हाल ही में हुए बोडोलैंड काउंसिल चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के सफल प्रदर्शन ने एक बार फिर दिखा दिया है कि क्यों पूर्वोत्तर में उसके मुख्य रणनीतिकार, हिमंता बिस्वा सरमा, उत्तरोत्तर पार्टी के लिए अपरिहार्य बनते जा रहे हैं. वह बड़ी तेजी से राजनीतिक और चुनावी दृष्टि से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बाद पार्टी के सर्वाधिक चतुर शख्सियत के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं.
अगर मोदी-शाह से शुरू करते हुए राज्यों तक भाजपा नेतृत्व पर गौर करें, तो बमुश्किल ही किसी में हिमंता बिस्वा सरमा के समान राजनीतिक रणनीतिकार वाली प्रतिभा दिखती है. असम में मंत्री के रूप में वित्त, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विभाग संभालने वाले सरमा कठिन परिस्थितियों में भी सफल चुनावी अभियानों का नेतृत्व करने की अपनी क्षमता तथा प्रशासन और शासन के अपने अनुभवों के कारण बाकियों से आगे नज़र आते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक ‘बाहरी’ होने के बावजूद वह भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति में पूरी तरह फिट बैठते हैं. हिमंता बिस्वा सरमा, जिन्होंने 2015 में कांग्रेस पार्टी छोड़ी थी, शायद मोदी-शाह द्वारा हाल के वर्षों में पार्टी में लाए गए सर्वश्रेष्ठ नेता और वर्तमान में उनकी टीम की अहम प्रतिभाओं में से एक हैं.
बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद के लिए दो चरणों में 7 और 10 दिसंबर को हुए मतदान में भाजपा ने असम में अपनी जीत का सिलसिला जारी रखा. पार्टी 40 सीटों में से 9 पर जीत हासिल कर किंगमेकर बनकर उभरी, जबकि 2015 में उसे यहां एक ही सीट मिली थी. हिमंता बिस्वा सरमा ने कोविड-19 महामारी के बावजूद बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र (बीटीआर) में पार्टी के आक्रामक अभियान का नेतृत्व किया.
मोदी की लोकप्रियता और अमित शाह की चुनावी रणनीति की बदौलत भाजपा का विजयरथ फिलहाल थमता नहीं दिखता, लेकिन एक समय आएगा पार्टी खुद अपने अगले चुनावी मास्टरमाइंड को लेकर सवाल करेगी. और इस दृष्टि से हिमंता बिस्वा सरमा एक भरोसेमंद विकल्प के रूप में देखे जाएंगे.
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हिमंता होने का मतलब
हिमंता सरमा की राजनीतिक निपुणता की चर्चा के लिए छोटे स्तर का एक परिषद चुनाव क्यों महत्वपूर्ण है? बोडो क्षेत्र, 2016 से पहले के असम की तरह, शायद ही भाजपा के स्वाभाविक प्रभाव वाले इलाकों में शामिल रहा था. आदिवासी और स्थानीय समुदायों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में पांव जमाने के लिए भाजपा को बहुत संवेदनशीलता के साथ योजना बनाने की आवश्यकता थी. अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों का सेमीफाइनल माने जाने वाले इस चुनाव में ज़ोरदार परिणाम हासिल कर भाजपा ने दिखा दिया है कि उसे असम में किसी सहयोगी की आवश्यकता नहीं है. साथ ही, उसने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर मचे हंगामे के बावजूद पूरे राज्य में अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज कराई है.
कांग्रेस और छोटे क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व वाले पूर्वोत्तर में शुरू में भाजपा की कोई पैठ नहीं थी. फिर मोदी-शाह की शक्तिशाली जोड़ी के समर्थन से हिमंता सरमा – नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) के संयोजक – ने एक-एक कर राज्यों पर कब्जा करना शुरू किया, और देखते ही देखते भाजपा पूर्वोत्तर के सात राज्यों में से छह में सत्तारूढ़ हो गईं – या तो चुनावी जीत के ज़रिए या गठबंधन बनाकर. इनमें वामपंथियों को उनके गढ़ त्रिपुरा में सत्ता से बेदखल करने की कठिन लड़ाई में मिली जीत भी शामिल है.
इस प्रक्रिया में, हिमंता सरमा ने खुद को एक चतुर चुनाव प्रबंधक और मतदाता की नब्ज को समझने वाले एक राजनेता के रूप में स्थापित कर लिया. वह सीएए के बाद असम में बनी उथलपुथल की स्थिति तथा मणिपुर के हालिया राजनीतिक संकट को संभालकर भाजपा के लिए एक प्रमुख संकटमोचक भी साबित हुए हैं.
तीन बार के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के साथ निकटता से काम करने के अनुभव के कारण हिमंता बिस्वा सरमा की शासन और प्रशासन पर भी अच्छी पकड़ है, जो अपेक्षाकृत कम अनुभवी सर्बानंद सोनोवाल के मुख्यमंत्री होने के मद्देनज़र एक महत्वपूर्ण काबिलियत है.
स्वास्थ्य मंत्री के रूप में, हिमंता का असम में कोविड प्रबंधन भले ही सवालों के घेरे में रहा हो, लेकिन मोदी और अमित शाह की तरह वह इस तरह की कमियों को ढंकना, और आकर्षक राजनीतिक जुमलों और चतुर चुनावी योजना के सहारे बाकी बातों को पीछे छोड़ना सीख गए हैं.
भाजपा की कार्य प्रणाली में, यह महत्वपूर्ण है कि पार्टी के नेता एक समान दृष्टिकोण पेश करें, यानि बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्व की राजनीति. और हिमंता बिस्वा सरमा ने सतत बयानबाजी के साथ यह काम सफलतापूर्वक किया है. इस दृष्टि से ये उल्लेखनीय है कि किस चतुराई से उन्होंने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के कारण उभरे जातीय प्रश्न को सांप्रदायिक खांचे में बिठा दिया.
भले ही उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबंध नहीं रहा हो, जोकि शायद भाजपा में उनकी प्रगति की राह का सबसे बड़ा अवरोधक है, लेकिन उनमें दक्षिणपंथी पारिस्थितिकी तंत्र को खुश करने के लिए ज़रूरी तमाम विशेषताएं दिखने लगी हैं. जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, हिमंता राजनीति और चुनावों को लेकर अमित शाह के समान ही जोखिम और आक्रामकता भरा रवैया अपनाते हैं, जिसके कारण वह भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए एक उपयोगी शख्सियत बन गए हैं.
हिमंता बनाम अन्य
भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व पर नज़र डालने पर हिमंता बिस्वा सरमा का महत्व और अधिक स्पष्ट हो जाता है.
राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के पास राजनीतिक और प्रशासनिक कुशलता वाले नेताओं की कमी है. इसके युवा नेताओं के पास अनुभव, जनलोकप्रियता और राजनीतिक दक्षता का अभाव है, और यह बात किसी से छुपी नहीं है.
पार्टी के हिंदी पट्टी के मज़बूत क्षत्रपों — राजस्थान में वसुंधरा राजे, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह — को 2018 के विधानसभा चुनावों में मुंह की खानी पड़ी थी. चौहान भले ही फिर से मुख्यमंत्री बन गए हों, लेकिन इसका श्रेय शायद ही उनको जाता है.
छत्तीसगढ़ और राजस्थान में, भाजपा को दूसरी पांत के सक्षम नेताओं के अभाव का सामना करना पड़ रहा है. मध्यप्रदेश में, ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ आने से पार्टी को बड़ा फायदा हुआ है, खासकर इसलिए भी कि वे अपने वायदे को पूरा करने में कामयाब रहे. लेकिन पहले से ही भाजपा का गढ़ रहे किसी राज्य के क्षेत्र विशेष पर पकड़ होने — सिंधिया के मामले में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र — और एक बिल्कुल नए और प्रभाव क्षेत्र से बाहर रहे इलाके में पार्टी को जीत दिलाने, जैसा कि हिमंता ने करके दिखाया है, के बीच बड़ा अंतर है.
इसके अलावा, सिंधिया अभी भी भाजपा की ध्रुवीकरण की भाषा को अपनाने को लेकर सतर्क और सचेत रहते हैं.
गुजरात में, अभी भी मोदी का दबदबा है और मुख्यमंत्री विजय रूपानी सहित स्थानीय नेतृत्व कोई खास पहचान बनाने में कामयाब नहीं रहा है. महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस पार्टी के युवा और जाने-माने नेता हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में वे राज्य में भाजपा को सत्ता में वापस नहीं ला सके. जबकि दिल्ली और पंजाब में भाजपा खेमे में कोई बड़ा नेता नहीं है.
दक्षिण में कर्नाटक एकमात्र राज्य है जहां भाजपा सत्ता में है और वहां पार्टी एक ऐसे मुख्यमंत्री के शासन में आंतरिक गुटबाजी से जूझ रही है, जो जल्दी ही अपने राजनीतिक करियर की ढलान पर होगा. सांसद तेजस्वी सूर्या युवा और तेज़तर्रार हिंदुत्ववादी नेता हैं जिन्हें पार्टी उत्साहपूर्वक आगे बढ़ा रही है, लेकिन उन्होंने अभी तक कोई खास राजनीतिक या चुनावी कौशल नहीं दिखाया है.
इस दृष्टि से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निश्चय ही एक बड़ा नाम हैं और 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले उन पर सबकी निगाहें हैं. लेकिन, आदित्यनाथ के साथ समस्या यह है कि शासन का उनका रिकॉर्ड बड़ा ढीला-ढाला है, और उनकी राजनीति वास्तविक रणनीति निर्माण या स्मार्ट चुनाव प्रबंधन की बजाय पूरी तरह से विभाजनकारी हिंदू-मुस्लिम थीम पर आधारित है.
इस तरह हिमंता बिस्वा सरमा अपने राजनीतिक कौशल के कारण अपने पार्टी सहयोगियों के लिए सबसे बड़े चुनौती बन सकते हैं. हो सकता है कि उनकी चर्चा आदित्यनाथ या हिंदी पट्टी के अन्य पार्टी नेताओं जितनी नहीं होती हो, लेकिन मोदी और अमित शाह के बाद भाजपा में वह एक ऐसे नेता हैं जिन पर कि आगे ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) (व्यक्त विचार निजी हैं)
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