद से इस तरह के सवाल भी नहीं पूछते कि उनके बचपन में अलीगढ़ के गुजरात जाने वाले मुस्लिम ताला विक्रेता और उनके पिता के बीच परस्पर भरोसे और दोस्ती का जैसा रिश्ता था, क्या आज उनकी पार्टी की सरकारें वैसे रिश्तों को बढ़ाने की दिशा में कोई भूमिका निभा रही हैं? अगर नहीं तो क्यों? क्या यह उनका कर्तव्य नहीं हैं? इसीलिए कोरोना की पिछली लहर के दौरान उनकी लोकसभा सीट के क्षुब्ध लोगों ने यह पूछने से भी गुरेज नहीं किया कि गंगा मइया उन्हें सिर्फ इलेक्शन में ही क्यों बुलाती हैं, तब क्यों नहीं बुलातीं जब उनके पानी में लाशें उतरा रही होती हैं?


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जाटों के वोट बटोर सकेगी बीजेपी

उन पर यह आरोप भी पुराना है कि वे हमेशा चुनावी मोड में रहते हैं और अपने विरोधियों को बढ़त न लेने देने की कवायदों में कोई सीमा नहीं मानते. अलीगढ़ में मंगलवार को अपनी कवायदों से उन्होंने साफ कर दिया है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के गत चुनाव में करारी हार के बावजूद उनके चुनावी मोड पर कोई असर नहीं हुआ है.

यों, उनके विरोधी इसे दूसरी तरह से भी कह सकते हैं कि उन्होंने उस हार से कोई सबक नहीं सीखा है और उप्र में भी वैसा ही आक्रामक अभियान आरम्भ कर दिया है. फर्क बस इतना है कि पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी को सत्ता पानी थी, जबकि उप्र में बचानी है. इसकी राह इस मायने में दुरूह है कि अन्य कई राज्यों के विपरीत इस राज्य में वे मुख्यमंत्री बदले बिना मतदाताओं के पास जा रहे हैं और यह सवाल भविष्य के गर्भ में है कि रैलियों में उसकी धुंआधार तारीफ से उसकी सरकार के प्रति फैली ऐंटीइन्कम्बैंसी को वे कितना कम कर पायेंगे.

 

बहरहाल, जाति की राजनीति से परहेज का दावा करने वाली उनकी पार्टी ने इसके लिए प्रदेश में खुल्लमखुल्ला जाति व सम्प्रदाय की राजनीति आरम्भ कर दी है, जिसका उद्देश्य मतदाताओं को कोरोना कुप्रबंधन का हिसाब देने से बचना और कृषि कानूनों पर किसानों की नाराजगी को दूर करना या उसे संभालना है. किसानों की नाराजगी दूर करने का उसके पास सबसे सीधा रास्ता यह था कि उसकी सरकार उनसे बात कर कृषि कानूनों से जुड़ी चिन्ताओं का समाधान करती. लेकिन एक तो उसे और उसकी सरकारों को ऐसे सीधे रास्ते भाते नहीं हैं, दूसरे कृषि कानूनों में कोई बदलाव न करने की उनकी जिद इसके आड़े आ रही है. इसलिए किसानों में छोटे और बड़े का विभाजन पैदा करके उन्हें जातीय अस्मिता की राजनीति में उलझाया जा रहा है. राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के जाट होने की याद दिलाकर उनके नाम पर विवि के शिलान्यास के पीछे यही राजनीति है, जिसका उद्देश्य है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुल जनसंख्या के 17 प्रतिशत से ज्यादा जाट किसानों को पटाना. निस्संदेह, इसके पीछे गत पांच सितम्बर को मुजफ्फरनगर में हुई विशाल किसान महापंचायत का डर है, जिसमें जाटों की बड़ी भागीदारी देखी गयी थी.

इस सिलसिले में यह चालाकी गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में नौ से ज्यादा महीनों से चल रहे किसान आंदोलन का तो जिक्र तक नहीं किया, लेकिन चौधरी चरण सिंह और सर छोटूराम की राह पर चलने का आश्वासन देते नजर आये. कांग्रेस पर राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की उपेक्षा का आरोप जड़ने से भी नहीं चूके. सवाल है कि क्या यह चालाकी उनकी पार्टी जाटों के वोट बटोर सकेगी? जवाब को इस तथ्य से गुजरना होगा कि महेन्द्र प्रताप सिंह कभी जाति व धर्म के पचड़े में नहीं पड़े. वे महत्वाकांक्षारहित नेता, बेजोड़ शिक्षाविद और क्रांतिकारी थे. 1915 में उन्होंने अफगानिस्तान में भारत की पहली निर्वासित सरकार बनाई और खुद राष्ट्रपति बने तो मोहम्मद बरकतुल्लाह भोपाली को प्रधानमंत्री बनाया था.

ऐसे में कोई और न पूछे तो भी भाजपा को खुद से पूछना चाहिए कि राजा को अपनाकर जाटों को लुभाने और मतदाताओं को हिंदू-मुस्लिम धु्रवीकरण की शातिराना कोशिशों में फंसाने की कवायदें उसे एक साथ क्योंकर रास आयेंगी? उत्तर प्रदेश के अवध अंचल में पुरानी कहावत है कि एक हाथ से दो तरबूज नहीं उठा करते क्योंकि एक तो वे बहुत बड़े व भारी होते हैं, दूसरे चिकने भी और उनके मुकाबले मनुष्य के हाथ बेहद छोटे. तिस पर अभी बताते हैं कि राजा महेन्द्र प्रताप सिंह गांव के जाट भी भाजपा व उसकी सरकारों से नाराज ही चल रहे हैं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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