बांग्लादेश में अवामी लीग की लगातार चौथी बार शानदार जीत- और इसकी नेता शेख हसीना के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने- से विकास कार्यक्रमों और चतुराई भरी राजनीति के बीच संतुलन बनाने की उनकी क्षमता पर पक्की मुहर लग गई है. भारत को अपनी स्थिति मज़बूत बनाने और बांग्लादेश की राजनीतिक स्थिरता को अपने हित में इस्तेमाल करने में कोई देरी नहीं करनी चाहिए.
71-वर्षीया शेख हसीना का बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार निर्वाचन शानदार जीत के साथ-साथ भारी चुनावी धांधलियों और विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं को धमकाए जाने के आरोपों और व्यापक हिंसा के बीच हुआ है.
पिछले संसदीय चुनाव के विपरीत विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने इस बार चुनावी प्रक्रिया में भाग लिया. पर उसे मुंह की खानी पड़ी और उसके खाते में 20 से भी कम सीटें आईं. बीएनपी प्रवक्ताओं ने आरोप लगाया है कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान पार्टी के अनेक उम्मीदवारों को झूठे आरोपों में गिरफ़्तार कर लिया गया, जबकि उनकी नेता खालिदा ज़िया को भ्रष्टाचार के आरोपों में 17 वर्षों की क़ैद की सज़ा दे दी गई.
शेख हसीना सरकार पर अत्यंत दमनकारी होने और सख़्ती से विपक्ष को दबाने का आरोप लगाया जाता रहा है.
सरकार ने, घोषित रूप से आतंकवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए, एक सोशल मीडिया निगरानी परियोजना पर कथित रूप से 13.9 मिलियन डॉलर खर्च किए हैं, पर यह वास्तव में सरकार-विरोधी आवाज़ों पर नियंत्रण का एक ज़रिया साबित हुआ है.
इसी तरह सरकार ने 2004 में बढ़ते इस्लामी कट्टरपंथ और आईएसआई की संदिग्ध गतिविधियों के मुक़ाबले के लिए रैपिड एक्शन बटालियन (आरएबी) का गठन किया था. शुरुआती वर्षों में तो आरएबी को आतंकवादियों के संदिग्ध गुप्त समूहों और कट्टरपंथी इस्लामी कार्यकर्ताओं को निष्क्रिय बनाने में सफलता हाथ लगी. पर धीरे-धीरे, आरएबी खुद में एक ताक़त बन गई और इसने मौत के दस्ते की तरह काम करते हुए एक नैतिक और धार्मिक पुलिस का रूप धर लिया. ख़ास कर ग्रामीण इलाक़ों में कथित रूप से इसने अनेक बीएनपी नेताओं को अपने घर-दफ़्तर छोड़कर भागने को बाध्य कर दिया.
विपक्षी नेता डिजिटल सिक्यूरिटी ऐक्ट में गड़बड़ियों की ओर भी इशारा करते हैं. इस क़ानून का इस्तेमाल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने के लिए किया गया, जबकि सरकार ने असामाजिक तत्वों द्वारा सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर रोक लगाने के लिए इस क़ानून को लाने का दावा किया था.
इस चुनाव में यूरोपीय संघ ने अपने चुनाव पर्यवेक्षक नहीं भेजने का फैसला किया. हालांकि इसके पीछे मुख्य कारण बजटीय सीमाओं को बताया गया, पर कहा जाता है कि असली कारण थी पर्यवेक्षकों की सुरक्षा को लेकर चिंता.
परंतु अब चुनावों के बाद, यूरोपीय संघ के एक प्रवक्ता ने कहा है कि सभी पक्षों के लिए समान अवसर की राह में महत्वपूर्ण अवरोध थे, जिससे चुनाव प्रक्रिया और मतदान की निष्पक्षता सवालों के घेरे में आ गई है.
यूरोपीय संघ के अलावा अमेरिका और ब्रिटेन ने भी धांधलियों के आरोपों और मतदान से पूर्व व्यापक हिंसा के मामलों की स्वतंत्र जांच कराए जाने की मांग की है.
हालांकि 1971 के मुक्ति युद्ध की संस्थागत यादें ढाका और नई दिल्ली में बरकरार हैं, पर दोनों ही देशों में एक नई पीढ़ी सामने आ चुकी है जो 1971 और शेख मुजीबुर्रहमान की 1975 में हुई हत्या जैसी घटनाओं से कहीं आगे की सोचती है.
भारत के हित में
बांग्लादेश में एक मज़बूत राजनीतिक ताक़त का होना भारत के लिए बढ़िया है, ख़ास कर जब इसकी कमान एक ऐसी व्यक्ति के हाथों में हो जो आतंकवाद के मुक़ाबले के लिए और उग्रवाद एवं सीमा पार नापाक गतिविधियों के मुद्दों पर भारत से सहयोग के लिए प्रतिबद्ध है.
2001 से 2006 के बीच बीएनपी शासन के दौरान उग्रवाद के खतरों का सामना करने के लिए भारत की आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों को अतिरिक्त प्रयास करने पड़े थे. ढाका में शेख हसीना की अवामी लीग के सत्ता में रहते बांग्लादेश सीमा अपेक्षाकृत शांत और सुरक्षित है. इस बीच, कहा जाता है कि बीएनपी नेतृत्व का एक धड़ा इस्लामी कट्टरपंथी तत्वों से दूरी बना चुका है, पर हमारी एजेंसियों की नज़रों में अब भी संदेहास्पद है. इसने शेख हसीना को अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी खालिदा ज़िया पर आवश्यक चुनावी बढ़त दे दी.
पर उन्हें सत्ता में बनाए रखने के प्रयास में- सीमा पर सुरक्षा के हित में- भारत को अपने पूर्वी सहयोगी देश में, और पश्चिम में ग्वादर के अलावा हिंद महासागार के पूर्वी प्रवेश द्वार पर भी, चीन के बढ़ते असर का सामना है. बांग्लादेश चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ परियोजना का हिस्सा है, और उसने चटगांव-कुनमिंग सड़क संपर्क जैसी नई परियोजनाओं के लिए भी चीन से मदद मांगी है.
द्विपक्षीय समझौतों के अलावा, चीन 9.45 अरब डॉलर की लागत से बांग्लादेश को आठ परियोजनाएं दे रहा है. इनमें पद्मा नदी पुल, पायरा बिजली संयंत्र और चटगांव में खुले समुद्र वाली आर्थिक परियोजनाएं शामिल हैं.
1999 की कुनमिंग पहलकदमी, जिसे बाद में चीन-बांग्लादेश-भारत-म्यांमार आर्थिक गलियारे का रूप दे दिया गया था, अब ‘वन बेल्ट वन रोड’ और चीन की आर्थिक सहायता से संबद्ध बड़ी परियोजनाओं के मुक़ाबले उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह गई है. चीन द्वारा बांग्लादेश को दो मिंग-क्लास पनडुब्बी बेचे जाने तथा सामरिक साझेदारी के तहत अन्य सैनिक सहयोगों के कारण दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंधों में एक सैन्य पहलू जुड़ गया है.
पीछे छूट जाने की आशंका में भारत ने 2010 से 2014 के बीच आसान शर्तों पर बांग्लादेश को एक अरब डॉलर का ऋण दिया, और 2017 में मोदी सरकार ने 5 अरब डॉलर की सहायता की घोषणा की जिनमें से 500 मिलियन डॉलर रक्षा उपकरणों की खरीद पर खर्च किए जाएंगे.
क्षेत्र में शक्ति संतुलन के लिए जारी प्रतिस्पर्द्धा में भारत बांग्लादेश में अपनी रणनीतिक ज़मीन गंवाने की ज़ोखिम मोल नहीं ले सकता, जहां वह चीन से सीधे मुक़ाबले में है, और सहयोग पर बातचीत कर रहा है.
श्रीलंका की तरह ही बांग्लादेश के भू-सामरिक महत्व के मद्देनज़र भारत के लिए ज़रूरत चुनौतियों को अवसरों में बदलने की, तथा वाणिज्य, सुरक्षा और सामरिक क्षेत्रों में व्यापक पहलकदमियों के ज़रिए अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की है.
हिंद महासागर का द्वार होने के अलावा बांग्लादेश प्रधानमंत्री मोदी की ‘लुक ईस्ट, एक्ट ईस्ट’ नीति की सफलता की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है.
(लेखक ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं.)