यदि आप यह नहीं मानते कि राजनीति अब पहले से कहीं अधिक वैश्विक हो गई है, तो जरा एक नजर डालें कि भारत और बाकी दुनिया में क्या हो रहा है. ब्रिटेन में अप्रवासन (इमीग्रेशन) एक बड़ा मुद्दा है. प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को चिंता है कि ब्रिटेन में प्रवेश करने वाले अप्रवासियों की संख्या को सीमित करने में उनकी सरकार की असमर्थता के कारण कंजर्वेटिव पार्टी का आधार खिसक जाएगा.
अमेरिका में, एक मुद्दा जिसे दक्षिणपंथी रिपब्लिकन कभी नहीं छोड़ेंगे वह भी अप्रवासन है. जब से डोनाल्ड ट्रम्प ने सीमा पर दीवार बनाने की कसम खाई है और मेक्सिको को इसकी कीमत चुकाने की बात कही है, तब से उनके समर्थक अप्रवासन को प्रमुख मुद्दा मानते रहे हैं. (बता दें कि ट्रम्प ने अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान ज्यादा दीवार नहीं बनाई, मेक्सिको ने इसके लिए भुगतान नहीं किया, और अप्रवासियों की बाढ़ जारी है.)
वर्षों तक, हमने सोचा कि ये पश्चिम की चिंताएं थीं. जब ब्रिटिश और अमेरिकी राजनेताओं द्वारा अप्रवासन पर हमले शुरू किए गए, तो हमें लगा कि हमें टारगेट किया गया. आख़िरकार, उपमहाद्वीप के अप्रवासी अक्सर ऐसे अभियानों का विषय होते थे, और डेविड कैमरन के शासन के तहत, ब्रिटेन ने वास्तव में अप्रवासियों को जहां से वे आए थे, वहां वापस जाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए निर्वासन वैन (Deportation Van) तैनात की थी.
लेकिन अब, यह सुनने में जितना अजीब लगता है, ऐसा लगता है कि अप्रवासन हमारे अपने आम चुनाव में एक प्रमुख मुद्दा हो सकता है. बेशक, हम यह स्वीकार नहीं करते कि हमारी बहस अप्रवासन के बारे में है. इसके बजाय, हम CAA (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के बारे में बात करते हैं. लेकिन इसके मूल में, बहस विभिन्न प्रकार के अप्रवासियों के बीच अंतर करने और दूसरों का स्वागत करते हुए कुछ को हतोत्साहित करने के बारे में है, जो कि सभी पश्चिमी बहसों के जैसा ही है.
अप्रवासन बनाम सीएए
हम जिन आप्रवासियों का स्वागत करते हैं और जिनका स्वागत नहीं करते है, उनके बीच धर्म के आधार पर अंतर करते हैं. पश्चिम में, वे नस्ल को आधार बनाते हैं. यही एकमात्र महत्वपूर्ण अंतर है. अन्यथा, यह नए तरीके से वही पुरानी दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ की लड़ाई है.
सीएए को हमारे पड़ोस में हिंदुओं की मदद करने के साधन के रूप में पेश किया गया है. अगर सीधे सीधे देखा जाए तो यह ठीक लगेगा. घोषित उद्देश्य इस प्रकार है: हिंदुओं और अन्य गैर-इस्लामिक धर्मों के लोगों को हमारे पड़ोस में भयावह भेदभाव का सामना करना पड़ता है. अफगानिस्तान में तालिबान खुलेआम हिंदुओं के साथ भेदभाव करता है. बांग्लादेश में कुछ हिंदुओं का कहना है कि उन्हें लगातार ऐसा महसूस कराया जा रहा है जैसे देश में उनका कोई स्थान नहीं है. पाकिस्तान में आए दिन हिंदुओं पर अत्याचार की खबरें आती रहती हैं.
ये लोग कहां जाएं? यदि दुनिया में सबसे बड़ी हिंदू आबादी वाले देश भारत भी उन्हें जगह नहीं देगा, तो यह सबसे अच्छे रूप में क्रूर उदासीनता और सबसे खराब रूप में असाधारण क्रूरता का काम होगा.
सीएए का उद्देश्य इन लोगों को भारतीय नागरिकता देना है ताकि वे भेदभाव से मुक्त होकर भारत में नया जीवन जी सकें.
जब आप इस तर्क को सुनेंगे तो सीएए के महत्त्व से इनकार करना मुश्किल होगा. लेकिन जैसा कि दुनिया में हर जगह हमेशा अप्रवासन संबंधी बहसों के साथ होता है समस्या इस बहस या चर्चा के बीच में कहीं छिपी है.
ब्रिटेन में, बहुत लंबे समय से, यह विषय नस्लवाद नहीं तो नस्ल ही रही है. 1950 के दशक में, अंग्रेजों ने भारतीयों, पाकिस्तानियों और पश्चिमी भारतीयों का स्वागत किया और उन्हें देश के ट्रेन, बस, अस्पताल और इसी तरह की अन्य बुनियादी ढांचे को चलाने के लिए नौकरियां दीं. 1960 के दशक तक, जैसे-जैसे अधिक से अधिक भूरे लोग पहले की लिली-सफ़ेद सड़कों पर दिखने लगे, तो इसके खिलाफ सार्वजनिक रूप से प्रतिक्रिया होनी शुरू हो गई. इसका नेतृत्व इनोक पॉवेल जैसे नस्लवादियों ने किया था, लेकिन यहां तक कि लेबर पार्टी, जिसने लंबे समय से अप्रवासन पर ऊपरी सीमा तय करने का विरोध किया था, उसने भी अपनी नीति बदल दी.
ब्रितानियों ने ब्रिटेन में काले और भूरे लोगों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का एक अनोखा ब्रिटिश तरीका खोजा, जबकि दक्षिण अफ़्रीकी, ऑस्ट्रेलियाई और अन्य श्वेत लोगों को ब्रिटेन में आने की अनुमति जारी रखी. उन्होंने ‘पितृसत्ता (Patrials)’ नामक एक श्रेणी का आविष्कार किया. यदि आपके दादा-दादी में से एक का भी जन्म ब्रिटेन में हुआ है, तो आपको यहां रहने का अधिकार है. चूंकि ब्रिटेन में नई जिंदगी की तलाश कर रहे अधिकांश असहाय पश्चिम भारतीय इस मानदंड पर खरे नहीं उतर सके, इसलिए उनके लिए दरवाज़े बंद कर दिए गए. हालांकि, ऑस्ट्रेलियाई, श्वेत दक्षिण अफ़्रीकी आदि को ऐसी कोई समस्या नहीं थी.
अमेरिका में, बहस नस्ल को लेकर रही है. डोनाल्ड ट्रम्प के लगभग सभी हमले हिस्पैनिक लोगों पर रहे हैं, जो मध्य और दक्षिण अमेरिका के लोगों पर (‘some bad hombres’ जैसा कि उन्होंने कहा था) जो अमेरिका में रहना चाहते हैं. लेकिन अमेरिका आने की इच्छा रखने वाले श्वेत लोगों को लेकर उन्हें बिल्कुल भी दिक्कत नहीं थी. वह मुसलमानों के भी ख़िलाफ़ हो गए और मांग की कि किसी भी मुसलमान को अमेरिका में प्रवेश की अनुमति न दी जाए. यह असंवैधानिक है, इसलिए जब ट्रम्प राष्ट्रपति बने, तो कुछ ऐसे देशों के लोगों पर प्रतिबंध लगा दिया गया जो मुस्लिम बहुल थे.
सीएए की मुख्य विशेषता
हमारे सीएए के साथ समस्या यह है कि कुछ कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार यह असंवैधानिक भी हो सकता है. हमारे गणतंत्र के संस्थापक सिद्धांतों में से एक हमेशा यह रहा है कि यह धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा. (लेकिन यह धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों की अनुमति देता है, इसलिए, यह जटिल है). दूसरी ओर, सीएए विशेष रूप से धर्म-केंद्रित है. इससे मुसलमानों को छोड़कर उपमहाद्वीप के सभी धर्मों के लोगों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करना आसान हो जाता है. यह न केवल भेदभावपूर्ण है, बल्कि इसका उद्देश्य भेदभावपूर्ण होना भी है. कानून का मूल आधार ही मुसलमानों को बाहर रखना है.
सीएए को सही बताने वालों का कहना है कि यह तर्कसंगत है: जिन लोगों की वह मदद करना चाहता है वे मुस्लिम-बहुल देशों में भेदभाव का शिकार रहे हैं और इसलिए वहां से भाग रहे हैं. इसलिए इस कानून में मुसलमानों को भी शामिल करना बेतुका है. और हां, यह सच है कि पड़ोस में गैर-मुसलमानों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
लेकिन फिर, मुसलमान भी ऐसा ही करते हैं. कभी-कभी यह उन लोगों की तरफ से होता है जो अन्य धर्मों का पालन करते हैं: म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान हैं जो भयानक उत्पीड़न का सामना करते हैं. और कुछ इस्लामिक देशों में अल्पसंख्यक मुस्लिम संप्रदायों पर भी अत्याचार किया जाता है. उन्हें शरण देने से इनकार क्यों? सिर्फ इसलिए कि वे मुसलमान हैं?
इसका बिल्कुल छोटा सा जवाब है- हां.
सीएए के दो एजेंडे हैं, एक बिल्कुल खुला और मानवतावादी है, दूसरा कम खुला लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण है. अधिकांश हिंदू और सिख यह स्वीकार करेंगे कि यदि उनके समुदाय के लोगों को अफगानिस्तान में सताया जा रहा है, तो भारत के लिए उन्हें एक नया घर देना सही है. इसलिए वह एजेंडा वास्तव में विवादास्पद नहीं है.
लेकिन एक और एजेंडा चल रहा है. भारत के कई हिस्सों में, खासकर बांग्लादेश जैसे मुस्लिम-बहुल देशों की सीमा वाले इलाकों में, इन देशों से (ज्यादातर अवैध) अप्रवासन को लेकर गुस्सा है. चूंकि बांग्लादेश में मुसलमानों के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं है, इसलिए प्रवासी आर्थिक अवसरों की तलाश में भारत आए हैं. (बल्कि उन भारतीयों की तरह जो यूके और यूएस में प्रवास कर गए हैं.)
सरकार जानती है कि जनता में नाराज़गी है (ज्यादातर हिंदुओं की ओर से) और इसलिए, जो कोई भी अवैध मुस्लिम प्रवासियों के खिलाफ कार्रवाई करता है (या कार्रवाई करता हुआ देखा जाता है) उसे राजनीतिक समर्थन मिलता है. निश्चित रूप से उन लोगों के लिए बहुत कम समर्थन है जो अन्य मुस्लिम प्रवासियों (जैसे, रोहिंग्या) को भारत में बसने की अनुमति देना चाहते हैं.
सीएए का विश्लेषण यह किया जाता है कि यह मुस्लिम प्रवासियों और पड़ोसी देशों के हिंदुओं के बीच अंतर करता है. यदि सरकार मुसलमानों को शामिल करने के लिए अधिनियम का दायरा बढ़ाती है, तो सीएए राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय हो जाता है और इसलिए, निरर्थक हो जाता है. इसलिए सीएए के प्रावधानों से मुसलमानों को खुलेआम बाहर रखा गया है.
क्या इसे और अधिक चतुराई से किया जा सकता था? आख़िरकार, अंग्रेजों ने भूरे और काले लोगों को बाहर रखने के उद्देश्य से नस्लवादी अप्रवासन और नागरिकता अधिनियम सफलतापूर्वक पारित किया. इसने राष्ट्रमंडल नागरिकों (ज्यादातर भूरे लोगों) के लिए फ्री एंट्री के सिद्धांत को त्याग दिया, जबकि यूरोपीय संघ के नागरिकों (ज्यादातर सफेद) को फ्री एंट्री की अनुमति दी. लेकिन यह इतनी चालाकी से किया गया कि इसे इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकी कि यह नस्लवादी है.
क्या भाजपा सरकार सीएए के साथ भी ऐसा ही कर सकती थी?
मुझे इस बात में संदेह है. जब तक यह अधिनियम विशेष रूप से मुसलमानों को बाहर नहीं करता, यह अपने राजनीतिक उद्देश्य को पूरा नहीं करता है. और फिर भी, ऐसे बहिष्करण गंभीर संवैधानिक प्रश्न खड़े करते हैं. इसलिए इस पर कानूनी लड़ाई होगी. किसी निष्कर्ष पर पहुंचने तक इसे लेकर महीनों तक लड़ाई लड़नी होगी.
हालांकि, तब तक लोकसभा चुनाव ख़त्म हो जाएगा. और बीजेपी सियासी जंग जीत चुकी होगी.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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