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Saturday, 21 December, 2024
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इतिहास, मिथक या हिंदुत्व की विचारधारा, BJP और RSS को क्यों पसंद आई फिल्म सम्राट पृथ्वीराज

ये फिल्म दुश्मन को बड़ा दिखाने के चक्कर में गजनी शहर को रोम वाली भव्यता दे डालती है, जिसमें भव्य महल, हजारों की कैपिसिटी वाले विशाल स्टेडियम और शानदार इमारतें हैं. जबकि अपने सबसे अच्छे दिनों में भी ये एक मामूली सा शहर ही था.

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सम्राट पृथ्वीराज को बीजेपी खेमे में काफी सराहा जा रहा है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसे देख चुके हैं और इस पर सार्वजनिक रूप से बोल चुके हैं. बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड में ये फिल्म टैक्स फ्री कर दी गई हैं. बीजेपी के तमाम नेता इसकी तारीफ में सोशल मीडिया में लिख रहे हैं. ये लगभग वैसा ही है, जैसा कश्मीर फाइल्स के समय हुआ था.

आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है कि बीजेपी इसे प्रचारित करने और सफल बनाने में जुट गई है. इसे समझने के लिए फिल्म की शुरुआत और अंत में पर्दे पर आए दो नोट्स यानी टिप्पणियां बहुत महत्वपूर्ण हैं. फिल्म की शुरुआत में आई टिप्पणी ये बताती है कि ये फिल्म चंदबरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो और लोक में प्रचलित कथाओं को मिलाकर बनाया गया आख्यान है. फिल्म के अंत में एक टिप्पणी पर्दे पर आती है, जिसे खुद निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने स्वर भी दिया है, जिसका सार ये है कि पृथ्वीराज चौहान उत्तर भारत के आखिरी हिंदू सम्राट थे. उनके बाद भारत लगभग सात सौ कुछ साल तक गुलाम रहा. उसके बाद आजादी का संघर्ष हुआ और 1947 में देश फिर में फिर से भारत माता की स्थापना हुई (शब्द अलग हो सकते हैं, भाव कुछ ऐसा ही है).

इतिहास या मिथक

यहां जाकर फिल्मकार अतीत के आख्यान – इतिहास या मिथक – को वर्तमान से जोड़ता है और निरंतरता की रचना करता है. लेकिन यहीं पहुंचकर ये फिल्म रहा-सहा भ्रम भी खत्म कर देती है कि ये मनोरंजन के लिए बनाई गई फिल्म है. ये फिल्म पूरी तरह से राजनीतिक पाठ है, जो भारत में मौजूदा समय के प्रभावी विचार, जिसकी अभी सत्ता भी है, से तारतम्य बनाती है. इसलिए हम देखते हैं कि सत्ता प्रतिष्ठान में ये फिल्म सराही जा रही है.

लगभग आठ सौ साल पहले के घटनाक्रम के, जाहिर हैं कि कई पाठ हो सकते हैं. जो पाठ इस फिल्म को बनाने वाले ने चुना है, वह संक्षेप में इस प्रकार है: पृथ्वीराज अजमेर के राजा हैं. वे कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता के साथ प्रेम में हैं. इस बीच गजनी के सुल्तान मुहम्मद गौरी के साथ उनका एक युद्ध होता है, जिसमें पृथ्वीराज जीतते है. पर पृथ्वीराज ग़ोरी को जाने देते हैं. इस बीच पृथ्वीराज दिल्ली के सम्राट बनते हैं जिसे लेकर उनके रिश्तेदार और उज्जैन के शासक जयचंद जलते हैं. वे संयोगिता का स्वयंवर कराते हैं, जिसमें पृथ्वीराज संयोगिता को उनकी मर्जी से ले जाते हैं और उनसे शादी कर लेते हैं. नाराज जयचंद मुहम्मद गौरी को बुलावा भेजते हैं. इस बार छल से गौरी पृथ्वीराज को कैदी बना लेता है. लेकिन अंत में पृथ्वीराज गौरी को मार देते हैं.


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राजनीतिक और सामाजिक व्याख्या

इस कहानी के सत्य या मिथ्या या अर्धसत्य होने की जांच का काम इतिहासकारों का है, इसलिए मैं उस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा. लेकिन ये कहानी जो राजनीतिक-सामाजिक मायालोक रचती है, उसकी राजनीतिक और सामाजिक व्याख्या करने की मैं कोशिश करना चाहूंगा.

1100-1200 ईस्वी सन् का भारत का नक्शा आज की तरह कतई नहीं था. अलग अलग राजा रजवाड़े देश के अलग अलग हिस्सों में थे और कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी. दिल्ली का सिंहासन दिल्ली के आसपास के इलाके तक ही प्रभावी था. जैसा कि ये फिल्म भी बताती है कि दिल्ली के पांच सौ मील पर कन्नौज और उससे भी पास अजमेर का भरापूरा राज था. हिंदू महासभा या आरएसएस जिस अखंड भारत की बात करता है और उसका जो नक्शा पेश करता है, उसके हिसाब से गजनी भी अखंड भारत में ही था. इस फिल्म में जयचंद का दूत बना हिंदू व्यापारी बताता है कि उसकी एक कोठी गजनी में भी है. फिर अखंड भारत के दो राजाओं – पृथ्वीराज और मोहम्मद गौरी – की लड़ाई को आजादी और गुलामी से कैसे जोड़ा गया?

इसका जवाब ये फिल्म नहीं देती, लेकिन देखने वालों के मन में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती कि भारत में जो मुस्लिम शासक हुए, उन्हें ये फिल्म बाहरी आक्रमणकारी के तौर पर देखती है. जबकि इन मुस्लिम शासकों में से कई उन इलाकों से आए, जहां मौर्य शासकों का विस्तार था और एक समय जहां बौद्ध संस्कृति फूल-फल रही थी. फिल्म के लिए इन शासकों का बाहरी होना भौगोलिक नहीं, धार्मिक मामला है.

हिंदुत्व का विचार

ये फिल्म जनमानस में स्थापित करने की कोशिश करती है कि मुसलमान शासक बाहरी थे. इस बिंदु पर ये फिल्म पूरी तरह विनायक दामोदर सावरकर के हिंदुत्व के विचार से एकरूप हो जाती है, जो अपनी किताब हिंदुत्व में ये बताते हैं कि भारत को जो लोग अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि नहीं मानते, वे बाहरी हैं और उनके खिलाफ विराट हिंदू एकता बनाने की जरूरत है. सावरकर भारत में जन्मे धर्मों और बाकी धर्मों के बीच एक विभाजन रेखा खींचते हैं और इनमें से इस्लाम को मुख्य या लगभग एकमात्र विरोधी के रूप में चिन्हित करते हैं.

ये फिल्म दुश्मन को बड़ा दिखाने के चक्कर में गजनी शहर को रोम वाली भव्यता दे डालती है, जिसमें भव्य महल, हजारों की कैपिसिटी वाले विशाल स्टेडियम और शानदार इमारतें हैं. जबकि अपने सबसे अच्छे दिनों में भी ये एक मामूली सा शहर ही था. अब ये दिखाना शायद शर्मनाक होता कि एक छोटे से शहर के सुल्तान ने ‘भारत’ के हिंदू सम्राट को हरा दिया! पृथ्वीराज की हार को छल और कपट का नतीजा बताने के लिए ये दिखाया गया कि रात में हमला किया गया. जबकि युद्ध के समय फौजी कैंपों में रात में पहरे का इंतजाम तो होता ही होगा. लेकिन जो नैरेटिव में फिट न हो, उसे दिखाया कैसे जाए?

पृथ्वीराज चौहान की कहानी का दूसरा पाठ ये हो सकता है कि उन्होंने अपने प्रेम के चक्कर में भारतीय शासकों के बीच की एकता को खंडित किया, जिसकी वजह से मुहम्मद गौरी को भारत पर हमला करने और युद्ध जीतने का मौका मिला. साथ ही मुहम्मद गौरी ने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारतीय अभियान की कमान दी थी और जीत के बाद इस इलाके का शासन उसके हवाले कर दिया. ये फिल्म कहीं ये नहीं दिखाती कि पृथ्वीराज चौहान इतने ही समावेशी थे और तमाम जातियों को साथ लेकर चलते थे. राजा की हार के बावजूद, पूरी फिल्म राजपूत गौरव से भरी है, और ऐसा दिखाया गया है मानो हार हुई ही नहीं. ये फिल्म राजा को पुरोहित के नियंत्रण में दिखाती है, जिनका कहा राजा मानते हैं. इस मायने में ये फिल्म क्लासिकल वर्ण व्यवस्था को मान कर चलती है.

इस फिल्म का सबसे बुरा पहलू रानी संयोगिता और सामंतों की पत्नियों को सामूहिक अग्निप्रवेश या जौहर या सती हो जाना है. चूंकि ये फिल्म है, इसलिए डायरेक्टर चाहते तो इसे न दिखाते. कम से कम इस दृश्य को भव्य डांस और गाने के साथ दिखाने का तो कोई मतलब ही नहीं था. लेकिन डायरेक्टर शायद ये बताना चाहते थे कि कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना अगर किले में घुस जाती तो महिलाओं की इज्जत खतरे में पड़ जाती. विलेन को क्रूर दिखाने के चक्कर में ये फिल्म सती और जौहर प्रथा को महिमामंडित कर गई. जबकि इस युद्ध में लड़े कुतुबुद्दीन ऐबक के पोते इल्तुत्मिश की लड़की रजिया सुल्तान इस युद्ध के बमुश्किल 50 साल के बाद, युद्ध लड़ रही होती हैं. बेशक इस फिल्म में रानियों को युद्ध लड़ते हुए न दिखाया जाता, लेकिन उन्हें जौहर करते हुए न दिखाने का विकल्प तो था ही, जिसका निर्देशक ने इस्तेमाल नहीं किया.

कुल मिलाकर ये फिल्म हिंदू-मुस्लिम द्वेत यानी बायनरी के सावरकरवादी नजरिए से बनाई गई है. अगर ऐसा जान-बूझकर नहीं भी किया गया है, तो इसका असर तो इसी रूप में सामने आता नजर आ रहा है.


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