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Sunday, 24 November, 2024
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हिमंत सरमा RSS-मोदी की राजनीति को गलत समझ रहे हैं, कट्टर छवि एक सीमा के बाद आगे मदद नहीं करेगी

हिमंत बिस्वा सरमा को याद रखना चाहिए कि मोदी आज श्री अरबिंदो के आध्यात्मिक हिंदुत्व को पसंद करते हैं, सावरकर के राजनीतिक हिंदुत्व को नहीं.

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असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा सुर्खियों में हैं. सोमवार को उन्होंने विधानसभा में गरजते हुए कहा, “जब तक हिमंत बिस्वा सरमा जीवित हैं, हम असम में बाल विवाह की अनुमति नहीं देंगे…2026 से पहले, मैं बाल विवाह की दुकानें बंद कर दूंगा.” वह असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1935 को निरस्त करने के कैबिनेट के फैसले पर विपक्ष की आपत्तियों का जवाब दे रहे थे, जो कि दूल्हा और दुल्हन की कानूनी विवाह योग्य आयु न होने पर भी विवाह के पंजीकरण की अनुमति देता है.

ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के बदरुद्दीन अजमल ने पहले कहा था कि सरकार “मुसलमानों को भड़काने और मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने” की कोशिश कर रही है. पिछले हफ्ते, ‘चमत्कारी उपचार या मैजिकल हीलिंग’ को अपराध घोषित करने के लिए एक प्रस्तावित कानून, असम हीलिंग (बुराइयों की रोकथाम) प्रथा विधेयक 2024 पर ईसाई धर्मावलंबियों ने प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तर्क दिया था कि ईसाई धर्म में ‘जादुई उपचार या मैजिकल हीलिंग‘ नाम की कोई चीज नहीं है क्योंकि इसमें हर दूसरे धर्म की तरह “उपचार” के लिए प्रार्थनाएं हैं.”

इन प्रतिक्रियाओं से सरमा को आत्मसंतुष्ट होंगे. अजमल जैसे नेताओं को शिकायत हो सकती है लेकिन बाल विवाह पर सीएम के तर्क को खारिज नहीं किया जा सकता. हालांकि, एक कारण है जिसकी वजह से बहुत से लोग उनके सभी कदमों को राजनीतिक और वैचारिक चश्मे से देखते हैं. आख़िरकार, मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही वह लगातार सक्रिय रहे हैं – ‘मिया’ या बंगाली भाषी मुसलमानों की निंदा करना, कथित तौर पर मुसलमानों को निशाना बनाते हुए बेदखली अभियान शुरू करना, और कई अन्य चीजों के अलावा सरकार द्वारा संचालित मदरसों को सामान्य स्कूलों में परिवर्तित करना.

निश्चित रूप से, इन कदमों से उन्हें दक्षिणपंथी ईको-सिस्टम से तारीफ मिलती है. एक उदारवादी कांग्रेसी से उनका हिंदुत्ववादी कट्टर में परिवर्तन स्पष्ट रूप से उनके नए राजनीतिक परिवार को गौरवान्वित कर रहा है. असम के बाहर भी चुनाव प्रचार के दौरान उनकी काफी मांग है. अगर हम पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के असम कनेक्शन के तथ्य को नजरअंदाज कर दें – जहां से वह राज्यसभा के लिए चुने गए – तो पूर्वोत्तर राज्य से कोई अन्य नेता नहीं है जो राष्ट्रीय राजनीति में इस तरह से उभरा हो. सरमा से पहले असम का कोई भी नेता राज्य के बाहर भीड़ खींचने वाला नहीं था. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष डीके बरूआ को हर कोई याद करता है, लेकिन ऐसा उनकी ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ टिप्पणी के कारण है, इसलिए नहीं कि वह असम के बाहर अपनी पार्टी की झोली में कोई वोट डाल सके थे.

यही बात सरमा को अलग बनाती है. अब तक तो सब ठीक है. करीब तीन दशक पहले उन्होंने अपनी होने वाली पत्नी रिनिकी भुइयां से कहा था, “अपनी मां से कहना, मैं एक दिन असम का मुख्यमंत्री बनूंगा.” उसे हासिल करने के बाद उनके मन में अगला लक्ष्य भी ज़रूर होगा. सरमा को अब गृहमंत्री अमित शाह के शिष्य के रूप में देखा जाता है, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की टक्कर के उभर सकते हैं. हालांकि, सरमा ऐसा नहीं चाहते होंगे. इससे पहले कि हम इसके बारे में आगे बात करें, आइए अन्य राज्यों में उनके समकक्षों पर नजर डालें.

अन्य बीजेपी मुख्यमंत्री किसमें व्यस्त रहते हैं?

भजन लाल शर्मा का राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में चुना जाना काफी चौंकाने वाला था. अब वह ऐसे काम करते रहते हैं जिससे लोग चौंकते रहते पड़ते रहें. एक के बाद एक नीति की घोषणा करने में शर्मा इतने खो गए कि पहले एक महीने तक कैबिनेट की बैठक बुलाना ही भूल गए.

पिछले बुधवार को उन्होंने वीआईपी मूवमेंट विशेषाधिकार को खत्म करने का फैसला किया. शर्मा अब ट्रैफिक लाइट पर रुकते हैं और सुर्खियां बटोरते हैं.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव अपने पूर्ववर्ती सीएम शिवराज सिंह चौहान की छाप को मिटाने के लिए ओवरटाइम कर रहे हैं – बोर्डों और निगमों के 45 अध्यक्षों और उपाध्यक्षों को हटा दिया गया है, महत्वपूर्ण पदों पर नौकरशाहों के एक नए समूह को लाया जा रहा है, और कई जिला कलेक्टरों व पुलिस अधीक्षकों को हटा दिया गया है ताकि यह संदेश दिया जा सके कि नौकरशाही को अपने कामकाज के तरीके में बदलाव करना होगा.

दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार, यादव ने शनिवार को राजस्थान के पुष्कर में अपने बेटे की शादी का जश्न मनाया, “हंसता हुआ नूरानी चेहरा/काली जुल्फें रंग सुनहरा/तेरी जवानी, तौबा रे तौबा” की धुन पर नाचते हुए. उन्होंने वीआईपी संस्कृति से दूर रहने के बारे में संदेश देने के लिए पुष्कर को चुना.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सोचते होंगे कि जब उनका राज्य समान नागरिक संहिता लागू करने वाला पहला राज्य बन गया – गोवा को छोड़कर, जहां यह लंबे समय से लागू है – तो वह संघ परिवार में सबकी आंखों का तारा बन गए हैं. उन्होंने ‘लव जिहाद’ के खिलाफ ‘कड़ी कार्रवाई’ की चेतावनी दी है और ‘लैंड जिहाद’ जैसे शब्द गढ़े हैं.

छत्तीसगढ़ के नवनियुक्त मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने अपने राज्य में धर्मांतरण रोकने की कसम खाई है. छत्तीसगढ़ में धर्म परिवर्तन को रेग्युलेट करने के उद्देश्य से एक प्रस्तावित कानून उन लोगों के लिए कई शर्तें लगाता है जो धर्म परिवर्तन (ईसाई धर्म में) करने की योजना बना रहे हैं, लेकिन घर वापसी या हिंदू धर्म को फिर से अपनाने वालों के लिए यह प्रक्रिया काफी आसान बनाई है.

भाजपा के कई अन्य मुख्यमंत्री पार्टी अध्यक्ष जे.पी.नड्डा के नक्शेकदम पर चल रहे हैं – लो प्रोफाइल रहें, कुछ न करें और अस्तित्व बचाए रखने व संभवतः आगे बढ़ने के लिए आदेशों का पालन करें. इस श्रेणी में गुजरात के भूपेन्द्र पटेल, हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर, अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू, गोवा के प्रमोद सावंत और त्रिपुरा के माणिक साहा को रखा जा सकता है. बेशक, मणिपुर के सीएम एम बीरेन सिंह की अपनी ही एक श्रेणी है. यह माना जाता है कि उन्हें शाह का आशीर्वाद प्राप्त है, लेकिन वह जो मणिपुर में कर रहे हैं उससे देश के गृहमंत्री के रूप में अमित शाह के रिकॉर्ड को खराब कर रहे हैं.

हार्डलाइनर्स की एक्सपायरी डेट

कभी कांग्रेसी रहे असम के मुख्यमंत्री को यह लगता होगा कि वैचारिक निष्ठा (Ideological Loyalty) और हिंदू हार्डलाइनर बनना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बड़े संघ इको-सिस्टम को खुश करेगा. लेकिन उन्हें ग़लत लगता है. बीजेपी में अधिकांश नेताओं को कट्टर सोच वाला होने का एक सीमा के बाद कोई फायदा नहीं हुआ है. यदि कल्याण सिंह जीवित होते, तो उन्होंने सरमा को बताया होता कि कैसे दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश के सीएम के रूप में अपना पद खोना पड़ा और सात साल बाद उन्हें अपनी पार्टी बनानी पड़ी. हिंदुत्व के आइकन रहे कल्याण सिंह बाद में पार्टी में लौट आए, लेकिन एक बहुत कमजोर नेता के रूप में. इसके बाद उनका करियर राज्यपाल के रूप में बीता, और वह राजनीतिक रूप से लगभग गुमनाम ही रहे.

तब उमा भारती फायरब्रांड नेता मानी जाती थीं, जो कभी बाबरी विध्वंस मामले में आरोपी थीं, और जिन्होंने 2003 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को शानदार जीत दिलाई थी. उन्हें नौ महीने बाद ही इस्तीफा देना पड़ा था और कभी दोबारा वह कुर्सी हासिल नहीं कर पाईं. आख़िरकार यह सीट एक उदारवादी शिवराज सिंह चौहान को दे दी गई, जिन्हें आख़िरकार 2023 में इसे खाली करना पड़ा, जब वह एक हार्डलाइनर बनने की कोशिश कर रहे थे. अंततः भारती को मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में जगह मिल गई, लेकिन बाद में उन्हें वहां से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

कट्टर सोच वालों के साथ क्या होता है, यह समझने के लिए सरमा शायद राम मंदिर आंदोलन के तेजतर्रार नेता विनय कटियार से भी बात करना चाहेंगे. सरमा भोपाल की सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर से भी बात कर सकते हैं, जिन्हें भाजपा से टिकट मिला और उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह जैसे राजनीतिक दिग्गज को हराया. लेकिन उन्हें पिछले एमपी विधानसभा चुनाव अभियान से दूर रखा गया और 2024 में हो सकता है कि उन्हें दोबारा अपनी से लड़ने का टिकट ही न मिले. ऐसे कई उदाहरण हैं.

यह सिर्फ मोदी युग में ही नहीं हो रहा है. भाजपा में हार्डलाइनर्स की हमेशा एक एक्सपायरी डेट रही है. सरमा पीएम मोदी के दिमाग को नहीं पढ़ सकते हैं, लेकिन वह इस तथ्य को नहीं भूल सकते कि मोदी के मंत्रिपरिषद में जगह बनाने वाले कई हार्डलाइनर शांत हो गए हैं – कम से कम दूसरे कार्यकाल के दौरान. वह गिरिराज सिंह, अनुराग ठाकुर या साध्वी निरंजन ज्योति समेत अन्य लोगों से इस बारे में बात कर सकते हैं.

योगी से सबक

असम के मुख्यमंत्री को यह अहसास होना चाहिए कि संघ उन लोगों को पसंद करता है जो विकास की राजनीति को आगे रखते हैं और हिंदुत्व को तड़का या मसाला के रूप में उपयोग करते हैं. 2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी की राजनीति पर नजर डालें. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे अच्छी तरह से समझा है और इसलिए वह एक हिंदू हार्डलाइनर से विकास पुरुष के रूप में अपनी छवि बदलने पर काम कर रहे हैं. योगी 2.0, योगी 1.0 से बहुत अलग है, जिन्होंने एंटी-रोमियो स्क्वॉड बनाए, नागरिकता संशोधन अधिनियम विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सख्त पुलिस कार्रवाई की और मुस्लिम घरों पर बुलडोज़र चलाया. अपने दूसरे कार्यकाल में, मोदी की तरह, योगी आदित्यनाथ भी एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में अपनी छवि बना रहे हैं, जो यूपी को 1 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने पर केंद्रित है.

सरमा के लिए भी यही आगे का रास्ता है. राज्य के बजट 2024-2025 पर बोलते हुए उनका यह दावा सही था कि 2016 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से असम की आर्थिक वृद्धि लगातार राष्ट्रीय जीडीपी विकास दर से अधिक रही है और प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो गई है. पिछले दशक में प्रति व्यक्ति आय में सबसे तेज वृद्धि वाले भारत के शीर्ष 10 राज्यों में बिजनेस टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, असम पांचवें स्थान पर है. राज्य की प्रति व्यक्ति आय 11.77 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) के साथ वित्त वर्ष 2013 में 38,945 रुपये से 204 प्रतिशत बढ़कर 1.19 लाख रुपये हो गई है. भारत के लिए सीएजीआर 9.3 प्रतिशत है. 2024-2025 के लिए असम का सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 13 प्रतिशत की प्रभावशाली वृद्धि दर्शाता है. ऐसे कई अन्य संकेतक हैं जिन पर असम ने सरमा के नेतृत्व में – पहले वित्त मंत्री (2016-2021) के रूप में और फिर सीएम (2021 के बाद) के रूप में – अच्छा प्रदर्शन किया है.

बेशक, सरमा के पास अभी तक विकास का गुजरात जैसा असम मॉडल या यहां तक कि यूपी मॉडल भी नहीं है. उसे अभी के लिए बेहतरीन प्रदर्शन करना होगा. 2024 के लोकसभा चुनाव में अयोध्या राम मंदिर बीजेपी का प्रमुख मुद्दा है. पार्टी चुनाव से पहले अपनी इस तेज़ी और गति को कम नहीं होने दे सकती. इससे विभिन्न राज्यों से ध्रुवीकरण की स्टोरीज़ को तैयार करने के प्रयासों को समझा जा सकता है, जो हिंदुओं के अयोध्या में ऐतिहासिक गलती को सही करने में मोदी सरकार की भूमिका के महत्व और तीव्रता की याद दिलाता रहेगा.

राजनीतिक अनिवार्यताएं भी हैं. असम जैसे राज्य में जहां एक तिहाई आबादी मुस्लिम है और बदरुद्दीन अजमल जैसी ध्रुवीकरण करने वाली शख्सियत भी है, बिना दूसरे पक्ष को उकसाए सांकेतिक रूप से अपने संदेश को अपने वोटर्स तक पहुंचाने वाली राजनीति फायदेमंद हो सकती है. लेकिन सरमा को याद रखना चाहिए कि मोदी पूरी तरह से श्री अरबिंदो के आध्यात्मिक हिंदुत्व के समर्थक हैं, भले ही भाजपा और संघ में उनके कितने ही सहयोगी सावरकर के राजनीतिक हिंदुत्व को पसंद करने वाले हों. यह आज मोहन भागवत के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बारे में भी सच है. यह छोटा सा बदलाव कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन हिमंत बिस्वा सरमा को पहले फैसला करना होगा कि क्या उन्होंने पहले से निर्धारित अपने लक्ष्य (जैसा कि उसने तीन दशक पहले अपनी पत्नी को बताया था) को हासिल करना काफी है या वह अब अगला लक्ष्य निर्धारित करके उस पर आगे बढ़ना चाहते हैं.

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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