सन 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से जान बचा कर जम्मू-कश्मीर आये लाखों हिंदू शरणार्थियों में ज्यादातर वे लोग थे, जो दलित व पिछड़ी जातियों के हैं. आज़ाद भारत में उनके साथ ऐसा सौतेला व्यवहार हुआ कि सात दशक बाद भी उनको नागरिकता का अधिकार तक नहीं मिल पाया है. वे अपने ही देश में पराए और शायद सर्वाधिक अनवांडेट लोग हैं. अब उन्हें पहचान पत्र देने की बात हो रही है, लेकिन राज्य के स्थायी निवासी होने का प्रमाण पत्र उन्हें तब भी नहीं मिल पाएगा और उस पहचान के बिना उन्हें राज्य सरकार में नौकरियां नहीं मिल सकती. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान वादा किया है कि उन्हें नागरिकता प्रदान की जाएगी. इस वादे की अभी परीक्षा होनी है, क्योंकि ऐसा ही वादा बीजेपी ने 2014 में भी किया था.
सन 1990 में कश्मीर के पंडित, जो कि अपने ही देश में पलायन करके विस्थापित हुए हैं, उनकी चर्चा यूनाइटेड नेशन तक पहुंचाने की कोशिश होती है. देश-विदेश हर तरफ उनके प्रति सहानुभूति प्रकट की जाती है. वे जम्मू में हो अथवा देश के अन्य राज्यों में, उनको तमाम अधिकार, पैकेज और आरक्षण तक प्राप्त हुए हैं. मगर उनके पलायन से बहुत पहले जम्मू-कश्मीर आये वेस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजीज़ के लिए कहीं कोई हमदर्दी नहीं है.
इतने उपेक्षित क्यों है ये शरणार्थी?
क्या इसका कारण यह है कि ये लोग दलित-पिछड़े समुदाय से हैं, इनके वोट नहीं हैं, इनकी कोई बात उठाने वाला नहीं है? शायद इसलिए ही चार पीढ़ियों से ये लोग भारत के नागरिक बनने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं. जबकि विभाजन के अरेंजमेंट के हिसाब से इनको अपने आप भारत की नागरिकता मिल जानी चाहिए थी.
जम्मू, कठुआ और साम्बा जिलों में बसे इन वेस्ट पाक शरणार्थियों के 19 हजार 960 परिवार हैं, जिनकी आबादी करीब डेढ़ लाख है. इनमें 80 प्रतिशत दलित हैं और बाकी ज्यादातर पिछड़े. पाकिस्तान में धर्म के आधार पर अत्याचार या उसके डर से ये अपनी जान बचाकर भारत आये और जम्मू के रास्ते पंजाब की तरफ बढ़ रहे थे. पर इनको जम्मू में ही रोक लिया गया और कुछ महीनों कैम्पों में रखने के बाद बॉर्डर इलाके में मुस्लिमों द्वारा खाली किये गए गांवों में भेज दिया गया.
इनको नेहरू व शेख अब्दुल्ला ने नागरिकता, घर, जमीन और रोजगार देने के वायदे के साथ रोका, मगर एक भी वादा नहीं निभाया गया. सन 1979-80 में तो ये इतने तंग आ गए थे कि सामूहिक रूप से बॉर्डर की तरफ कूच कर गये कि इससे बेहतर तो पाकिस्तान में मर जाना है. लेकिन उन्हें ऐसा करने नहीं दिया गया.
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2006 में वेस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजी संघर्ष कमेटी ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर 9 महीने तक धरना दिया. ये लोग अपनी मांगों को लेकर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक सब के चक्कर लगा चुके है, पर सुनवाई नहीं हो रही है. अभी तो केंद्र में कहने को हिंदूवादी सरकार है, धारा 370 व अनुच्छेद 35 (ए) की मुखालफत करने वालों की. बीजेपी की पीडीपी के साथ गठबंधन में राज्य सरकार भी रही, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई.
मानवाधिकारों से वंचित हैं ये लोग
पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थी भारत में स्वयं को आज़ाद देश के गुलाम लोग कहते हैं. ये लोग या तो खेतिहर मजदूर हैं अथवा निजी दुकानों व संस्थानों में नौकर हैं. ये जम्मू कश्मीर राज्य में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी बनने की भी योग्यता नहीं रखते.
इन्हें कभी भी राज्य के स्थायी निवासी का दर्जा नहीं मिला है. इसकी वजह से इन शरणार्थियों के बच्चों को स्कूल, कॉलेज और अन्य प्रोफेशनल इंस्टीट्यूट में दाखिला नहीं मिलता है. न ये राज्य में जमीन खरीद सकते हैं, न घर बना सकते हैं, न स्थानीय निकाय, पंचायती राज व राज्य विधानसभा में वोट डाल सकते हैं और न ही चुनाव लड़ सकते हैं.
पश्चिमी पाक विस्थापितों की लड़ाई लड़ रहे लब्बा राम गांधी बताते हैं कि वे पांच बार तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले, दो बार मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व पूर्व गृहमंत्री राजनाथ सिंह से भी मिले, लेकिन कोई हल नहीं निकल पाया. मगर गांधी यह भी जोड़ते हैं कि अब कुछ उम्मीद नजर आ रही है. शायद जल्दी ही सभी पश्चिमी पाक शरणार्थियों को पहचान पत्र व 5 लाख तक मुआवजा प्रति परिवार मिल जाएगा.
दरअसल जम्मू-कश्मीर राज्य का संविधान इन शरणार्थियों के भारत आने के 10 साल बाद 1957 में लागू हुआ. उसमें नागरिकता का आधार तय हुआ कि जो लोग 14 मई 1954 के 10 साल पहले से राज्य के निवासी हैं, उनको नागरिक माना जायेगा. चूंकि ये लोग 1947 में देश विभाजन के वक्त आये, इसलिए वे इस मापदंड पर खरे नहीं उतरते हैं.
दलितों और पिछड़ों के साथ भेदभाव
ऐसा नहीं है कि जम्मू कश्मीर में 1947 के बाद आये किसी भी समूह को नागरिकता के बुनियादी अधिकार नहीं मिले हों. सिर्फ दलित, पिछड़े समुदायों को छोड़कर जो भी आये, उन्हें अपनाया गया है, अधिकार दिए गए हैं. सन 1951 में कम्युनिस्ट चीन के जिंगजियांग प्रमंडल से बड़ी संख्या में उईगर मुस्लिम कश्मीर में शरणार्थी के रूप में आये, उनके लिए जम्मू कश्मीर के संविधान में संशोधन कर इन सब लोगों को 1959 में श्रीनगर के ईदगाह इलाके में बसाया गया. ऐसा ही 1959 में चीन से प्रताड़ित हो कर आये तिब्बती मुस्लिमों के लिए भी किया गया.
केंद्र सरकार ने 2008 में पश्चिम पाक शरणार्थियों के बच्चों के लिए विशेष पुनर्वास पैकेज की घोषणा करते हुए विशेष भर्ती अभियान की घोषणा की. लेकिन राज्य सरकार ने इस पर कोई रुचि नहीं दिखाई. इसलिए इसका भी कोई लाभ इन शरणार्थियों को नहीं मिल पाया. 2008 में जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने विधानसभा में घोषणा की थी कि वेस्ट पाकिस्तानी शरणार्थियों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट दिए जाएंगे. लेकिन यह घोषणा भी महज जुमला बन कर ही रह गयी.
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हद तो यह है कि राज्य सरकार इन दलित-पिछड़े शरणार्थियों को अनुसूचित जाति व अन्य पिछड़ी जाति का जाति प्रमाण पत्र भी जारी नहीं करती. जिसके चलते इस तबके के विद्यार्थी केंद्रीय छात्रवृत्तियों का भी फायदा नहीं उठा पाते हैं.
1987 में सुप्रीम कोर्ट ने इन पाक शरणार्थियों की समस्याओं के निदान हेतु दिशा निर्देश दिए, मगर 30 साल बीत जाने के बावजूद उस आदेश पर भी अमल नहीं हुआ है. संभवतः ये भारत के सर्वाधिक अनवांटेड लोग है.
क्या चाहते हैं ये शरणार्थी
इन पश्चिमी पाक शरणार्थियों की मांगों में अपने घरों की मरम्मत कर पाने के अधिकार की मांग भी शामिल है. 18,428 परिवार भूमिहीन है, वे जमीन मांग रहे है. उन्हें कोई मुआवजा राशि नहीं मिली है, उनको आर्थिक पुनर्वास राशि मिले, यह भी मांग है. पश्चिमी पाक शरणार्थी चाहते हैं कि उनको नागरिकता का अधिकार मिल जाये, ताकि वे अपनी आजीविका, मताधिकार, आवास, सम्मान और सुरक्षा की बात भी कर सकें. सबसे दुखद यह है कि देश के दलित, बहुजन संगठन भी इन दलितों-पिछड़ों की आवाज नहीं उठाते.
(लेखक शून्यकाल डॉटकॉम के सम्पादक हैं)
(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं)