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Sunday, 22 December, 2024
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गांधी के सत्याग्रह को पैसिव रेज़िस्टेंस कहना कितना उचित

गांधी को अपने 'सत्याग्रह' के विषय में पूर्ण एवं दृढ़ विश्वास था कि उनका यह आंदोलन सकारात्मक एवं शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण 'पैसिव रज़िस्टेंस' बिल्कुल भी नहीं था.

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वर्ष 2019 में गांधी जी पर ज़ाहिर ही चर्चाओं, गोष्ठियों का जोर रहा था लेकिन इसने एक विवाद को भी जन्म दिया जब कुछ विद्वानों ने गांधी के ‘सत्याग्रह’ को ‘पैसिव रेज़िस्टेंस‘ कहा था. इतना ही नहीं, विद्वानों ने तो बाद की सांप्रदायिक हिंसा और देश के विभाजन के लिए इसी ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ को ज़िम्मेदार माना है.

इस विश्लेषण के लिए ज़िम्मेदार है 1909 में गांधी की मूल गुजराती भाषा में लिखी किताब ‘हिन्द स्वराज‘ का अंग्रेज़ी अनुवाद! अंग्रेजी के अनुवाद में ‘सत्याग्रह’ के समक्ष स्पष्टतः ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ लिखा है. मूल गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओं में उसके अनुवाद में ‘आत्मबल’ का उपयोग किया गया है. ‘आत्मबल’ के लिए ‘सोल-फोर्स’ जैसे संबोधन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था. (हिन्द स्वराज: अध्याय सत्रह, पृष्ठ संख्या 72, जिसके शीर्षक में ही लिखा था, ‘सत्याग्रह: आत्मबल’).

गांधी ने इसी अध्याय में लिखा है, ‘प्रेम का बल वही जिसे हम आत्मबल या सत्य-बल (नैतिक-बल) कहते हैं.’ इसका अंग्रेज़ी तो सही दिया है: ‘The force of love is the same as the force of the soul or truth.’ (हिन्द स्वराज: पृष्ठ 74, अध्याय 17, अंग्रेज़ी अनुवाद). इससे स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि गांधी इसी बात पर जोर दे रहे हैं कि ‘सत्याग्रह’ निश्चित ही ‘आत्म-बल’ या ‘सत्य-बल’ या ‘नैतिक बल’ है!


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हिन्द स्वराज, गांधी और सावरकर

जैसा कि हम सब जानते ही हैं 1909 में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के खिलाफ भेदभाव दूर करने के प्रयास में गांधी जी लंदन प्रवास पर थे. उसी समय मदनलाल ढींगड़ा द्वारा वायिली कर्ज़न की हत्या से अंग्रेज़ों में भारतियों के खिलाफ रोष था.

जब गांधी लंदन में थे तब सावरकर के निमंत्रण पर विजयदशमी के आयोजन में गये थे. जहां सावरकर हिंसा और गांधी अहिंसा की वकालत करते रहे थे, वहीं से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए यह पुस्तक पानी के जहाज़ में लिखी गई थी और उसकी भूमिका में वे स्पष्ट करते हैं कि यह पुस्तक उन्होंने ‘हिंसा के भारतीय दर्शन’ के प्रत्युत्तर में ही लिखी है.

इस संदर्भ में सबसे प्रमाणिक तथ्य हमें गांधी द्वारा लिखित ‘सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका‘ में मिलता है, जहां गांधी ने खुद एक महत्वपूर्ण घटना का ज़िक्र किया है. 11 सितंबर, 1906 को ट्रांसवाल प्रांत के जोहान्सबर्ग में एक बैठक हुई थी जिसमें वहां के भारतीय प्रवासियों ने भेदभाव की नीति के ‘अहिंसक’ विरोध की शपथ ली थी. इतिहासकार इसी तारीख से ‘सत्याग्रह’ की शुरुआत मानते हैं.

इस घटना के ठीक बाद दक्षिण अफ्रीका के कुछ उदारमना आंग्ल बांधवों ने इस समस्या को समझने और उसके निदान में सहायता प्रदान करने की नीयत से अपने श्वेत समुदाय की एक बैठक जोहान्सबर्ग शहर के निकटवर्ती इलाके जर्मिस्टन में बुलाई थी. गांधी का परिचय करवाते हुए होक्सेन ने गांधी के सत्याग्रह को निर्बलों का हथियार कहकर संबोधित किया.


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पैसिव रेज़िस्टेंस बनाम सत्याग्रह

गांधी अपनी कृति ‘सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका’ (प्रकाशित, 1928) में लिखते हुए स्वीकार करते हैं कि होक्सन द्वारा उनके आंदोलन को ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ कहने से वे लगभग भड़क गए और उसको तार्किक रूप से काटने के ही फलस्वरूप उन्होंने इसे ‘नैतिक या आत्मबल’ कहा. उन्होंने अपनी नई अवधारणा को परिभाषित करते हुए, ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ और ‘सत्याग्रह’ के अंतर को भी स्पष्ट किया.

वो लिखते हैं, ‘श्री होक्सन के कुतर्कों को काटने की प्रक्रिया में ही हमने अपने आंदोलन को एक पवित्रता (शुचिता) प्रदान करते हुए ‘आत्मबल या नैतिक बल’ की संज्ञा दी!’

गांधी ने पाश्चात्य जगत से भारतीय मानसिकता को अलग दिखाने के लिए इंग्लैंड के ‘शिक्षा विधेयक’ तथा आंग्ल महिलाओं के लिए मताधिकार के आंदोलनों के उदाहरण से अपनी बात को तार्किकता दी. उनके मतानुसार ये दोनों आंदोलन ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ के उदाहरण थे और अंततः इन दोनों आंदोलनों में हिंसा हुई थी जबकि उनके ‘सत्याग्रह’ में ‘हिंसा’ की गुंजाइश ही नहीं है!

उनके अनुसार, ‘हमारे भारतीय आंदोलन में पाश्विक शक्ति या भौतिक बल का कोई स्थान है ही नहीं. हम कितना भी उत्पीड़न स्वयं सह लेंगे किन्तु किसी भी परिस्थिति में हथियार नहीं उठायेंगे न उठाया है………. चाहें सत्ताधीश हमें कितना भी तड़पा लें….ऐसा नहीं है कि ऐसे अवसरों की कमी थी जब हम इन सशक्त हथियारों का भी प्रभावी प्रयोग कर सकते थे किन्तु एक सुनियोजित विचार के तहत ‘सत्याग्रहियों’ ने इसका प्रयोग नहीं किया.’ (सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका, 1928, पृष्ठ. 103-104)


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सत्याग्रह को ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ कहना कितना उचित

गांधी को अपने ‘सत्याग्रह’ के विषय में पूर्ण एवं दृढ़ विश्वास था कि उनका यह आंदोलन सकारात्मक एवं शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ बिल्कुल भी नहीं था. गांधी फिर जोर देते हुए लिखते हैं कि ‘सत्याग्रह’ प्रेम पर आधारित है जहां हम शत्रु से भी प्रेमपूर्वक मानवीय व्यवहार करते हैं वहीं ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ में शत्रु के प्रति घृणा और प्रतिशोध के भाव प्रभावी एवं मुखरित होते हैं इसलिए गांधी ‘माध्यम’ या साधनों/तरीकों के ऊपर भी अत्यधिक जोर देते थे.

गांधी के अनुसार मार्ग या साधन भी सत्यपरक, मानवीय एवं अहिंसक होने चाहिए. अतः पूरे आंदोलन में गांधी शिद्दत से इन्हीं सिद्धांतों पर कठोरता से अनुपालन करवाने के आग्रही रहे थे. (सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका, 1928, पृष्ठ. 104)

उनके एक अनन्य शिष्य जवाहरलाल नेहरू बंदीगृह से जब अपनी बेटी इंदिरा को शिक्षित करने के लिए पत्रों से विश्व-इतिहास पढ़ा रहे थे तब वे भी मार्च 29, 1933 को लिखे पत्र में गांधी के ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांत की काफी प्रशंसा करते हुए कहते हैं, ‘गांधी के सत्याग्रह का आग्रह सिर्फ सत्य पर टिके रहना है. इसे अंग्रेज़ी में प्रायः ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ कह या लिख दिया जाता है, वह इसका सही और सटीक अनुवाद हरगिज़ नहीं है, क्योंकि यह निष्क्रिय नहीं अपितु सक्रिय गतिविधि या कार्यक्रम है. इसीलिए यह अ-प्रतिरोध या प्रतिरोध का अभाव भी नहीं है भले ही अहिंसा इसका अविभाज्य अंग है.’ (ग्लिम्प्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री, पृष्ठ. 624)

आखिरकार ये कहा जा सकता है कि गांधी की ही तरह हम या हमारे बाद आने वाली भारतीय पीढ़ी को भी कत्तई ‘सत्याग्रह’ को ‘पैसिव रेज़िस्टेंस’ नहीं कहना या मानना चाहिए.

(लेखक हेरम्ब चतुर्वेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष और कला संकाय के पूर्व अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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