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Thursday, 25 April, 2024
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सरकारें कब तक बीएसएनएल जैसे उपक्रमों को दिवालिया होने से बचाती रहेंगी?

बीएसएनएल जैसी टेलीकॉम कंपनियां तन्ख्वाह नहीं दे पा रहीं. उनके लाभकारी बनने के कोई संकेत भी नहीं. इससे बचने का सही उपाय कंपनियों में पैसा डालने के बजाय, इसमें काम कर रहे लोगों को पैसा देकर विदा करना बेहतर उपाय है.

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अपने लिए फिर से जनादेश मांगने जा रही सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में एक बड़ी पहल यह की कि कंपनियों द्वारा खुद को दिवालिया घोषित करने की प्रभावी प्रक्रिया तय कर दी, हालांकि अभी तक यह केवल निजी क्षेत्र में लागू हुई हैं. सरकारी कंपनियों के लिए यह पारदर्शिता क्यों न लागू की जाए और उन्हें भी दिवालिया घोषित करने की वैसी ही स्पष्ट निर्णय प्रक्रिया क्यों न अपनाई जाए? ऐसे मामले को ट्रिब्यूनल जैसी न्यायिक संस्था को, जिसमें सभी पक्षों को अपनी बात रखने का समुचित मौका मिले, सौंपने से ऐसे संवेदनशील फैसलों में राजनीतिक दखल की संभावना को खत्म किया जा सकता है. इसके साथ ही इसमें कुछ तार्किकता लाई जा सकती है.

इस चुनावी मौसम, जिसमें तमाम तरह के वादों की बहार आ गई है, के बीत जाने के बाद क्या हम इस तरह के गैर-लुभावने मसलों पर ध्यान दे सकते हैं? मसलन, सार्वजनिक क्षेत्र की समस्याओं को दुरुस्त करने पर? दुरुस्त करने की प्रक्रिया कुछ इस तरह की हो सकती है— अच्छी कंपनियों को यथावत रहने दें, समस्याग्रस्त को निश्चित बजट सीमा में पूरे होने वाले स्वीकृत कार्यक्रम के अंतर्गत उबारने की पहल की जाए, और जिन्हें उबारना संभव न हो उन्हें बेचा जाए, बाकी को बंद कर दिया जाए.


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जिन प्रमुख उम्मीदवारों पर नज़र है उनमें भारत संचार निगम लि. (बीएसएनएल) भी है, जिसका दावा है कि वह टेलीकॉम सेवा देने वाली सबसे अग्रणी और सबसे प्रशंसित कंपनी है. इसके बावजूद उसकी कमाई, बाज़ार में हिस्सेदारी, पूंजी और प्रासंगिकता निरंतर घटती जा रही है. पिछले सात में से पांच वर्षों में यह 7,000 करोड़ से ज़्यादा गंवा चुकी है और इस साल भी गंवाने ही जा रही है. इसकी जुड़वां बहन महानगर टेलीफोन निगम लि. (एमटीएनएल) दिल्ली और मुंबई जैसे सबसे आकर्षक बाज़ारों में कारोबार करती है मगर इसकी लागत इसकी कमाई से दोगुनी ज़्यादा है और यह पिछले वर्ष करीब 3,000 करोड़ गंवा चुकी है.

बीएसएनएल ने अंतिम बार मुनाफा 10 साल पहले कमाया था और आज इसकी कमाई तब की इसकी कमाई से भी काफी कम है. दोनों कंपनियां अपने कर्मचारियों को वेतन दे पाने की स्थिति में नहीं रह गई हैं. बाज़ार में आज बीएसएनएल की हिस्सेदारी महज 10 प्रतिशत की रह गई है.

मसले पर एक-एक करके विचार करें. क्या इन कंपनियों को उबारा जा सकता है? बेहद तीखी होड़ वाले इस बाज़ार में पुनर्जीवन तो असंभव दिखता है. अगला विकल्प इन दोनों कंपनियों को बेचने का है. लेकिन, एअर इंडिया की तरह शायद इनका भी कोई खरीदार न मिले. कई निजी टेलिकॉम कंपनियों की तरह इन्हें भी बंद करने का अंतिम विकल्प न चुनने की एकमात्र गैर-आर्थिक वजह काफी मानवीय-सी है कि बीएसएनएल में 180,000 कर्मचारी हैं तो एमटीएनएल में 25,000. लेकिन कर्मचारियों को मुक्ति देना इन कंपनियों को बार-बार संकट से मुक्ति देने से कहीं ज़्यादा सस्ता सौदा है.

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कर्मचारियों को वार्षिक वृत्ति (एन्यूटी) सहित एकमुश्त भुगतान करना पड़ेगा. इसका खर्च भले ही भारी हो, सरकार इन कंपनियों में जितने पैसे झोंक रही है उसके मद्देनजर यह एक अच्छा सौदा ही होगा. बीएसएनएल को दो साल पहले 7,500 करोड़ दिए गए. ताज़ा प्रस्ताव 14,000 करोड़ और देने का है, जिसका नीति आयोग ने ठीक ही विरोध किया है.

याद रहे कि इन दोनों कंपनियों के पास हज़ारों करोड़ रुपये के स्पेक्ट्रम हैं. इसके अलावा, बीएसएनएल के पास जितनी फ्रीहोल्ड ज़मीन है उसकी कीमत दो साल पहले 70,000 करोड़ रु. आंकी गई थी. अगर कर्मचारियों से मुक्ति पाई गई तो इतनी रकम भी मुक्त हो जाएगी. निजी क्षेत्र के लिए दिवालिया होने की जो प्रक्रिया तय की गई है उसे अगर इन कंपनियों पर लागू किया जाए तो सरकार को यह बताना पड़ेगा कि तार्किक तौर पर दूसरे उपायों को न अपना कर वह बिना पेंदे के गड्ढे में पैसे क्यों फेंक रही है.


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कोई भी दल चुनाव के समय इस तरह के मसलों को नहीं निबटा सकता, इसलिए किसी से हाराकीरी (हालांकि राहुल गांधी नासमझी में यही करने पर आमादा दिखते हैं) की अपेक्षा रखना हकीकत से मुंह चुराना होगा. लेकिन निर्वाचित सरकार के पास क्या कभी ऐसे मुद्दों के लिए समय होता है, जिन्हें मुफ्तखोरी के खाते में डाला जा सकता है? नरेंद्र मोदी अब तक ऐसे तमाम मुद्दों से कतराते रहे हैं जिनमें वोटरों की नाराज़गी का खतरा होता है. इसलिए श्रम से लेकर कृषि और दूसरे तमाम मसलों में सुधार का रेकार्ड छिछला ही रहा है जिसके कारण कहीं वह आर्थिक गति पैदा हुई नहीं दिखती है, जो गढ़े हुए आंकड़ों में दिखती है.

सरकारी बैंकों का ही उदाहरण लें, जिन्हें सरकार से लगभग 2 खरब की ताज़ा पूंजी हासिल हुई है जबकि इसमें से अधिकांश रकम मार्केट वैलुएसन मेट्रिक्स में गुम हो गई है. हम देख चुके हैं कि इन बैंकों की समस्याओं की ‘पहचान’ की गई है और हमें ‘रीकैपिटलाइजेसन’ भी हासिल हुआ है (आगे और भी हासिल होगा), लेकिन भूले-बिसरे सुधारों का क्या हुआ? सरकार नियंत्रित संगठनों को उनकी संपूर्णता में सुधारने के इरादे का क्या हुआ? मूल्य निर्माण को तो भूल ही जाइए, क्या हम बड़े पैमाने पर मूल्य क्षरण को भी रोक पाएंगे?

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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