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Wednesday, 6 November, 2024
होममत-विमतआखिर कैसे भारत को पछाड़ कर बांग्लादेश दक्षिण एशिया का टाइगर बन रहा है

आखिर कैसे भारत को पछाड़ कर बांग्लादेश दक्षिण एशिया का टाइगर बन रहा है

किसी भी देश के विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए राजनीतिक स्थिरता का होना ज़रूरी होता है. धार्मिक कट्टरता का बढ़ना राजनीतिक स्थिरतता की राह में एक रोड़ा होता है.

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इस माह अंतराष्ट्रीय स्तर पर दो रिपोर्ट ऐसी आयी जोकि यह बताती हैं कि दक्षिण एशिया में बांग्लादेश विकास के रास्ते पर भारत से भी तेज़ी बढ़ रहा है. पहली रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) द्वारा जारी की जाने वाली ग्लोबल एकोनोमिक आउटलुक है, जिसने अनुमान लगाया है कि 2020 में बांग्लादेश की प्रतिव्यक्ति आय भारत के प्रतिव्यक्ति आय से ज़्यादा हो जाएगी. चूंकि बांग्लादेश में भारत की तुलना में अरबपतियों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं हैं, इसलिए इस रिपोर्ट का मतलब है कि वहां के आम आदमी की आय भारत के आम आदमी से ज़्यादा हो जाएगी.

भारत में आर्थिक विकाश अमीरों की तरफ़ अत्याधिक झुका हुआ है, इसलिए यहां प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि का मतलब हमेशा आम आदमी की आय में वृद्धि नहीं होता, क्योंकि चंद अमीरों की सम्पत्ति मे बेहताशा वृद्धि की वजह से भी प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि दिखायी दे सकती है. इस लिए इस रिपोर्ट को लेकर इतनी खलबली मची है कि भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमणयम ने इस पर संशय व्यक्त किया है. इस बीच दूसरी रिपोर्ट ग्लोबल हंगर इंडेक्स की भी आ गयी है जिसके अनुसार भुखमरी के मामले में दुनियाभर के 107 देशों में भारत का स्थान 94वां है, जबकि बांग्लादेश का स्थान 75वां है, इस इंडेक्स के अनुसार भी बांग्लादेश से वैश्विक स्तर पर भारत से तेज़ी से आगे निकल रहा है.

उक्त दोनों रिपोर्ट के अलावा विकास मापने के तमाम अन्य सूचकांक में भी बांग्लादेश की स्थिति भारत से बेहतर हो रही है, जैसे बांग्लादेश में पुरुषों एवं महिलाओं की जीवन प्रत्यशा क्रमशः 71 और 74 वर्ष है, जबकि भारत में 67 और 70 वर्ष है. इसी तरीक़े से शिशु मृत्युदर, महिला शाक्षरता, बच्चों के स्कूल में दाख़िले आदि के मामले में भी बांग्लादेश भारत से अच्छी स्थिति में पहुंच चुका है. इस लेख में उन प्रमुख कारणों की पड़ताल करने की कोशिश की गयी है जिसकी वजह से बांग्लादेश विकास के विभिन्न सूचकांकों पर निरंतर प्रगति कर रहा है, और साथ ही यह भी समझने की कोशिश की गयी है कि उसकी प्रगति का भारतीय समाज/अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पढ़ सकता है?

धार्मिक कट्टरपंथ पर नकेल

किसी भी देश के विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए राजनीतिक स्थिरता का होना ज़रूरी होता है. धार्मिक कट्टरता का बढ़ना राजनीतिक स्थिरतता की राह में एक रोड़ा होता है. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने 2009 में जब दूसरी बार राजनीतिक सत्ता सम्भाली तब से ही उन्होंने देश में धार्मिक कट्टरता को कम करने के लिए काफ़ी कोशिश किया. इस कड़ी में कई इस्लामिक कट्टरपंथी नेताओं को फांसी तक पर चढ़ा दिया गया.

देश में इस्लामिक कट्टरपंथ न पनपे इसको सुनिश्चित करने के लिए हसीना की सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों को भी शरण नहीं दिया, क्योंकि इस समुदाय के कुछ चरमपंथियो पर म्यांमार में बम धमाके के आरोप लगे थे. रोहिंग्या मुसलमानों को शरण न देने को लेकर मानवाधिकारों के हनन का मामला बताते हुए, हसीना सरकार की आलोचना भी हुई थी, लेकिन उसका सरकार पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा था.

इसके अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों में सक्रिय अलगाववादी संगठनों के बांग्लादेश में स्थित ठिकानों पर भी हसीना सरकार काफ़ी रोक लगायी है, जिससे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी पहले की आपेक्षा काफ़ी शांति आयी है.

श्रम क़ानूनों में सुधार

बांग्लादेश सरकार ने अपने यहां भारत से पहले ही श्रम क़ानूनों में सुधार कर दिए, जिसकी वजह से वह गारमेंट इंडस्ट्री की बड़ी-बड़ी विदेशी कम्पनियों को आकर्षित करने में सफल रहा. बांग्लादेश में पारम्परिक तौर पर भी कपड़ा उद्योग रहा है, परंतु विदेशी कम्पनियों के आगमन की वजह से इसका निर्यात बढ़ गया है. वैश्विक बाज़ार में बांग्लादेश में बने कपड़े की मांग को इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अकेले लंदन के बड़े शो रूम में यहां के बने कपड़े आसानी से मौजूद है. कपड़ा उद्योग में तरक़्क़ी की वजह से आज के स्थिति में बांग्लादेश की जीड़ीपी में इस उद्योग का योगदान पांचवा है, जबकि निर्यात में इसका हिस्सा 80 प्रतिशत है.

स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार

बांग्लादेश की तरक़्क़ी में एक बड़ा योगदान स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का भी रहा है. इस देश ने अपने यहां विगत वर्षों में स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्चा बढ़ाया है. स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की वजह से वहां जीवन प्रत्यशा, शिशु मृत्युदर, बाल कुपोषण आदि में सुधार आया है. वैश्विक स्तर पर जब दक्षिण एशिया के देशों की जीवन प्रत्याशा, अधिक शिशु मृत्यु दर, बाल कुपोषण आदि पर जब बात होती थी तो भारत और पाकिस्तान के नीति निर्माता अक्सर यह तर्क देकर बचाव करने की कोशिश करते थे कि यहां इन मापकों पर स्थिति ख़राब है, इसका कारण ख़राब स्वास्थ सेवा न होकर जेनेटिक कारण हो सकता है. स्वास्थ्य सेवा में सुधार की वजह से उक्त मापकों में अच्छे प्रदर्शन ने जेनेटिक्स की थ्योरी को ख़ारिज कर दिया है, क्योंकि भारत और बांग्लादेश के लोगों की जीन में कोई ख़ास अंतर नहीं है.


यह भी पढ़ें : IMF की भविष्यवाणी पर मत जाइए, बांग्लादेश ने दक्षिण एशिया के आर्थिक चैंपियन के रूप में भारत को मात नहीं दी है


स्वास्थ्य सेवा में सुधार ने बांग्लादेश में प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने ने अहम योगदान दिया है, क्योंकि व्यक्ति अपनी कमाई को भोजन, स्वास्थ, आवास और शिक्षा जैसी ज़रूरी चीजों पर ज़्यादा ख़र्च करता है. भोजन और स्वास्थ्य सेवा पर ख़र्च तो सबसे ज़रूरी है. ऐसे में अगर सरकार स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कर देती है तो इस पर लोगों का ख़र्चा बच जाता है, जिससे उनकी आमदनी में अपने आप बढ़ोत्तरी हो जाती है. बेहतर सरकारी स्वास्थ सेवा किसी भी देश में ग़रीबी और असमनाता को भी कम करती है, क्योंकि गम्भीर बीमारियों का इलाज अक्सर निम्न मध्यवर्गीय परिवारों को क़र्ज़ लेने पर मजबूर कर देता है, और तेज़ी से ग़रीबी की तरफ़ धकेल देता है. इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुए बांग्लादेश ने अपने यहां स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने पर ख़ास ध्यान दिया है, जिसका परिणाम उसे मिल रहा है.

बांग्लादेश की तरक़्क़ी का भारतीय समाज/अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में तरक़्क़ी का भारत के समाज/अर्थव्यवस्था पर कई प्रभाव पड़ सकता है. सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह हो सकता है कि जो बांग्लादेशी मज़दूर भारत के शहरों में वैध्य या फिर अवैध्य रूप से रह रहे हैं, वह पुनः अपने देश पलायन कर सकते हैं. ऐसा ही हाल बांग्लादेश से सटे प्रवोत्तर के राज्यों में भी हो सकता है. अगर ऐसा होता है तो अवैध बांग्लादेशी नागरिकों के पहचान करने के लिए भारत सरकार द्वारा लाए गए सीएए क़ानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का कोई ख़ास मतलब नहीं रह जाएगा. पिछले कुछ सालों से बांग्लादेश से आए मज़दूरों का बड़ा हिस्सा शहरों में साफ़ सफ़ाई आदि का कम कर रहा है, अब अगर वह वापस जाता है, तो इन क्षेत्रों में काम करने वाले सस्ते मज़दूरों की कमी होगी, जिससे इनमें काम करने वालों की वेतन में बढ़ोत्तरी हो सकती है.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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