नरेंद्र मोदी सरकार के आठ साल पूरे होने पर सामने आए तमाम लेखों, व्याख्यानों, और टीकाओं में से एक लेख ऐसा था जो पिछले सप्ताह सबसे अलग दिखा. यह लेख है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय कार्य परिषद के सदस्य राम माधव का, जो ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपा.
माधव प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति और शासन शैली के उत्साही पैरोकार रहे हैं. इसलिए, अगर उनका उक्त लेख महिमागान जैसा लगा तो कोई अचरज नहीं. लेकिन जैसा कि तुलसीदास लिख गए हैं, ‘जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तीन तैसी’. माधव ने भले ही मोदी का गुणगान किया हो, कुछ लोग इसका अलग अर्थ निकाल सकते हैं. मुझे तो आरएसएस नेता के इस लेख में मोदी के लिए तीन संदेश दिख रहे हैं.
पहला संदेश
वो गलतियां मत कीजिए जो नेहरू ने की. माधव ने भारत के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू और नरेंद्र मोदी की तुलना की है. मोदी ‘अपने दम से बने नेता’ हैं, जबकि नेहरू जाने-माने पिता के पुत्र थे और उनके एक ‘गॉडफादर’ भी थे. नेहरू के जीवनकाल में दूसरा कोई नेता उनकी लोकप्रियता और जनसमर्थन का मुक़ाबला नहीं कर सकता था. मोदी को भी ‘वैसी ही व्यापक लोकप्रिय सदभावना और समर्थन’ हासिल है.
माधव ने लिखा है— ‘आठ साल बाद, 1958 में भारतीय संविधान को पहली गंभीर चुनौती तब मिली जब नेहरू ने केरल में कांग्रेस की सरकार बनवाने के लिए कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया था. और अब जबकि मोदी सत्ता में अपने आठ साल पूरे कर रहे हैं, मानो यह अनकहा संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि वे टेढ़े रास्ते से विपक्ष की सरकारों को गिराने की कोशिश न करें. आरएसएस के वरिष्ठ नेता यह भी याद कर रहे हैं कि भारत को चीन के हाथों ‘शर्मनाक हार’ का सामना करना पड़ा था, और नेहरू खुद ‘अपने जीवन और कैरिअर के आखिरी दिनों में टूट चुके थे.’
चीन और 1962 की लड़ाई का जिक्र अर्थपूर्ण है. नेहरू माओ और चाउ एन लाइ के छलावे में आ गए थे. नेहरू की तरह प्रधानमंत्री मोदी ने भी चीन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया, 2014 से 2020 के बीच वे पांच बार चीन का दौरा कर आए और शी जिनपिंग से विभिन्न मौकों पर 18 बार मिले लेकिन चीन ने पूर्वी लद्दाख में हमला करके उनके साथ भी धोखा किया.
माधव ने इंदिरा गांधी को अपनी दृढ़ता के कारण मिली लोकप्रियता के बारे में लिखा है, ‘लेकिन उनका राजनीतिक ग्राफ अनगिनत विवादों से रंगा रहा, जिनमें कुख्यात इमर्जेंसी सबसे ऊपर रहा.’ माधव ने इंदिरा और मोदी में कोई समानता नहीं गिनाई है लेकिन उनकी दृढ़ता या निर्णय क्षमता और उनसे जुड़े विवादों का जिक्र बहुत कुछ सोचने का मसाला जुटाता है.
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दूसरा संदेश
माधव ने लिखा है, ‘1970 के दशक में देवकांत बरुआ का यह बयान एक अतिशयोक्ति ही था कि ‘इंदिरा ही भारत हैं…’ लेकिन आज अगर यह कहा जाए कि ‘मोदी ही भाजपा हैं और मोदी ही सरकार हैं’ तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी.’ माधव इसे सकारात्मक दृष्टि से ही कह रहे होंगे लेकिन इससे उनके उक्त लेख का दूसरा संदेश निकाला जा सकता है कि सत्ताधारी जमात में व्यक्ति पूजा और चाटुकारिता की संस्कृति हावी हो रही है.
माधव के विचारों पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता. वे शायद यह जताना चाहे रहे हैं कि मोदी भाजपा के और भाजपा जिन बातों के लिए बनी है उसके साकार रूप हैं, और आज कोई भी उनके बिना पार्टी की कल्पना नहीं कर सकता. लेकिन माधव जो नहीं कह रहे हैं वह यह है कि व्यक्ति पूजा को बढ़ावा देने (और उसका फायदा उठाने) के क्रम में संगठन व्यक्ति-संचालित हो गया है. यहां तक कि पार्टी के मुख्यमंत्री भी भाजपा की शीर्ष निर्णय संस्था, संसदीय दल की बैठक किए बिना नियुक्त और बर्खास्त किए जा रहे हैं. यही सब शासन में भी चल रहा पूरी निर्णय प्रक्रिया प्रधानमंत्री कार्यालय में सिमट गई है. यह आप किसी भी मंत्री या नौकरशाह से पूछ सकते हैं. इमर्जेंसी के उत्कर्ष के दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष बरुआ ने कहा था, ‘इंडिया इज़ इंदिरा ऐंड इंदिरा इज़ इंडिया.’ आज जरा अंदाजा लगाये कि भाजपा कितने बरुआ होंगे.
माधव गलत नहीं कह रहे हैं कि मोदी ही भाजपा हैं, मोदी ही सरकार हैं. आरएसएस नेता ने 2014 में मोदी के उत्कर्ष के तीन कारण बताए हैं— उनकी अपनी लोकप्रियता, भाजपा को जनसमर्थन तथा सर्वव्यापी संघ परिवार, और यूपीए सरकार के खिलाफ जन असंतोष. है.
माधव ने लिखा है, ‘आठ साल बाद भी उनका वर्चस्व सिर्फ उनकी अपनी वजह से कायम है. पिछले आठ साल में जो कुछ हुआ वह मोदी से जुड़ा हुआ ही रहा.’ माधव ने यह नहीं बताया है कि यह अच्छी बात है या बुरी बात है. वे इस तथ्य की भी अनदेखी कर देते हैं कि आरएसएस व्यक्ति पूजा के खिलाफ है. लेकिन वह कुछ कह नहीं सकते क्योंकि मोदी आरएसएस भी हैं.
तीसरा संदेश
तीसरा संदेश माधव की इस अव्यक्त ख़्वाहिश में छिपा है कि काश मोदी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से थोड़ी विनम्रता सीखते. वे कहते हैं कि मोदी का रथ कई वर्षों तक दौड़ता रह सकता है और आश्चर्य नहीं कि वे नेहरू का रिकॉर्ड भी तोड़ दें. माधव ने लिखा है, ‘खुद मोदी ही अकेले इस मामले में एक चुनौती बन सकते हैं. राजनीतिक मर्यादा के बारे में वाजपेयी की यह कवित्वमय सीख उनका मार्गदर्शन कर सकती है— ‘मुझे इतनी ऊंचाई भी मत देना कि औरों को छू न सकूं’. ऐसा लगता है कि मोदी से आग्रह किया जा रहा है कि वे जमीन से, जनता से जुड़े रहें.
माधव ने वाजपेयी की कविता ‘ऊंचाई’ से ज्यादा उद्धरण नहीं दिए हैं. मैं यहां उसकी कुछ पंक्तियां प्रस्तुत कर रहा हूं— ‘सच्चाई यह है कि केवल ऊंचाई ही काफी नहीं होती/ सबसे अलग-थलग, परिवेश से पृथक, अपनों से कटा-बंटा/ शून्य में अकेला खड़े होना, पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है’. आगे— ‘जो जितना ऊंचा, उतना एकाकी होता है/ हर भार को स्वयं ढोता है/ चेहरे पे मुस्कान चिपका, मन ही मन रोता है’.
माधव कोई साधारण आरएसएस पदाधिकारी नहीं हैं. अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में मोदी की सफलता में उनका बड़ा योगदान रहा है. शुरुआत न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर पर 2014 में हुई रैली से हुई. भाजपा महासचिव के रूप में माधव ने उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा के विस्तार में प्रमुख भूमिका निभाई है. सितंबर 2020 में उन्हें इस पद से हटाकर आरएसएस में फिर लाया गया और छह महीने बाद उसकी कार्य परिषद का सदस्य बनाया गया. इसके बाद से वे संघ के बौद्धिक चेहरे और वैश्विक दूत की भूमिका में भारत में आईआईटी और आईआईएम में उसके विचारों और प्रभाव का प्रसार करते रहे हैं. इस साल के शुरू में, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत उनके दफ्तर पहुंच गए और माधव जिस थिंक टैंक इंडिया फाउंडेशन से जुड़े हैं उसकी गतिविधियों के बारे में उनसे 3 घंटे तक चर्चा की.
इसलिए, माधव का मोदी महिमागान अगर कई व्याख्याओं— मसलन उनकी सत्ता-केंद्रित राजनीति, विदेश नीति, व्यक्ति पूजा, राजनीतिक मर्यादा आदि को लेकर चिंताओं— की गुंजाइश बनाता है तो समय आ गया है कि भाजपा नेतृत्व आठ साल तक सत्ता में रहने के बाद अब अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करे.
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. ये विचार निजी हैं.)
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