कर्नाटक में बेशक भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस-जेडीएस के विधायकों को तोड़कर कुमारस्वामी की सरकार गिराने में सफल हो गई, लेकिन इस पूरी जोर-आजमाइश में संवैधानिक मर्यादा में रहते हुए किसी ने अगर भाजपा को उसी के खेल में ढंग से टक्कर देने की कोशिश की, तो वे रहे कर्नाटक विधानसभा के स्पीकर केआर रमेश कुमार.
जब भाजपा कांग्रेस-जेडीएस के विधायकों को मुंबई ले गई, तो कांग्रेस ने स्थिति से निपटने की बहुत कोशिशें कीं, लेकिन उसकी कोशिशों का असर कहीं नहीं हुआ. ऐसे में विधायकों के संरक्षण के लिए जितना कुछ स्पीकर को करना चाहिए था, वह केआर रमेश ने किया.
दलबदलू विधायकों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई स्पष्ट फैसला नहीं दिया, विधायकों पर व्हिप लागू नहीं होगा, ये भी कह दिया और साथ ही स्पीकर को भी पूरी छूट दे दी. स्पीकर ने इसी बात का फायदा उठाते हुए विश्वास प्रस्ताव की बहस इतनी लंबी खिंचवा दी कि एक बार तो लगने लगा था कि येदियुरप्पा फिर से देखते ही न रह जाएं. रमेश ने ये सब विधानसभा के नियमों के तहत ही किया.
वास्तविक जीवन में कलाकार हैं रमेश कुमार
कर्नाटक के इस नाटक में प्रमुख पात्र के रूप में उभरे केआर रमेश कुमार ने ये भी साबित कर दिया कि उन्हें निजी जीवन में ही ड्रामा पसंद नहीं है, बल्कि वे राजनीति में भी ड्रामेबाजी का मजा लेते हैं. यह बात सच भी है क्योंकि कोलार जिले की श्रीनिवासपुरा विधानसभा सीट से छठी बार विधायक चुने गए केआर रमेश कुमार अभिनय की दुनिया से भी वास्ता रखते हैं.
केआर रमेश कुमार कांग्रेस से पहले जनता पार्टी और फिर जनता दल में भी रहे हैं, इसीलिए उनके मित्र दोनों ही दलों में हैं. यही कारण रहा कि इस बार अल्पमत की गठबंधन सरकार जब किसी तरह बनी तो केआर रमेश को स्पीकर बनाने पर सहमति बनी जो कि कर्नाटक में 1995 से 1999 तक जनता दल सरकार के समय भी एक बार स्पीकर रह चुके थे. दो बार कर्नाटक विधानसभा का अध्यक्ष पद संभालने वाले वे एकमात्र नेता हैं. यह भी इत्तफाक है कि केआर रमेश कुमार पहली बार स्पीकर तब बने थे. जब एचडी देवेगौड़ा मुख्यमंत्री थे और दूसरी बार जब वे स्पीकर बने तो देवेगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री थे.
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मंत्रमुग्ध कर देने वाला भाषण देने वाले केआर रमेश विज्ञान के स्नातक हैं, लेकिन कला से भी उनका प्रेम जगजाहिर है. 1970 के दशक में छात्र राजनीति से आगे बढ़ने वाले केआर रमेश कुमार नियम-कानून के कड़े माने जाते रहे हैं और कायदों का पालन भी करवाते रहे हैं. यही कारण है कि भाजपा ने बहुत कोशिश की कि जल्द से जल्द विश्वास मत पर मतदान करा दिया जाए, लेकिन केआर रमेश के रहते उसकी एक नहीं चली.
राजनीति में उनके गुरु रहे स्वर्गीय देवराज अर्स, जिन्होंने 1978 में रमेश को श्रीनिवासपुरा विधानसभा सीट से कांग्रेस का टिकट दिलवाया. उस चुनाव में जीत के बाद उनकी राजनीति उतार-चढ़ावों के साथ आगे बढ़ने लगी. केआर रमेश की राजनीति में हार और जीत दोनों का ही ठीक-ठाक स्थान रहा है.
1985 में वे जनता पार्टी में शामिल हुए और बरास्ता जनता पार्टी जनता दल में पहुंचे, लेकिन 2004 में वे फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए.
1978 में कांग्रेस उम्मीदवार रमेश कुमार ने जनता पार्टी के आरजी नारायण रेड्डी को हराया था, लेकिन 1983 में बाजी पलट गई और नारायण रेड्डी से उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद वे जनता पार्टी में शामिल हो गए और 1985 में उन्होंने कांग्रेस के जीके वेंकट शिवा रेड्डी को हराया.
1989 में कांग्रेस के जीके वेंकट शिवा रेड्डी ने उनसे अपनी हार का बदला ले लिया. 1994 में फिर जनता पार्टी के टिकट पर लड़े केआर रमेश कुमार ने वेंकट शिवा रेड्डी को हराकर विधानसभा की सदस्यता हासिल की. इसी कार्यकाल में उन्हें स्पीकर बनने का पहली बार मौका मिला था.
1999 में रमेश कुमार जनता दल से अलग हो चुके थे और निर्दलीय चुनाव लड़ने उतरे तो कांग्रेस के वेंकट शिवा रेड्डी ने उन्हें शिकस्त दे दी.
इसके बाद तकरीबन दो दशक बाद केआर रमेश कुमार ने कांग्रेस में वापसी की तो उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी जीके वेंकट शिवा रेड्डी को भाजपा में जाना पड़ गया, लेकिन 2004 में जीत केआर रमेश कुमार को ही मिली. 2008 में कांग्रेस कमजोर पड़ी तो केआर रमेश भी हार गए, लेकिन उसके बाद 2013 में भी वे जीते और 2018 में भी.
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अपने क्षेत्र में स्वामुलू के नाम से लोकप्रिय केआर रमेश कुमार ने 1999 में अभिनय की दुनिया में भी कदम रखे. जाने-माने निर्माता टीएन सीताराम के चर्चित धारावाहिक मुक्ता में उन्होंने अभिनय किया. मुक्ता का प्रसारण ईटीवी कन्नड़ पर हुआ था. इसमें भी उन्होंने एक न्यायाधीश की भूमिका निभाई थी, जो काफी कुछ उनके विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका से मिलती-जुलती कही जा सकती है. इसके बाद केआर रमेश कुमार ने कुछ और टीवी सीरियलों और फिल्मों में भी काम किया.
पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया से उनकी अच्छी दोस्ती है और सिद्धरमैया सरकार में 2016 में वे स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री भी बनाए गए थे. उस दौरान भी उन्होंने अस्पताल माफिया पर लगाम कसने और निजी अस्पतालों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की काफी कोशिश की थी. उन्होंने तो विधेयक भी पेश कर दिया था जिसमें प्रावधान था कि अगर डॉक्टर इलाज में लापरवाही के दोषी पाए जाते हैं, तो उन्हें जेल हो सकती है. ये बात अलग है कि डॉक्टरों के भारी दबाव के बाद सिद्धरमैया सरकार को ये विधेयक वापस लेना पड़ा था.
केआर रमेश का मामला कुछ हद तक जस्टिस कर्णन की भी याद दिलाता है जो अकेले ही सुप्रीम कोर्ट के सात जजों से भिड़ गए थे. बेशक जीत न कर्णन को मिली थी, न केआर रमेश को मिली है, लेकिन दोनों ने ही न्यायपालिका और व्यवस्था की खामियों को तरीके से उजागर करने में सफलता पाई है.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है.)