scorecardresearch
Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमततो क्या मारे जाते रहेंगे ईमानदार सरकारी कर्मचारी

तो क्या मारे जाते रहेंगे ईमानदार सरकारी कर्मचारी

ईमानदार अफसर सभी की आंखों की किरकिरी बन जाता है. सिर्फ, इसलिये कि वह सही मायनों में सही है.

Text Size:

पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ से सटे खरड़ शहर में विगत दिनों जोनल लाइसेंसिंग अथॉरिटी में अधिकारी नेहा शौरी की उनके दफ्तर में ही दिन दहाड़े गोली मार कर की गई हत्या ने सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ जैसे ईमानदार सरकारी अफसरों की नृशंस हत्यायों की यादें ताजा कर दी. नेहा शौरी एक बेहद मेहनती और कर्तव्य परायण सरकारी अफसर थीं. बेईमानों को कभी छोड़ती नहीं थीं. इसका खामियाजा उन्हें जान देकर देना पड़ा. कहा जा रहा है कि सन 2009 में जब नेहा रोपड़ में तैनात थीं, उस दौरान उन्होंने आरोपी के मेडिकल स्टोर पर छापेमारी की थी और घोर अनियमितताओं को पाकर उसका लाइसेंस कैंसिल कर दिया था.

इसी का बदला लेने के लिए आरोपी ने उन पर सुनियोजित हत्या के मकसद से हमला किया. तो नेहा की हत्या ने एक बार फिर से यह सिद्ध कर दिया है कि अब इस देश में ईमानदारी से काम करना कठिन होता जा रहा है. अगर सरकारी बाबू ईमानदार नहीं होगा तो उसे मार दिया जाएगा या कसकर प्रताड़ित किया जाएगा. या भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा सताया जायेगा. नेहा से पहले सत्येंद्र दुबे हों, मंजूनाथ हों या अशोक खेमका, इन सबों को ईमानदारी की भारी कीमत अदा करनी पड़ी थी.

सत्य के साथ खड़ा होने वाले अफसरों का सरकार भी कभी अपेक्षित साथ नहीं देती है. इन्हें समाज भी आदर या सुरक्षा देने के लिए तैयार नहीं है. यह स्थिति सच में अत्यंत ही गंभीर और दुर्भाग्यपूर्ण है. ईमानदार अफसरों को जीवन भर भटकना ही पड़ता है. उन्हें भ्रष्ट राजनेताओं और उच्चाधिकारियों द्वारा प्रमोशन से अकारण वंचित किया जाता है. साथ ही ट्रांसफर की तलवार तो उन पर हमेशा लटकी ही रहती है.

हरियाणा कैडर के ईमानदार आईएएस अफसर अशोक खेमका की आपबीती से कौन वाकिफ नहीं है? उन्हें न जाने कितनी ही बार यहां से वहां ट्रांसफर किया जाता रहा, क्योंकि; वे रिश्वत खोर अफसर नहीं है. और, क्योंकि वे सच के साथ हमेशा खड़े होते हैं. दरअसल कड़वी दवा और कड़क ईमानदार अफसर को कम ही लोग पसंद करते हैं. क्योंकि, वे उलटे-सीधे काम नहीं करते. सभी को बिकने वाले सरकारी बाबू ही चाहिये जो उनके हिसाब से मनमुताबिक काम करे. भले ही वह राज्यहित में न हो.


यह भी पढ़ें : बदजुबानी करने वाले नेताओं पर हो कार्रवाई


यहीं नही कर्मचारी संगठन के नेताओं को भी जब पंजीरी खाने को नहीं मिलती और ऑफिस में काम करना पड़ता है, तो वे भी सब उस ईमानदार अफसर के खिलाफ लामबंद हो जाते हैं. यहां तक कि उस पर झूठे आरोप भी लगाये जाते हैं. बड़े सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों से पैरवी करके उसके ट्रांसफर की जी तोड़ कोशिशें की जाती हैं. ईमानदार अफसर सभी की आंखों की किरकिरी बन जाता है. सिर्फ, इसलिये कि वह सही मायनों में सही है. इन परिस्थितियों में अशोक खेमका जैसे अफसर तो हमेशा परेशान ही रहेंगे, नेहा शौरी जैसे अफसर मारे ही जाते रहेंगे. क्योंकि, ऐसे अफसर भ्रष्ट नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के मन-मुताबिक काम नहीं करते. गलत निर्णयों का खुलकर विरोध भी करते हैं.

आपको स्मरण होगा कि विगत वर्ष हिमाचल प्रदेश के कसौली शहर में अवैध होटल और निर्माण सील करने पहुंची महिला अधिकारी शैलबाला की होटल मालिक ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. नेहा शौरी और शैलबाला की हत्याओं से सब स्तब्ध हैं. अब बड़ा सवाल ये है कि क्या ईमानदारी से अपने दायित्वों का निर्वहन करने वाले अफसरों की हत्या कर दी जाएगी? ये दोनों बेहद संगीन मामले इस बात का पुख्ता सुबूत हैं कि समाज के एक शक्तिशाली वर्ग को अब कानून का कोई भय नहीं रह गया है. ये अपने संपर्कों, ताकत और पैसों के दम पर किसी भी स्तर तक पैरवी कर गलत को सही और सही को गलत ठहराने में सक्षम हैं.

हमारे सरकारी महकमे करप्शन के गढ़ बन चुके हैं. इसकी सुगंध को किसी भी सरकारी दफ्तर में घुसते ही महसूस की जा सकती है. राम मनोहर लोहिया ने 21 दिसम्बर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुई बहस में अपना अति महत्वपूर्ण भाषण दिया था. अपने भाषण में डॉ लोहिया ने कहा था, ‘सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है, उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ है. अंग्रेजों का लगान वसूलना हो या नेताओं की जेबें भरना हो, यह व्यवस्था तो वैसी ही रही. आका बदल गए, उनके रूप बदल गए पर विचार तो वहीं हैं. जनता का शोषण तब भी था, अब भी है. भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने लोकसेवा को ऐसा बना दिया है कि हमारी सामाजिक कल्याण की इच्छा शक्ति और श्रेष्ठ प्रशासन की भावनाएं ही खत्म होती जा रही हैं. हममें से कुछ लोगों का ध्यान केवल अपनी नौकरी, शानदार सरकारी सुख सुविधाओं, विदेश भ्रमण और विलासित वैभव तक केन्द्रित रह गया है’.

मैं डॉ. लोहिया के विचारों से शत-प्रतिशत सहमत हूँ. 15 अगस्त 1947 को सत्ता-परिवर्तन तो हो गया पर व्यवस्था-परिवर्तन कहाँ हुआ? व्यवस्था तो वही बनी रही. नौकरशाही के तेवर तो ज्यों के त्यों रहे. कलेक्टर (यानी जबरन वसूली करने वाला) का नाम तक तो नहीं बदला? हाँ यह जरूर हुआ कि अब उसे जिलाधिकारी एवं कलेक्टर कहा जाने लगा.

जागरूक नागरिकों को याद ही होगा सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ की कहानी? सत्येंद्र दुबे नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया में प्रोजेक्ट डायरेक्टर थे. उन्होंने प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भज सड़क योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार को नजदीक से देखा. उन्होंने तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वापजेयी को एक सीलबंद चिट्ठी लिखी जिसमें योजना में व्याप्त करप्शन का पूरा कच्चा चिट्ठा था. उस पत्र में ताकतवर भ्रष्ट अफसरों, इंजीनियरों ठेकेदारों के नाम थे. दुबे ने लिखा था कि भ्रष्ट लोगों के उस गठजोड़ से वे अकेले अपने दम पर नहीं निपट सकते. इसलिए वे प्रधानमंत्री को खत लिख रहे हैं. उनके इस पत्र को लिखने के कुछ ही दिनों बाद सत्येंद्र दुबे की हत्या हो गई थी.


यह भी पढ़ें : क्या अब भी किसी को शक है कि गांव की अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी?


कहानी सत्येंद्र दुबे के ईमानदारी के इस हश्र के साथ खत्म नहीं होती है. इस घटना के करीब सात साल बाद सत्येंद्र दुबे के कथित हत्यारों को सजा भी हुई. उस सजा की एक और खास बात थी. सजा पाने वाला तो कहता ही रहा कि वह इस मामले में निर्दोष है. दुबे के परिवार वाले भी यही बोलते रहे. कारण कि दुबे की हत्या को राहजनी के केस के रूप में पेश किया गया और कुछ छुटभैये अपराधियों को फंसा कर सजा भी दिला दी गई और असली अपराधी आज भी कहीं मौज कर रहे होंगे.

अब बात कर लेते हैं 27 वर्षीय एस. मंजुनाथ की. वो उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में इंडियन ऑयल कार्पोरेशन में मैनेजर के रूप में कार्यरत थे. 13 सितंबर 2005 को पेट्रोल पंप मित्तल ऑटो मोबाईल का निरीक्षण करने के दौरान उन्हें गड़बड़ियां मिलीं. उनकी शिकायत पर पेट्रोल पंप को निलंबित कर दिया गया. 19 नवंबर को मंजुनाथ ने फिर वहां का निरीक्षण किया. लेकिन, इस बार पेट्रोल पंप मालिक के बेटे ने अपने साथियों के साथ मिलकर उनकी गोली मारकर दिन दहाड़े निर्ममता से हत्या कर दी.

इसका खुलासा 20 नवंबर को तब हुआ जब हाईवे पर पेट्रोलिंग करती पुलिस जीप ने एक मारुति कार को पकड़ा, जिसमें मंजुनाथ के शव के साथ अभियुक्त सवार थे जो शव को कहीं ठिकाने लगाने जा रहे थे. यानी ईमानदारी और कर्तव्य परायणता की कीमत ईमानदार अफसर बार-बार चुका ही रहे हैं.

दरअसल जिनमें कर्तव्य परायणता का गुण होगा, वे तो हर दौर में सामने आते रहेंगे. पर क्या हमारा समाज भी कभी इन कर्तव्य परायण सरकारी अफसरों को सम्मान दे पायेगा? क्या सरकारी तंत्र इनको कभी पर्याप्त तरजीह और सुरक्षा मुहैया करा पायेगा. इस प्रश्न को कभी हमें खुद से पूछना चाहिए.

(लेखक भाजपा से राज्य सभा सदस्य एवं हिन्दुस्थान न्यूज़ एजेंसी के अध्यक्ष हैं)

share & View comments