महाराष्ट्र में विदर्भ क्षेत्र के बुलढाना जिले से करीब 70 किलोमीटर दूर एक स्कूल में ऐसे शिक्षक हैं जो लड़कियों के साथ किए जाने वाले भेदभाव को तो पाट ही रहे हैं, लड़के और लड़कियों के बीच मौजूद दूरी और झिझक को भी मिटा रहे हैं.
यही वजह है कि यहां की ज्यादातर लड़कियां न सिर्फ पढ़ाई, खेलकूद और अपनी भावनाओं को लड़कों के साथ अच्छी तरह से साझा कर रही हैं, बल्कि वे कई गतिविधियों में भाग लेकर अपनी नेतृव्य क्षमता को भी सिद्ध कर रही हैं. पर, आज से दो वर्ष पहले ऐसी स्थिति नहीं थी. यह इस स्कूल में पिछले दो वर्षों से एक विशेष कार्यक्रम के तहत किए जा रहे प्रयासों का नतीजा है कि बच्चे तो बच्चे पूरे गांव के लोगों का लड़कियों के प्रति नजरिया धीरे-धीरे बदल रहा है.
बात हो रही है हिंगण कारेगांव के जिला परिषद मराठी उच्च प्राथमिक स्कूल की. बता दें कि करीब ढाई हजार की आबादी के इस गांव में अधिकतर बौद्ध और राजपूत समुदाय के परिवार हैं. खेती और मजदूरी इनकी रोजीरोटी का मुख्य जरिया है. वहीं, वर्ष 1873 स्थापित यानी सवा सौ साल पुराने इस स्कूल में प्रधानाध्यापक सहित कुल छह शिक्षक हैं. यहां कुल 157 बच्चों में 79 लड़कियां और 75 लड़के हैं. गांव में भी लड़कियों की संख्या लड़कियों से ज्यादा बताई जा रही है.
लड़कियां अब समूहों में बैठती हैं
शिक्षक राजेश कोगदे बताते हैं, ‘स्कूल में पहले सफाई और रंगोली बनाने से संबंधित काम अक्सर लड़कियां ही करती थीं. लेकिन, अब बहुत सारे लड़के भी ऐसे काम करने में रुचि दिखा रहे हैं. पहले कक्षा की बैठक व्यवस्था में लड़कियां अक्सर पीछे और लड़कों से अलग बैठती थीं. पर, अब वे लड़कों के साथ समूहों में बैठती हैं. बच्चों के ये समूह हर दिन बदलते रहते हैं. साथ ही, उनके बैठने की जगह भी बदल जाती हैं.’इससे सभी लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के बारे में अच्छी तरह जान और समझ रहे हैं और उन्हें आपस में अच्छी तरह से घुलने-मिलने का मौका मिल रहा है.
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लड़के और लड़कियों के बीच मिट रहे अंतर का एक नजारा दोपहर के अवकाश के समय तब दिखता है, जब वे साथ-साथ बैठकर अपना-अपना भोजन आपस में बांटते हैं. इसी तरह, स्कूल के आखिरी सत्र में कई लड़के लड़कियों के समझे जाने वाले खेलों में शामिल होते हैं, वहीं कई लड़कियां भी लड़कों के समझे जाने वाले खेलों में शामिल होती हैं.
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इसलिए आ रही समानता
इस परिवर्तन के बारे में प्रधानाध्यापक श्रीकांत वानखडे बताते हैं कि शिक्षक राजेश ने ‘मूल्यवर्धन’ नाम से पिछले दो वर्षों से कई विशेष सत्र आयोजित कर रहे हैं. इसकी वजह से लड़के और लड़कियों के बीच का अंतर सिर्फ एक समुदाय विशेष के बच्चों में ही कम नहीं हो रहा है, बल्कि सारे समुदाय के लड़के और लड़कियों के बीच के संबंध पहले से अधिक सहज हो रहे हैं. यहां बौद्ध और राजपूत समुदाय के लड़के और लड़कियों के बीच की आपसी दूरी और झिझक कम हो रही हैं.
यहां के अन्य शिक्षक चर्चा में बताते हैं कि दो वर्ष पहले लड़कियां पढ़ाई के अलावा स्कूल में आयोजित कई कार्यक्रमों में अक्सर पीछे रहती थीं. गांव वालों के साथ किए जाने वाले कुछ कार्यक्रमों में जब मुख्य अतिथियों के स्वागत की बात आती थी तो भी ज्यादातर लड़के ही आगे रहते थे. लड़कियों को लगता था कि यह उनका काम नहीं है. इसी तरह की कुछ अन्य गतिविधियों में भी लड़कियों की भागीदारिता न के बराबर रहती थी. वे अपनेआप को अभिव्यक्त करने से डरती थीं. वहीं, लड़के भी अक्सर उनसे दूरी बनाकर रहते थे और उनकी मदद नहीं करते थे. इसलिए, इस दृष्टि से पूरे स्कूल में एक गैर-बराबरी का माहौल साफ नजर आता था.
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राजेश बताते हैं कि उन्होंने मूल्यवर्धन के सत्रों में अपनाई जाने वाली शिक्षण की नवीन पद्धति और कई गतिविधियों को लैंगिक भेदभाव मिटाने के उद्देश्य से तैयार की थीं. बच्चे मूल्यवर्धन शिक्षण और इससे जुड़ी गतिविधियों का पिछले दो वर्षों से लगातार अभ्यास कर रहे हैं. इससे ज्यादातर बच्चों के व्यवहार में काफी बदलाव आता दिख रहा है. अब यहां के बच्चे जोड़ी, समूह या गोलाकार बैठकर चर्चा करने लगे हैं और फिर इस चर्चा के दौरान इस भावना को महसूस कर रहे हैं कि लड़के और लड़कियों की सोच, समझ, कामकाज, खेलकूद और पढ़ाई लिखाई में जब कोई फर्क नहीं है तो वे आपस में एक-दूसरे के साथ अलग तरह का बर्ताव क्यों करें.
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कक्षा चौथी की पायल जाधव बताती है कि अब बहुत सारे काम सारे बच्चे मिलकर पूरा करते हैं. ‘इससे हर काम अच्छी तरह से और जल्दी होता है. जैसे सुबह कक्षा की सफाई करनी हो, या दरवाजे के पास रंगोली बनानी हो, या आसपास की बिखरी चीजों को सही जगह पर रखना हो, तो लड़के भी हमारी मदद करने लगे हैं.’
दरअसल, बच्चों में आपसी तालमेल की यह आदत उनके द्वारा मूल्यवर्धन के सत्रों में जोड़ियां या समूह बनाकर की जाने वाली चर्चा से विकसित हो रही है. शिक्षक अनंत होगे के अनुसार जोड़ियां और समूह बनाकर किसी विषय के बारे में जानने या कोई कार्य करने से लड़कियों को भी लड़कों की तरह अपना मत रखने का मौका मिलने लगा है. इसलिए, वे कई मुद्दों पर खुद को अच्छी तरह से अभिव्यक्त करने लगी हैं. इससे उनमें धीरे-धीरे आत्मविश्वास बढ़ रहा है. साथ ही, बच्चों में समानता की भावना बढ़ रही है.
राजेश मूल्यवर्धन के सत्र के दौरान की एक घटना बताते हैं. वे कहते हैं कि एक बार सहयोगी खेल खेलने से पहले कुछ लड़कियां लड़कों का हाथ पकड़ने से झिझक रही थीं. उसके बाद उन्होंने मूल्यवर्धन के सत्र में एक चर्चा आयोजित कराई.
इस चर्चा में कुछ लड़कियों ने माना कि किसी खेल, पढ़ाई या काम में हम तभी आगे रह सकती हैं जब हमारे भीतर की झिझक दूर होगी. कक्षा चौथी की कल्याणी जाधव के मुताबिक, ‘मैंने कई सहेलियों की झिझक दूर करने के लिए लड़कों के साथ खेलने के लिए कहा था.’
बदल रही परिजनों की सोच
लेकिन, लड़के और लड़कियों के बीच की दूरी को पाटना इतना आसान नहीं था. वजह, विशेष तौर से लड़कियों के परिजनों को जब इस बारे में मालूम हुआ तो उन्होंने स्कूल में आकर आपत्ति जताई. राजेश कहते हैं कि कुछ गांव वालों ने स्कूल के खुले मैदान में जब सहयोगी खेलों में लड़के और लड़कियों को साथ-साथ खेलते देखा तो उन्हें हैरानी हुई. एक बुजुर्ग ने आकर कहा कि आप उन्हें अलग-अलग क्यों नहीं पढ़ाते और खिलाते.
राजेश के मुताबिक तब उन्होंने उस बुजुर्ग को बताया कि इसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं है. लड़के लड़कियों को परेशान नहीं कर रहे. यदि किसी लड़की को दिक्कत होती तो वह मना करती. पर, ज्यादातर लड़कियां अपनी मर्जी से ऐसी गतिविधियों में शामिल हो रही हैं. इससे वे पहले से ज्यादा अच्छी तरह सीख और समझ पा रही हैं. राजेश ने बुजुर्ग को यह आश्वासन भी दिया कि इस तरह की गतिविधियों के कारण कभी विवाद की स्थिति बनी भी या किसी लड़की ने आपत्ति जताई तो वे स्कूल के स्तर पर ही उसे हल करने के लिए लड़कियों की भी राय लेंगे और आगे की योजना तय करेंगे. स्कूल की लड़कियां उनके परिवार की सदस्यों की तरह हैं.
एक ग्रामीण पदमाकर जाधव बताते हैं कि कई लड़कियां पहले से ज्यादा पढ़ाई करने लगी हैं. ये लड़कियां पहले से ज्यादा शिष्ट बन रही हैं. इसलिए, उनके व्यवहार में आ रहे इस बदलाव से उनके परिजनों की सोच बदल रही है. फिर, स्कूल के कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में लड़कियां बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. कुछ लड़कियां स्वागत समारोह तो कुछ मंच संचालन का काम भी अच्छी तरह संभाल रही हैं. कई बार वे ऐसे कार्यक्रमों में लड़कों से बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं.
मूल्यवर्धन के सत्र में कुछ गतिविधियां ऐसी होती हैं जिसमें शिक्षक अक्सर गृह-कार्य के जरिए बच्चों और उनके परिजनों को स्कूल से जोड़ते हैं. एक अन्य ग्रामीण परमेश्वर पटोले बताते हैं कि आमतौर पर लड़कियां स्कूल से लौटकर घर में खुद बताती कि आज उन्होंने स्कूल में क्या-क्या किया. जब उन्हें स्कूल से जुड़ी कई सूचनाएं मिलती हैं तो उनका अपने बच्चों पर भरोसा बढ़ जाता है.
राजेश बताते हैं कि लड़के और लड़कियों के बीच के अंतर को कम करने में उन्हें खास परेशानी नहीं आई. ऐसा इसलिए कि उन्होंने मूल्यवर्धन की अधिक से अधिक गतिविधियां कराईं और लड़के-लड़कियों को जोड़ियों व समूहों में साथ रहने और चर्चा करने का मौका दिया. इससे ज्यादातर लड़के और लड़कियां आपस में एक-दूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा व्यस्त रहने लगे.
दूसरी तरफ, स्कूल प्रबंधन ने समय-समय पर बच्चों के परिजनों के साथ बैठकें कीं और इसमें कई बार इस तरह की गतिविधियों और इसके पीछे के उद्देश्य के बारे में चर्चा करके उनके संशय दूर किए.
शिक्षक का भी बदला मन
राजेश कहते हैं कि मूल्यवर्धन के कारण लैंगिक मुद्दे पर आ रहे इस बदलाव ने उनकी सोच भी बदल दी है. वे कहते हैं, ‘पहले मेरी सोच थी कि लड़के और लड़कियों के बीच का अंतर कम नहीं हो सकता. लेकिन, मूल्यवर्धन की गतिविधियों को कराते हुए हमारे भीतर यह सोच विकसित होती गई कि किसी भी कार्य में सफलता हासिल करनी है तो पूरी कक्षा या स्कूल का योगदान चाहिए. ऐसे में यदि लड़कियां सक्रिय योगदान नहीं दे सकीं तो स्कूल में पढ़ाई की गुणवत्ता का स्तर एक हद तक ही सुधारा जा सकता है, एक व्यापक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है. वजह, यहां लड़कियों की संख्या लड़कों से ज्यादा है.’
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स्पष्ट है कि ज्यादातर लड़कियों को हर तरह की गतिविधियों में शामिल किए बगैर पूरे स्कूल में एक बड़ा परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है. इस बात को समझते हुए शिक्षक ने जाना कि यदि मूल्यवर्धन के कारण ज्यादातर लड़कियों के व्यवहार में समानता का मूल्य आत्मसात हुआ तो वे अपने समुदाय और परिवार में भी अन्य लड़कियों या महिलाओं के महत्त्व को समझेंगी.
वहीं, कई लड़के और लड़कियां उनके बीच में किए जाने वाले भेदभाव के बारे में ज्यादा तो नहीं बता पाते, पर वे अपने आचरण से इस तरह के परिवर्तन को प्रदर्शित जरुर कर रहे हैं.
क्या लड़कियां भी आपकी दोस्त हो सकती हैं? इस बारे में कक्षा चौथी का शुभम जाधव कहता है, ‘हम सब एक समान हैं. लड़कियां हमारी दोस्त नहीं हो सकतीं, हम ऐसा सोचते ही नहीं हैं!’
(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं.)