सर सैयद अहमद ख़ान एक लंबे अरसे में भारतीय मुसलमानों के बीच संभवत: एकमात्र असल विचारक रहे हैं. बाकी या तो मौलवी या कवि, या फिर कवि-मौलवी, या मौलवी-कवि रहे हैं. वह पक्के यथार्थवादी थे, जिसने अपनी क़ौम को निराशा की स्थिति से बाहर निकालने के लिए व्यावहारिक उपायों को अपनाया. उनके पास यह समझने की अंतर्दृष्टि थी कि क्या गलत हुआ है, साथ ही वह उसके अनुरूप सुझाव पेश करने की व्यावहारिकता भी रखते थे. भले ही हर साल 17 अक्टूबर को उनकी जयंती को बिरयानी-शेरवानी उत्सव के रूप में मनाया जाता हो, सैयद अहमद ख़ान के धार्मिक-दार्शनिक चिंतन, सामाजिक विचार, राजनीतिक धारणाएं और शैक्षिक प्रयास आज भी उनके कथित भक्तों के पूर्वाग्रहों में दफन हैं.
यदि वह आज जीवित होते तो, दरम्यानी दौर में क्रमिक विकास के बावजूद, उनके बालों को असमय सफेद कर देने वाली चिंताएं आज भी उनकी रातों की नींद को उड़ाए रहतीं क्योंकि उनकी क़ौम पहले जैसी अवस्था में ही है. अतीत के प्रति आसक्त, वर्तमान से निराश और भविष्य से भयभीत. इसलिए, सैयद अहमद ख़ान की प्रासंगिकता को परखने के लिए, यह अनुमान लगाना उचित होगा कि यदि वह आज हमारे बीच होते तो क्या करते.
हिंदुत्व, सर सैयद के नज़रिए से
इस्लाम भले ही एक राजनीतिक धर्म नहीं हो, लेकिन मुसलमानों में राजनीति का एक धार्मिक जुनून होता है. तो, आइए हिंदुत्व के प्रति उनकी प्रतिक्रिया को देखते हैं. क्या वह टकराव के रास्ते पर जाएंगे या सुलह का प्रयास करेंगे?
संभवत: आज उनका वही रवैया हो जैसा उन्होंने 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई के बाद ब्रिटिश शत्रुता को कम करने के लिए किया था. उनकी व्यावहारिक सोच ने उन्हें मुसलमानों से राजनीतिक से दूर रहने का आह्वान करने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि अंग्रेजों से फिर से रार करने से, उन पर पहले की तुलना में मुसीबत का कहीं बड़ा पहाड़ टूटता.
आज हिंदुत्व के झंझावात से गुजरने के लिए राजनीति से दूरी बनाना अनिवार्यत: एक उचित उपाय साबित हो सकता है.
जब हिंदू समाज जाति की राजनीति के भंवर में फंसा था तब मुसलमानों ने स्वेच्छा से कुछ राजनीतिक दलों का मोहरा बनने का विकल्प चुना था. मामला हिंदू समाज के आंतरिक सत्ता संतुलन का था, लेकिन मुसलमानों ने खुद को एक वोट बैंक के रूप में पेश करने का काम किया. इसके कारण प्रतिस्पर्धी राजनीतिक एकजुटता का माहौल बना, और विडंबना यह है कि उसमें उन वर्गों की प्रमुख भूमिका थी जिन्होंने कि मुस्लिम वोटों के सहारे सत्ता हासिल की थी.
उपेक्षितों की इस उग्रता के मद्देनज़र, सर सैयद उन्हें राजनीतिक निष्क्रियता की सलाह देंगे. वह मुस्लिम सार्वजनिक विमर्श की पहचान बन चुकी तीखी धार्मिक-राजनीतिक बयानबाजी के आत्मघाती रवैये को लेकर सशंकित होंगे और उनकी अति संवेदनशीलता के मद्देनज़र, वह उनके संविधानवाद के प्रदर्शन, संविधान की प्रस्तावना के समवेत पाठ की कवायद से ज़ाहिर, पर संदेह करेंगे. वह शाहबानो और तीन तलाक जैसे शर्मिंदगी वाले मुद्दों पर आत्मघाती आक्रामकता के खिलाफ मुसलमानों को सावधान करेंगे. सर सैयद ने रूढ़िवादियों की दुश्मनी को झेला था. अपने कॉलेज के विरोध को बेअसर करने के लिए, उन्हें उनके सामने घुटने टेकने पड़े थे और सामाजिक सुधार के एजेंडे को छोड़ना पड़ा था. उन्हें इसका पछतावा होगा और वह उनके हाथों से मुद्दों को छीनने की कोशिश करेंगे. देर भले ही हुई हो, मुसलमानों को उनके अपने खुद के राजा राममोहन राय से वंचित नहीं रखा जा सकेगा.
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सर सैयद और सच्चर कमेटी रिपोर्ट
2006 की सच्चर कमेटी रिपोर्ट से मुस्लिम समाज में चिंता की लहर फैलनी चहिए थी, क्योंकि उसमें कई मामलों में उनके सबसे निचले पायदान पर पहुंचने के तथ्य को उजागर किया गया था. लेकिन रिपोर्ट का एक दुर्भावनापूर्ण उत्साह के साथ स्वागत किया गया क्योंकि रिपोर्ट के निष्कर्षों ने उन्हें अपने प्रति भेदभाव को लेकर सरकार को निशाना बनाने का एक हथियार जो दिया था. सच्चर रिपोर्ट खुद को पीड़ित साबित करने के लिए उनका संदर्भ ग्रंथ बन गई.
दक्षिणपंथी उबाल के बीच प्रासंगिक बने रहने के लिए राजनीतिक अक्रियता पर ज़ोर देने के बाद, सर सैयद समुदाय की आंतरिक स्थिति पर गौर करेंगे और समुदाय की मरियल स्थिति को देखकर उन्हें दुःख होगा. वह इन आंकड़ों का इस्तेमाल आरोप-प्रत्यारोप के लिए नहीं करेंगे. 1871 में भी विलियम हंटर की किताब – द इंडियन मुसलमान्स: आर दे बाउंड इन कांशियंस टू रेबल अगेंस्ट द क्वीन? – प्रकाशित होने पर भी उनका यही रवैया दिखा था. सर सैयद ने इसकी एक विस्तृत समीक्षा प्रकाशित की थी, जिसमें किताब के उपशीर्षक में निहित आक्षेप के खिलाफ दलील पेश की गई थी. आज वह शायद द लॉयल मोहम्मडंस ऑफ इंडिया का संशोधित संस्करण लाने पर विचार करें.
हंटर की किताब में पेश किए गए निष्कर्षों में से एक बंगाल में आधुनिक शिक्षा और सरकारी नौकरियों के मामले में मुसलमानों के पिछड़ने के बारे में था. सर सैयद ने इस आंकड़े को पूरे देश के संदर्भ में देखते हुए एक शैक्षिक मिशन शुरू किया जो मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज और मोहम्मडन एडुकेशनल कॉन्फ्रेंस के रूप में साकार हुआ. उन्होंने मदरसे स्थापित करने का अभियान में जुटने के बजाय मुसलमानों के लिए कॉलेज नहीं बनाने के मुद्दे पर सरकार को घेरने का विकल्प चुना. वर्तमान स्थिति में वह मोहम्मडन एडुकेशनल कॉन्फ्रेंस को नेशनल एडुकेशनल कॉन्फ्रेंस के रूप में पुनर्जीवित करेंगे, और सर्वशिक्षा के लिए देशव्यापी अभियान चलाएंगे, न कि सिर्फ मुसलमानों के लिए. चूंकि उनका ज़ोर शिक्षा के लिए सामुदायिक प्रयासों पर था, इसलिए वह इन संस्थानों के संचालन के लिए सरकारी सहायता की बाट नहीं जोहेंगे.
मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज
यदि सर सैयद को आज कोई शैक्षिक संस्थान बनाना पड़े (हालांकि वह एकमात्र संस्थान से संतुष्ट नहीं होंगे) तो उसी आधार पर वह उसे इंडो-इस्लामिक नेशनल यूनिवर्सिटी का नाम देंगे जैसे कि उऩ्होंने मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज का नाम चुना था— क्योंकि ये नाम भारतीय राष्ट्र से इस्लाम के एकीकरण को प्रतिबिंबित करेगा. अपने पिछले अनुभवों से सीख लेते हुए, वह इसके उद्देश्यों को पतनशील मुस्लिम अभिजात वर्ग की संतानों को नौकरी के काबिल बनाने तक ही सीमित नहीं रखेंगे. न ही वह रूढ़िवादियों को कोई रियायत देंगे. उनको ये बात स्पष्ट हो चुकी होती कि आधुनिक शिक्षा को मानवतावाद और जागृति की भावना से आत्मसात करना होगा. इसके बिना यह बंदर के हाथ में उस्तरे जैसा होगा. समुदाय और देश ने बहुत चोट सहे हैं. पतनशील कुलीनों के हितों की रक्षा के लिए उदार शिक्षा को बढ़ावा देने से विशेषाधिकार की उनकी भावना का गहरी होना, तथा मतलबी एवं अलगाववादी राजनीति के लिए उनका प्रेरित होना तय था.
आज का इस्लाम
सर सैयद ने ब्रिटिश आधिपत्य के खिलाफ एक मुस्लिम कुलीन के रूप में प्रतिक्रिया दी थी, न कि एक भारतीय के रूप में. यह एक पतनशील कुलीन वर्ग की अदूरदर्शिता को उजागर करता है, जो कई सदियों तक देश पर शासन करने के अभिमान में चूर था. यदि तब तक कोई राष्ट्रीय चेतना नहीं आ पाई थी, तो इसका मतलब ये था कि शासक वर्ग ने विचारों का अगुआ होने के अपने दायित्व को नहीं निभाया था.
सर सैयद ने अपने वर्ग के लोगों को आगाह किया था कि प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें अपनी विचार प्रक्रिया को बदलना होगा. चूंकि धर्म इस वर्ग के विचारों के केंद्र में था जोकि उन्हें शिथिल बना रहा था, उन्हें धर्म की एक नई समझ विकसित करने की ज़रूरत थी जिसमें ईश्वर के शब्दों और ईश्वर के कार्यों के बीच इस तरह का सामंजस्य हो कि धर्म और विज्ञान के बीच तालमेल संभव हो सके. उन्होंने इस सुलह के खातिर क़ुरान की एक टीका लिखी थी. इस प्रयास में वह पश्चिम से उतने ही प्रभावित थे, जितने कि इस्लामी तर्कवादियों से.
यदि उन्हें वही किताब आज लिखनी पड़े, तो इस बात का अऩुमान लगाना रोचक होगा कि वे चार्वाक के स्वदेशी तर्कवादी दर्शन, जोकि लोकायत के नाम से जाना जाता है, से प्रेरित होंगे या नहीं. संभवत: वह उससे प्रेरणा लें. आखिर सुलह की इसी प्रत्याशा के कारण उन्होंने बाइबल पर भी टीका लिखा थी. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि चूंकि क़ुरान और बाइबिल दोनों का उद्गम एक है, इसलिए दोनों के अनुयायियों के बीच धार्मिक विद्वेष का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है. क्या वह सभी धर्मों की बुनियादी एकता को उजागर करने के लिए, वेदों और उपनिषदों की व्याख्या भी लिखेंगे? यदि वह आईन-ए-अकबरी की नई समीक्षा लिखे सकते हैं, तो निश्चित रूप से वह अकबर के सुलह-ए-कुल (सार्वभौमिक शांति) के सिद्धांत को भी अपनाएंगे.
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सर सैयद को इस बात का ज्ञान था कि जब तक इस्लाम भारतीय संस्कृति से एकाकार नहीं हो जाता, तब तक वो इस देश में एक अजनबी ही रहेगा, और इसका उसके अनुयायियों के लिए कोई बहुत अच्छा परिणाम नहीं होगा. सर सैयद को इस बात पर शर्मिंदगी होगी कि अलबरूनी की किताब-उल-हिंद और दारा शिकोह के मजमा-उल-बहरीन को छोड़ दें, तो एक हजार साल की अवधि में मुसलमानों ने भारत को समझने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. जो काम वे शासकों के रूप में नहीं कर पाए, वो अब उन्हें नागरिकों के रूप में करना चाहिए. जन्मदिन की शुभकामनाएं, सर. आपका अनेकों पुनर्अन्वेषण हो.
(नजमुल होदा एक आईपीएस अधिकारी हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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