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Saturday, 21 December, 2024
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भारत के दक्षिणी राज्यों में लगभग 10 लाख महिलाओं ने कैसे बंद किया बीड़ी बनाना

हाल की एक स्टडी में पता चला है कि बीड़ी उद्योग में लगे लोगों की संख्या में जिसमें महिलाएं अधिक हैं, राष्ट्रीय स्तर पर इज़ाफा हुआ है लेकिन दक्षिणी सूबों में इसमें गिरावट दर्ज की गई है.

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ऐसे समय में, जब भारत में बहस चल रही है कि महिला मज़दूरों पर बीड़ी उद्योग के बोझ को कैसे कम किया जाए, देश के दक्षिणी सूबे इसका एक खाका पेश कर रहे हैं. 1993 से 2018 के बीच, भारत में बीड़ी मज़दूरों की संख्या में, कुल मिलाकर 21 लाख का इज़ाफा हुआ है लेकिन दूसरी तरफ एक अच्छी खासी गिरावट भी देखी गई. दक्षिणी सूबों- तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश-तेलंगाना और कर्नाटक में, बीड़ी मज़दूरों की संख्या में, जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं, लगभग दस लाख की कमी आई है.

ये बदलाव हाल की एक स्टडी में प्रकाश में आए, जिसे दिल्ली स्थित रिसर्च कंसल्टिंग ग्रुप एएफ डेवलपमेंट केयर ने जुलाई में प्रकाशित किया. देश की कुछ खास पॉकेट्स में बीड़ी मज़दूरों की संख्या क्यों घट रही है और पिछले ढाई दशकों में ये गिरावट दक्षिणी सूबों में कैसे आई- ये कुछ ऐसे प्रमुख सवाल हैं जिन्हें रिसर्चर्स ने अपनी रिपोर्ट में समझने की कोशिश की है जिसका शीर्षक है- नॉलेज गैप इन एग्ज़िस्टिंग रिसर्च ऑन इंडियाज़ वीमन बीड़ी रोलर्स एंड ऑल्टर्नेटिव लाइवलिहुड ऑप्शंस.


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दक्षिण की महिला समर्थक नीतियां

रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण में बीड़ी मज़दूरों में कमी का श्रेय, विभिन्न महिला केंद्रित कार्यक्रमों की सफलता और दीर्घकालीन नीतियों में बदलाव को दिया जा सकता है, जिन्हें क्रमिक सरकारों ने पिछले तीन दशकों में लागू किया.

भारत में बीड़ी मज़दूरों की कुल संख्या में 84 प्रतिशत महिलाएं हैं.

दूसरे क्षेत्रों की तरह साउथ में भी, बीड़ी मज़दूर महिलाएं, कम मज़दूरी, काम के खतरनाक माहौल, सिस्टम के शोषण, सामाजिक सुरक्षा के अभाव और विभिन्न कल्याण योजनाओं तक सीमित पहुंच का शिकार थीं. लेकिन आजीविका के ज़्यादा सुरक्षित और लाभदायी विकल्प अपनाने के उनके प्रयासों में, अकसर बाधाएं आ जातीं थीं जैसे- कम शिक्षा, दूसरे कामों का अपर्याप्त कौशल, कर्ज़ की उपलब्धता और उचित व्यवसायिक प्रशिक्षण का अभाव.

नीतिगत बदलावों ने उन्हें दूसरे विकल्प दिए हैं ताकि वो आर्थिक रूप से ज़्यादा फायदेमंद, और गैर-खतरनाक पेशों पर शिफ्ट कर सकें. मसलन, 2013 की आर्थिक गणना के अनुसार, देश में महिला उद्यमियों की कुल इकाइयों में, सबसे अधिक हिस्सेदारी (13.51 प्रतिशत) तमिलनाडु की है, जहां बीड़ी मजदूरों की संख्या में सबसे ज्यादा गिरावट (541,000) देखी गई है. तमिलनाडु में महिला साक्षरता दर भी, देश में तीसरी सबसे अधिक (73.4 प्रतिशत) है.

महिला सशक्तीकरण का एक और मुख्य संकेतक- लिंग अनुपात भी, भारत के दक्षिणी राज्यों और केंद्र-शासित क्षेत्रों में बेहतर है. केरल में ये दर सबसे ऊंची है, जहां 1,084 महिलाओं पर 1000 पुरुष हैं, जिसके बाद पुडुचेरी (1,037/1,000), तमिलनाडु (996/1,000), और आंध्र प्रदेश (993/1,000) हैं.

कर्नाटक में 2006-07 में जेंडर बजटिंग को अपनाया गया और महिला व बाल विकास विभाग के सहयोग से, वित्त विभाग के तहत एक जेंडर बजट सेल का गठन किया गया.

आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में, संपत्ति के अधिकार में अन-कोडिफाई हिंदू कानून के दिनों से, अभूतपूर्व बदलाव आए हैं. इसमें महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं.

एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल 6,834 औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान/केंद्र (आईटीआई/आईटीसी) हैं. इनमें से लगभग 38 प्रतिशत दक्षिणी राज्यों में हैं. श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी के मामले में, सभी दक्षिणी राज्य राष्ट्रीय औसत से बेहतर हैं, जिनमें आंध्र प्रदेश सबसे ऊपर (51.3 प्रतिशत) है.

2018-19 में, कर्नाटक सरकार ने नाइट शिफ्ट में महिलाओं को रोज़गार देने की मंज़ूरी दे दी, जिससे महिलाओं को ज्यादा विकल्प और एजेंसियां मिल गईं.

ऐसे सकारात्मक संकेतकों और उपायों से, महिलाओं को श्रमबल में जगह मिली है. इससे पता चलता है कि सिस्टम में किए गए बदलाव, किस तरह महिलाओं को करियर के अवसर देते हैं, जिनका वो आगे चलकर लाभ उठा सकती हैं. शिक्षा, कानून, और कौशल विकास, धीरे-धीरे सभी महिलाओं का स्तर उठा देते हैं.


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महिलाओं की री-स्किलिंग और अप-स्किलिंग

सिस्टम को महिला समर्थक बनाने के लिए, नीति स्तर पर बदलावों के अलावा, जिस तरह से दक्षिणी राज्यों ने महिलाओं को बीड़ी बनाने जैसे हानिकारक पेशों से विस्थापित किया है, वो उत्तरी और पूर्वी राज्यों के अनुकरण के लिए एक आदर्श होना चाहिए.

शोध रिपोर्ट में पता चला कि इनमें से अधिकांश महिलाओं के अब अपने खेत हैं या वो कृषि मज़दूरी में लगी हैं और मनरेगा से लाभान्वित हुई हैं. कुछ महिलाएं सरकारी और प्राइवेट नौकरियां भी कर रही हैं.

महिला बीड़ी मज़दूरों के कौशल विकास की सरकारी पहलकदमियां बहुत कारगर नहीं रहीं हैं. जीविका के वैकल्पिक साधनों का प्रावधान, स्थानीय संदर्भ और इन महिलाओं की क्षमता के हिसाब से निर्देशित होना चाहिए (मसलन, कच्चे माल की उपलब्धता, उत्पाद की मांग, बिकाऊपन). मौजूदा सरकारी दृष्टिकोण में इसकी कमी है. उदाहरण के लिए, 2019 में इस पहल के तहत ट्रेनिंग ली हुई कुल 2,223 बीड़ी मज़दूर महिलाओं (भारत के कुल लगभग 70 लाख बीड़ी मज़दूरों में से) केवल 1,025 दूसरे काम पर शिफ्ट हुईं.

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने रिपोर्ट की अपनी प्रस्तावना में सही लिखा है कि, ‘आगे शोध करके हमें और अधिक समझने की ज़रूरत है कि महिलाओं के लिए जीविका के वैकल्पिक साधन चुनने में, क्या बाधाएं (शिक्षा, कौशल, कर्ज़) हैं? देश के श्रमबल को फिर से कुशल बनाने के लिए ये बहुत ज़रूरी है’.

इस रिसर्च रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए फाउंडेशन फॉर अ स्मोक फ्री वर्ल्ड के संस्थापक और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के पूर्व कार्यकारी निदेशक डेरेक याच ने लिखा, ‘ये रिपोर्ट भारत में बीड़ी सेक्टर की व्यवस्थित समीक्षा उपलब्ध कराने में एक महत्वपूर्ण कमी को पूरा करती है’.

उन्होंने आगे लिखा, ‘जैसा कि ये रिपोर्ट दिखाती है, बीड़ी उत्पादन में महिलाओं का अनुपात बहुत अधिक है, जो कम मज़दूरी, शोषक प्रथाओं और व्यवसायिक खतरों का शिकार रहती हैं. बीड़ी की वैल्यू चेन में महिलाएं यकीनन सबसे अधिक घाटे में हैं और इन महिलाओं और इनके बच्चों के बेहतर कल की खातिर, गंभीर कार्य किए जाने की ज़रूरत है.’


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भारत में अधिक से अधिक महिला बीड़ी मज़दूरों को दूसरे पेशों में विस्थापित करने के लिए एक ही विकल्प है कि महिला समर्थक दीर्घकालीन नीतियां लाई जाएं, जैसे कि दक्षिणी राज्य कर रहे हैं और क्षमता पैदा करने में सहायता तथा बाज़ार के अवसर उपलब्ध कराए जाएं.

(लेखक वीमन बीड़ी रोलर्स एंड ऑल्टर्नेटिव लाइवलिहुड ऑप्शंस की प्रमुख जांचकर्ता और एएफ डेवलपमेंट केयर, नई दिल्ली के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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