27 जून को, सरकार ने एक अध्यादेश के जरिये सहकारी बैंकों के नियंत्रण संबंधी कानून को बदल दिया—यह भारतीय रिजर्व बैंक को बैंकों की निगरानी और समाधान में सक्षम बनाने वाले सुधारों की दिशा में एक सकारात्मक कदम है.
इस अध्यादेश से तीन चीजें बदली हैं. पहली, इसने वह तरीका बदला जिससे जमाकर्ताओं के हितों की रक्षा के लिए डूबते सहकारी बैंकों में आरबीआई दखल दे सकता है. दूसरा, यह सहकारी बैंकों को प्रतिभूतियां जारी कर पूंजी जुटाने की अनुमति देता है. तीसरी, और सबसे जरूरी बात, यह सहकारी बैंकों के मामले में आरबीआई की शक्तियां बढ़ाता है.
अभी, आरबीआई डूबते बैंकों के मामले में सिर्फ उनको मोराटोरियम के तहत लाने के बाद ही हस्तक्षेप कर सकता है. मोराटोरियम के दौरान, जमाकर्ता अपना पैसा नहीं निकाल सकते. जाहिर है, यह जमाकर्ताओं की परेशानी ही बढ़ाता है जो अपना खुद का पैसा हासिल नहीं कर सकते. एक मोराटोरियम की जरूरत क्यों, यस बैंक के मामले में, जमाकर्ताओं को अपने खाते पर सीमित सुविधा मिली हुई थी.
अध्यादेश ने इसे बदल दिया है. अब, आरबीआई एक डूबते वाणिज्यिक बैंक के मामले में दखल (सामान्यत: उसका दूसरे बैंक में विलय करके) दे सकता है, विफल बैंक को मोराटोरियम के तहत लाए बिना ही. इससे जमाकर्ताओं का पैसा नहीं फंसेगा. एक दिन, उन्हें अचानक पता चलेगा कि उनके बैंक का किसी और बैंक ने अधिग्रहण कर लिया है. हालांकि, नया बैंक उनके खाते को बेरोकटोक संचालित करता रहेगा.
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भारत का निस्तब्ध बैंकिंग संकट
अध्यादेश में सबसे महत्वपूर्ण सुधार सहकारी बैंकों पर आरबीआई का नियंत्रण बढ़ाना है. भारत चुपचाप बैंकिंग संकट से गुजरता रहा है- 2013 से 2018 के बीच, 127 बैंक आरबीआई को बंद करने पड़े. उनमें से अधिकांश अपने जमाकर्ताओं को पैसा के भुगतान में असमर्थ थे. चार लाख से अधिक जमाकर्ताओं को जमा बीमा प्रणाली के जरिये भरपाई की जानी थी.
इस सबके राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकृष्ट न करने का कारण यह था कि जो डूबे थे वे सहकारी बैंक थे.
ज्यादातर ग्रामीण भारत में चल रहे ये बैंक शहरी परिदृश्य में वर्चस्व वाले वाणिज्यिक बैंकों की तुलना में काफी छोटे हैं. बहरहाल, सहकारी बैंक भारत की ग्रामीण और गरीब आबादी के लिए काम करते हैं, इसलिए जब ये डूबते हैं तो जमाकर्ताओं पर पड़ने वाली वित्तीय संकट की मार शायद ज्यादा भयावह होती है.
अफसोस, कानूनी बदलाव लाने के लिए पिछले साल पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक (पीएमसी बैंक) के डूबने जैसी घटना का इंतजार करना पड़ा. अन्य सहकारी बैंकों के विपरीत, पीएमसी बैंक ने भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई में खुद को आक्रामक तौर पर स्थापित कर लिया था. जब यह डूबा, तो इसने बड़ी संख्या में शहरी जमाकर्ताओं को अधर में लटका दिया, जिसने व्यवस्था में बदलाव की राजनीतिक इच्छाशक्ति को जगाया.
सहकारी बैंकों को कौन नियंत्रित करता है, राज्य या केंद्र?
सहकारी बैंक भारत की संवैधानिक संरचना में असहज बैठते हैं. सहकारी समितियों का समावेश, नियमन और समापन पर नियम तय करना राज्यों का एक विषय है (सातवीं अनुसूची की सूची 2 की प्रविष्टि 32), जबकि बैंकिंग को केंद्रीय विधायिका के बनाए कानूनों द्वारा शासित माना जाता है (सातवीं अनुसूची की प्रविष्टि संख्या 43 और 45). राज्य और केंद्र की जिम्मेदारियों के बीच विभाजन यह असहज सवाल खड़ा करता है: सहकारी बैंकों को कौन नियंत्रित करता है? राज्य या संघ?
गणतंत्र की शुरुआत से ही यह समस्या भारत को परेशान करती रही है. बैंकिंग विनियमन अधिनियम में एक असहज प्रणाली प्रचलन में है, जहां आरबीआई को सहकारी बैंकिंग कामकाज पर कुछ अधिकार हासिल हैं. इसके विपरीत, सहकारी प्रबंधन के नियमन का जिम्मा राज्यों पर छोड़ दिया गया है. राज्यों में आमतौर पर सहकारी समितियों का एक रजिस्ट्रार होता है (कंपनी रजिस्ट्रार के समान) जिसका सहकारी समिति प्रबंधन के चुनाव और निष्कासन पर नियंत्रण होता है. बैंकिंग विनियमन अधिनियम के प्रावधान विभिन्न शर्तों के तहत, सहकारी समितियों में मामूली स्तर पर और संशोधित रूप से लागू होंगे.
व्यवस्था इसको असंभव बनाती है कि बैंक प्रबंधन को बैंक के कामकाज से अलग किया जाए. यदि प्रबंधन अक्षम है, या बदतर है, बैंक को चपत लगा रहा है, तो भी नियामक उचित कार्रवाई नहीं कर सकता. आरबीआई को बैंकों को विनियमित करना है लेकिन बैंक प्रबंधन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है, या रोक नहीं कर सकता. शीर्ष स्तर पर गड़बड़ी नियामक की पहुंच के दूर है.
अध्यादेश ने चीजों को कैसे बदला
अध्यादेश ने सहकारी प्रबंधन नियंत्रण संबंधी राज्य के कानूनों और बैंकिंग प्रणाली पर नियंत्रण रखने वाली आरबीआई के बीच इस असहज स्थिति को खत्म किया है.
अब से, सहकारी बैंकों पर बैंकिंग विनियम कानून (कुछ संशोधनों के साथ) का ही वर्चस्व होगा. आरबीआई को मिला प्रबंधन को बदलने या सहकारी बैंकों के विलय/भंग करने का खाका तैयार करने का अधिकार राज्य में सहकारी रजिस्ट्रार की शक्तियों को निष्प्रभावी कर देगा.
ये बदलाव सहकारी बैंकों और वाणिज्यिक बैंकों के बीच प्रतिस्पर्द्धा के लिए समान मौका तो नहीं देते हैं, लेकिन विसंगतियों को काफी हद तक कम जरूर करते हैं. बैंकों पर और ज्यादा अधिकारों के साथ आरबीआई पीएमसी बैंक घोटाले जैसी पुनरावृत्ति रोकने में बेहतर स्थिति में हो सकता है.
इसमें शामिल अन्य प्रावधान सहकारी बैंकों को शेयर, डिबेंचर और अन्य प्रतिभूतियां जारी करने की अनुमति देते हैं. इससे सहकारी बैंक वित्तीय बाजार तक पैठ बना सकेंगे. सहकारी बैंकों को प्रतिभूतियों के माध्यम से पूंजी जुटाने की अनुमति देने संबंधी प्रावधान उन्हें सुरक्षित बनाने की दिशा में एक और कदम है. इक्विटी पूंजी बैंकों को छोटे-मोटे घाटे से जमाकर्ताओं को बचाने के लिए एक बफर के तौर पर काम करती हैं. शुरुआत में नुकसान शेयरधारक झेलते हैं. यदि घाटा इक्विटी पूंजी से ज्यादा हो तभी जमाकर्ताओं के पैसे पर आंच आती है. यही वजह है कि नियमत: वाणिज्यिक बैंकों के लिए इक्विटी पूंजी अपनी जमा राशि के 9-12 प्रतिशत के बराबर बनाए रखना आवश्यक होता है.
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इस अध्यादेश के पहले, सहकारी बैंकों को इस आवश्यकता से छूट प्राप्त थी, और आम तौर पर इक्विटी पूंजी की कमी रहती थी. अब, आरबीआई यह जरूरी कर सकता है कि ऐसे सहकारी बैंक जब विकसित हो जाएं तो (वाणिज्यिक बैंकों की तरह) अपनी पूंजी बढ़ाएं.
अध्यादेश आरबीआई को सहकारी बैंकों पर और अधिकार देता है. हालांकि, उनके बेहतर ढंग से विनियमन और पर्यवेक्षण के लिए केंद्रीय बैंक को अपनी निरीक्षण क्षमता बढ़ाने की जरूरत है.
यस बैंक और अन्य सूचीबद्ध वाणिज्यिक बैंकों में घोटालों का पता लगाने में इसकी नाकामी, जहां इसे ऐसा करने का अधिकार था, दर्शाती है कि आगे अभी तमाम चुनौतियां पेश आएंगी.
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