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Friday, 29 March, 2024
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हिंदी अब ज्ञान की भाषा नहीं रही, स्तरहीनता के साम्राज्य ने इसकी आत्मा को कुचल दिया है

हिंदी दिवस के अवसर पर आइए विचार करें कि कुछ ही दशकों में हिंदी किस ऊंचाई से गिरी है.

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करीब 43 साल पहले, 1977 में, तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी एक कविता हिंदी पत्रिका साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशन के लिए भेजी थी. जब कविता नहीं छपी तो उन्होंने पत्रिका के संपादक मनोहर श्याम जोशी को एक पत्र भेजा. जोशी ने तब तक अपने प्रसिद्ध उपन्यासों की रचना नहीं की थी, लेकिन वह अग्रणी संपादकों में शुमार थे.

वाजपेयी ने उम्र में अपने से एक दशक छोटे पत्रकार को लिखा, ‘प्रिय संपादक जी, जयराम जी की…समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था. पता नहीं आपको मिला या नहीं…नीका लगे तो छाप लें नहीं तो रद्दी की टोकरी में फेंक दें.’

वाजपेयी के पत्र, और फिर जोशी के जवाब, से यह देखा जा सकता है कि कुछ ही समय पहले तक हिंदी को बड़ी प्रतिष्ठा मिला करती थी, लेकिन उस स्थिति से यह भाषा किस कदर लुढ़क गयी है. आज यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई केंद्रीय मंत्री विनम्रतापूर्वक अपनी कविता छपने के लिए किसी हिंदी प्रकाशन को भेजेगा और फिर लंबे समय तक उसके प्रकाशन की बाट जोहता रहेगा.

1980 के दशक के उत्तरार्ध से हिंदी की बौद्धिक और सामाजिक हैसियत में काफी गिरावट आई और, जैसा कि मैंने हाल के एक लेख में बताया था, यह अंतत: देश की हिंदी पट्टी में धर्मनिरपेक्षता की पहली हार की वजह बनी. हिंदुत्व की ताकतों को अंग्रेजी मीडिया का खुला समर्थन मिलना शुरू होने से पहले ही प्रमुख हिंदी प्रकाशन घुटने टेक चुके थे.

फिर भी, एक जीवंत राष्ट्रीय विमर्श को रचने और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में हिंदी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है. कहने को तो यह अनेक भारतीय भाषाओं में से एक है, लेकिन इसका भौगोलिक विस्तार, इसकी सांस्कृतिक विविधता, व्यावसायिक उपादेयता और इसका चुनावी प्रभाव इतना अधिक है कि इसे कतई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.

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जिस नए स्वतंत्रता आंदोलन की बात इन दिनों की जा रही है वह हिंदी मीडिया और प्रकाशन परिदृश्य में बुनियादी बदलाव के बिना संभव नहीं है. हिंदी पट्टी इतनी प्रभावी है कि यह अन्य राज्यों के तमाम प्रतिरोधों को बेअसर बना सकती है. भले आप हिंदी को नापसंद करें लेकिन यदि इसके प्रभाव-क्षेत्र से पतन की शुरुआत हुई थी, तो पुनरुत्थान भी गंगा-यमुना दोआब से ही हो सकेगा– और इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों से भारी वित्तीय और बौद्धिक निवेश की दरकार होगी.


यह भी पढ़ें: अंग्रेजी आकांक्षाओं का प्रतीक है और एनईपी के बावजूद वह दो में से एक राजभाषा बनी रहेगी


ज्ञान की भाषा

रूस को ध्वस्त करने वाले 1904-05 के जापान-रूस युद्ध के कुछ वर्षों बाद अमेरिकी आलोचक विलियम लॉयन फेल्प्स ने रशियन नेशनल कैरेक्टर एज़ श़ोन इन रशियन फिक्शन शीर्षक से एक असाधारण निबंध लिखा था. फेल्प्स ने लिखा कि जापान के हाथों हुई हार की वजह से रूस तिरस्कृत हुआ था, और ‘यदि एक राष्ट्र की महानता उसके युद्धपोतों की संख्या और आकार, उसके सैनिकों की क्षमता, या उसकी वित्तीय समृद्धि से निर्धारित होती तो रूस की स्थिति बड़ी दयनीय मानी जाएगी.’

‘लेकिन,’ फेल्प्स ने अपनी बात जारी रखते हुए लिखा, ‘किसी राष्ट्र की असल महानता इनमें से किसी बात से तय न होकर, उसके बौद्धिक वैभव, दुनिया को दिए उसके विचारों की मात्रा एवं महत्व, साहित्य और कला में उसके योगदान, तथा मानवता की बौद्धिक प्रगति में सहायक तमाम चीज़ों से होती है. जब हम अमेरिकी अपनी औद्योगिक समृद्धि पर गर्व कर रहे हैं, तो एक पल के लिए साहित्य और संगीत के क्षेत्र में अमेरिका और रूस के योगदानों के तुलनात्मक महत्व पर विचार करना हमारे लिए लाभदायक साबित हो सकता है.’

हिंदी के कई समर्थक आज शेखी बघारते हैं कि विगत तीन दशकों के दौरान हिंदी 50 करोड़ लोगों के फलते-फूलते बाज़ार में प्रभुत्व की भाषा बन चुकी है, और यह तथ्य ‘नई हिंदी’ में बिकने वाले अखबारों और किताबों की संख्या में भी परिलक्षित होता है.

लेकिन यह भुला दिया जाता है कि इसकी एकमात्र वजह हिंदी का वृहद भूगोल और उसकी आबादी ही है. इसका हिंदी के साहित्यिक या बौद्धिक प्रभाव अथवा उसमें हुए लेखन की गुणवत्ता से कोई संबंध नहीं है. बाज़ार की भाषा रचनात्मकता और ज्ञान की भाषा से अलग होती है. किसी भाषा की प्रतिष्ठा उसके ज़रिए उत्पन्न ज्ञान से होती है, न कि आर्थिक विकास में उसके योगदान से.

आज सबसे पहली जरूरत हिंदी मीडिया क्षेत्र में निवेश की है. हमें सरकारी आयोजनों में दरियां बिछाने वाले मीडिया घरानों से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, लेकिन आज उन अंग्रेजी मीडिया संस्थानों के ऊपर बड़ी ज़िम्मेदारी है जिन्होंने पिछले वर्षों में हिंदी प्रदेश के विशाल बाजार को दोहने के लिए हिंदी में वेबसाइट्स इत्यादि शुरू की हैं.

इन हिंदी प्रकाशनों और समाचार पोर्टल्स को अपने अंग्रेजी प्रकाशनों का लचर अनुवाद बनाने के बजाय उनके संपादकों को मौलिक रिपोर्टिंग और लेखन में निवेश करना होगा. हिंदी समाज को सस्ते अनुवाद मत दीजिये. अनुवाद आधारित उत्पाद वांछित व्यवसाय भी नहीं दे पायेगा. हिंदी में निवेश व्यवसाय के साथ-साथ प्रतिरोध की राजनीति के लिए भी अच्छा साबित होगा.

हिंदी मीडिया परिदृश्य को दैनिक जागरण और आज तक के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. हिंदी पाठक और दर्शक को अपनी भाषा में एक प्रभावशाली विकल्प चाहिए, हिंदी प्रकाशनों को अंग्रेजी मीडिया का अनूदित उद्यम न बनायें.

अध्येता समाज का निर्माण

हिंदी प्रकाशन उद्योग में भी तत्काल आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है. समाज विज्ञान में उत्कृष्ट लेखन की कमी पर हिंदी में सतत विलाप चलता रहता है. मानीखेज तथ्य यह है कि 52.8 करोड़ लोगों की पहली भाषा (2011 की जनगणना) वाली हिंदी में एक भी पीयर-रिव्यू जर्नल नहीं है. हिंदी के किसी भी प्रकाशन संस्थान में पांडुलिपियों को बारीकी से पढ़कर अनुमोदित करने वाला संपादक मंडल नहीं है. दोस्त संपादक की एकाध टिप्पणियों और दस्तूरी प्रूफरीड के बाद पांडुलिपियों को छपने के लिए भेज दिया जाता है.

मेरी अंग्रेजी में एक और हिंदी में दो किताबें प्रकाशित हुई हैं. मेरी हिंदी पांडुलिपियों में किसी तरह का संपादकीय हस्तक्षेप नहीं किया गया, उन्हें शब्दश: छाप दिया गया. इसके विपरीत अंग्रेजी पांडुलिपि पर प्रकाशक ने मुझे सुझाव दिए, मेरी कमियों को रेखांकित किया, जिसने मेरी काफी मदद की.

मैं यहां जोर देकर कहूंगा कि हिंदी में प्रतिभाओं का अभाव का नहीं है. दुर्भाग्यवश, हिंदी की कार्य संस्कृति में पेशेवर रवैये और कठोर निरीक्षण का अभाव है. इसी वजह से मीडिया जगत में खराब वेतन मिलता है और प्रकाशन में रॉयल्टी चेक अक्सर गायब हो जाते हैं– विडंबना यह कि ये प्रकाशन अंग्रेजी के मुकाबले बहुत अधिक बिक्री का दावा करते हैं.

अंग्रेजी के उदय, चाहे मीडिया हो या प्रकाशन संस्थान, में पेशेवर कुशलता और गुणवत्ता में भारी निवेश की बड़ी भूमिका है. कम लेखक और पत्रकार पैदाइशी प्रतिभाशाली होते हैं, अधिकांश की प्रतिभा संपादकों और सहकर्मियों के वर्षों के मार्गदर्शन और आलोचना से निखरती है.

किसी अंग्रेजी पत्रकार या लेखक को दिग्गजों से मिलते आये मार्गदर्शन की हिंदी दुनिया में कल्पना भी नहीं की जा सकती. हारुकी मुराकामी अपने उपन्यास 1Q84 में लिखते हैं: ‘एक संपादक के लिए सबसे बड़े सुखों में एक है किसी युवा लेखक का आहिस्ते से निर्माण करना. रात के प्रांजल आसमान में झांक, किसी अन्य व्यक्ति की नज़र पड़ने से पहले एक नए तारे को खोजने का रोमांच विलक्षण है.’

मुझे नहीं मालूम कि पिछले तीन दशकों के दौरान हिंदी के कितने संपादकों ने इस रोमांच का अनुभव किया होगा. हिंदी में विचारों की कमी नहीं है, सिर्फ उसके प्रकाशकों को रवि दयाल, रुकुन आडवाणी और सलीमा तैयबजी जैसे दिग्गज संपादकों की ज़रूरत है, जिनका नाम लेते आशीष नंदी, रामचंद्र गुहा और अमिताव घोष जैसे लेखक अघाते नहीं हैं कि कैसे उन्होंने उनकी पांडुलिपियों के स्तर को कई दर्जा ऊपर उठा दिया.

किसी भाषा में रची उत्कृष्ट किताबें और अखबार अपने पाठक और अंततः समाज को बड़े गहरे तक समृद्ध करते हैं. इसी तरह औसत किताबें धीरे-धीरे लोगों की चिंतन और विश्लेषण की क्षमता को नष्ट करती जाती हैं. अच्छी पुस्तकों और पत्रिकाओं का अभाव एक गुलाम मानसिकता वाले समाज का निर्माण करता है. संघ परिवार के प्रति हिंदी समाज की अंधभक्ति को देखते हुए अक्सर यह विचार आता है कि पिछले कुछ दशकों में हिंदी मीडिया और प्रकाशन ने जो रास्ता अख्तियार किया है, वह कहीं जान-बूझकर अपनाई गई किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है.

मैंने हाल ही हिंदी के दोस्तों से एक विचार साझा किया है कि प्रकाशक तो निकट भविष्य में अपना रवैया नहीं बदलेंगे, क्यों न लेखकों-पत्रकारों-विद्वानों का एक अनौपचारिक और स्वैच्छिक निकाय बनाए जो प्रकाशकों को भेजे जाने से पहले पांडुलिपियों को पढ़ने और उन्हें निखारने का काम कर सकें, साथ ही विभिन्न विषयों पर गुणवत्तापूर्ण लेखन भी करवाएं.

हिंदी बनाम अंग्रेजी

हिंदी को अंग्रेजी के प्रति अपनी कुढ़न से भी छुटकारा पाने की ज़रूरत है. दोनों भाषाओं के बीच नौकरी के अवसर और वेतन में भीषण असंतुलन के मद्देनज़र हाल के दशकों में इस प्रवृत्ति में तेज़ी आई है. इससे हिंदी भाषियों की अच्छी-खासी ऊर्जा चली जाती है, उनके आक्रोश से अभिजात अंग्रेजी के खिलाफ ‘शोषितों के प्रतिशोध’ की हिंदुत्व की दोषपूर्ण दलील को भी हवा मिलती है. अंग्रेजी के अहंकार का विरोध किया जाना चाहिए, लेकिन उसे ‘गुलामी की भाषा‘ कहना उन सभी भारतीयों का अपमान है जिन्होंने अंग्रेजी में काम करते हुए इस राष्ट्र की समझ विकसित की है.

इस नाराज़गी की जड़ शायद कहीं और है. एक बार मुझसे बातचीत में प्रसिद्ध कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने किंचित उदास हो कहा था कि हिंदी का समकालीन साहित्यिक-अकादमिक परिदृश्य ‘स्तरहीनता का साम्राज्य’ हो गया है.

इस स्तरहीनता के आधिपत्य ने पिछले कुछ दशकों के दौरान हिंदी की आत्मा को कुचल दिया है. यह स्थिति सोशल मीडिया पर क्रांतिकारिता या मामूली बेस्टसेलर्स के प्रकाशन से नहीं बदल पायेगी. खोयी गरिमा को हासिल करने के लिए हिंदी समाज को गहरे आत्मनिरीक्षण से गुजर अपने भीतर बुनियादी परिवर्तन लाने ही होंगे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(हिंदी, अंग्रेजी और सेक्युलरिज्म की बहस पर सीरीज का यह तीसरा लेख है. पहले यहां और दूसरा यहां पढ़ें)

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट’ में नक्सल उग्रवाद का लेखाजोखा है. यहां व्यक्त विचार निजी है.)


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति वास्तविकता से कोसों दूर है, भारतीय वोटर अंग्रेजी मीडियम की शिक्षा चाहता है


 

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3 टिप्पणी

  1. सुंदर लेख आशुतोष जी।

    आपने बिल्कुल सही कहा कि हिंदी भाषा की पुनर्स्थापना करना बहुत ही ज़रूरी है।

    इसी प्रयास में बहुत अभूतपूर्व कार्य आचार्य प्रशांत जी द्वारा हो रहा है। आचार्य प्रशांत वेदांत मर्मज्ञ, IIT-D, IIM-A अलुमनस, पूर्व सिविल सेवा अधिकारी। उनकी यूट्यूब पर बोध-साहित्य पर 10000 वीडियोज़ है, जिनमें से ज़्यादातर हिंदी में हैं।

    उनका मानना है कि भारत की आध्यात्मिक उन्नति और हिंदी भाषा की उन्नति दोनों एक साथ होगी। आप उनके भाष्य अवश्य पढ़ें, वह हिंदी भाषा को सही जगह दिलाने में बहुत मददगार रहेंगी।

    प्रणाम!

  2. विचारोत्तेजक शीर्षक, किन्तु हिन्दी की दुर्दशा के कारणों का विश्लेषण फिसड्डी है। यह कहने के बजाय कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दी का सबसे महान समर्थक और संरक्षक है, उसको उलटे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी है। इसके विपरीत भारतीय कम्युनिस्ट सदा ही हिन्दी विरोधी रहे हैं। उनका अल्पमात्र भी जिक्र नहीं है। तमिलनाडु का हिन्दी विरोध एक छद्मवेशी कम्युनिस्ट आन्दोलन ही है। जिस ‘द प्रिन्ट’ में यह लेख छपा है वह भी महान हिन्दी-विरोधी है। हिन्दी पर इनके लेख पढ़ लीजिए। हिन्दी की दुर्दशा के लिए नेहरू खानदान कितना जिम्मेदार है, इस पर कुछ नहीं लिखा। वाजपेयी जी का नाम तो ले लिया, नरेन्द्र मोदी के हिन्दी के लिए योगदान का जिक्र करने से परहेज करते रहे। और अन्त में अंग्रेजी को ‘गुलामी की भाषा’ न कहने/कहने का उपदेश देते हुए विदा ले लिया।

  3. हिंदी के पतन के लिए सभी हिंदीभाषी खुद दोषी हैं. हमें हिंदी के कई शब्द बोलने में शर्म महसूस होती है. अधकचरे शिक्षित लोग हिंदी में बोलते समय हिंदी शब्दों के स्थान पर इन अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करते हैं. ऐसा लगता है कि इनके समानार्थी हिंदी शब्द अब विलुप्त हो चुके हैं-
    English, red, black, white, green, yellow, sunday, monday, morning, use, bed, book, paper, exam, maths, bag, north, south, office, and, but, singer, breakfast, word, sentence, ….. ये सूची खत्म न होने वाली है.

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