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Wednesday, 20 November, 2024
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भारत में मुसलमानों के लिए हिजाब इस्लाम से ज्यादा ‘वे बनाम हम’ का मामला है

हिजाब पहनने के लिए ज़ोर देना धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक मामला ही है इसलिए इसका विरोध भी धार्मिक नहीं है, इस्लाम के खिलाफ नहीं है बल्कि राजनीति का मामला है.

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8वीं सदी सीई में बगदाद में हुए सूफ़ी संत सरी अल-सकटी ने कहा था, ‘ऐ खुदा, अगर तुम्हें मुझे किसी चीज से तकलीफ ही देनी है तो हिजाब पहनने की शर्म मत झेलने देना.’ इस उक्ति को अली इब्न अहमद अल-निसबुरी ने मुहम्मद इब्न जरीर अल-तबरी की किताब ‘तफ़सीर-उल कुरान’ के लिए लिखे गए परिशिष्ट में उदधृत किया है. सूफ़ी संत ने जब उक्त वाक्य कहा था तब उनके दिमाग में कुरान की दो आयतें थीं.

एक आयत है 83:15 जिसमें ‘क़यामत के दिन’ का जिक्र करते हुए काफ़िरों के बारे में कहा गया है कि ‘कुछ नहीं, उस दिन जरूर वे अपने रब से ओट में होंगे.’ यहां ‘ओट’ जो है वह ‘महजूब’ शब्द का पर्याय है यानी जिस पर हिजाब डाल दिया गया है. दूसरी आयत है 7:46, जिसमें कहा गया है कि क़यामत के दिन एक हिजाब दोज़ख वालों को जन्नत वालों से अलग करेगा.

मोरक्को की नारीवादी इस्लामी विदुषी फ़ातिमा मरनिस्सी को यह आश्चर्यजनक बात लगती है कि हिजाब जैसा शब्द, जो आध्यात्मिक ऊंचाई और दैवी गरिमा से अलग करने वाली मजबूत नकारात्मकता का संकेत देता है वह मुस्लिम पहचान का प्रतीक कैसे बन सकता है.

इसकी दो वजहें हैं. एक तो यह कि प्राचीन काल से कई समाजों में स्त्री को अलग-थलग और परदे में रखना शाही तहजीब और शराफत की निशानी मानी जाती रही है. प्राचीन मेसोपोटामिया के अलावा सस्सनीद और यूनानी साम्राज्यों की शाही औरतें इज्ज़त और ऊंची हैसियत के चिन्ह के रूप में बुर्का पहनती थीं. असीरियाई साम्राज्य में कानून बने हुए थे कि किस वर्ग की महिलाएं बुर्का पहन सकती थीं और किस वर्ग की नहीं. गुलाम औरतों और वेश्याओं को बुर्का पहनने की मनाही थी और अगर वे पहनतीं तो भारी जुर्माना भरना पड़ता. इसलिए परदा करना न केवल शाही दर्जे की निशानी थी बल्कि यह ‘इज़्ज़तदार’ और ‘सबके लिए उपलब्ध’ महिलाओं में फर्क भी स्पष्ट करती थी.


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इसे कुरान की आयत 33:59 के बरअक्स देखिए : ‘ऐ नबी, अपनी बेगमों और अपनी बेटियों और ईमान वाली औरतों से कह दो कि वे अपने ऊपर अपनी चादर (हिजाब) डाल लिया करें. इससे उन्हें पहचानना आसान हो जाएगा और वे सताई नहीं जाएंगी.’ इसके आगे की दो आयतों में ‘ढोंगी’ और ‘दिल से बीमार’ लोगों की निंदा की गई है और उन्हें चेताया गया है जो इन औरतों को सताने और बदनाम करने से बाज नहीं आते. नबी ऐसे लोगों के खिलाफ उठ खड़े होंगे और उन्हें मदीने से बाहर निकाल देंगे या उन्हें पकड़ कर मार डालेंगे. महिलाओं को सताने की घटनाओं ने मदीना को गृह युद्ध के कगार पर ला खड़ा कर दिया था. मोहम्मद कमजोर और बेसहारा महिलाओं को उस तरह सुरक्षा नहीं दे पा रहे थे जिस तरह क़बायली सामंतों के परिवारों की महिलाओं को दे रहे थे.

मेर्निस्सी कहती हैं, ‘हिजाब ढोंगियों की जीत का प्रतीक है. गुलाम औरतों को गलियों में सताना और उन पर हमले करना जारी था. इस तरह, मुस्लिम महिलाओं की आबादी दो वर्गों में बंट गई— एक वर्ग उनका था जो आज़ाद थीं और जिनके साथ ज़ोर-जबर्दस्ती की मनाही थी; और दूसरा वर्ग उनका था जो गुलाम थीं और जिनसे ज़ोर-जबर्दस्ती की इजाजत थी. हिजाब या बुर्का ‘बीमार दिल वाले’ अलग तरह से पेश आएं इसके लिए उनका रवैया बदलने की जगह हिजाब या बुर्का पहनाने ने इस्लाम के सभ्यता रूपी पहलू पर परदा डाल दिया.’

हिजाब की अहमियत इसलिए बढ़ती गई क्योंकि स्त्री देह को समुदाय की इज्जत से जोड़ दिया गया. हिजाब के साथ ताकत और विशेषाधिकार की जो आभा जुड़ गई, और स्त्री देह को जिस तरह इज्जत का प्रतीक बना दिया गया उसने आगे चलकर हिजाब के प्रति मुस्लिम सोच को परिभाषित कर दिया.

क्यों लोकप्रिय हुआ हिजाब

हिजाब को इधर जो लोकप्रियता मिली है और उसके समर्थकों ने उसके लिए जिस तरह टकराव का रवैया अपनाया है उसे दो संदर्भों से समझा जा सकता है— एक तो हिजाब के बारे में मुस्लिम समुदाय के सोच के संदर्भ में; दूसरे, धर्मनिरपेक्ष सत्तातंत्र और बहुसंख्यक समुदाय को संदेश देने की कोशिश के संदर्भ में.

मुस्लिम समुदाय में हिजाब तरक्की कर रहे लोगों की प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया. अगर समाज में इज्जत आधुनिक बनने से नहीं बल्कि इस्लाम को अपनाने से मिलती है, तो यह उस समुदाय के विकास की दिशा के बारे में बहुत कुछ कहता है. और अगर यह पितृसत्तात्मक मूल्य है तो रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता. सभी धर्मों में महिलाएं पितृसत्ता को मजबूत बनाने में हमेशा से बराबर की भागीदार रही हैं, बल्कि कुछ महिलाओं ने तो पितृसत्ता का इस्तेमाल दूसरी महिलाओं को सताने में किया है. सती प्रथा पर रोक से लेकर तीन तलाक को अपराध घोषित किए जाने तक बड़ी संख्या में महिलाओं ने प्रचलित सोच का साथ दिया है.

तमाम सांस्कृतिक लगावों और धार्मिक विवेक के बावजूद, आज का विशिष्ट हिजाब उस पारंपरिक सोच का ही प्रतिनिधित्व करता है, जिसके दो पहलू थे. एक तो परदा यानी उच्च वर्ग की महिलाओं का अलग दर्जा; दूसरा, नक़ाब यानी चेहरे को ढंकना. सिर पर रखने वाले कपड़े के लिए हिजाब शब्द का इस्तेमाल किसी इस्लामी साहित्य में नहीं किया गया है.

सवाल यह है कि क्या हिजाब कुलीनता का वह एहसास पैदा कर सकता है जो कभी परदा या नक़ाब पैदा करता था? यह इतना आम हो चुका है कि अब सामाजिक विशिष्टता का प्रतीक नहीं रह गया है. तो इससे आत्मसम्मान में वृद्धि का एहसास कैसे पैदा हो सकता है? वह भी धार्मिकता और धार्मिक पहचान के नये एहसास के साथ? हां, यह हिजाब समुदायों के बीच यानी मुस्लिम और गैर-मुस्लिम के बीच एक ‘बाड़’ जरूर बन गया है. यह अलगाव, बल्कि अलगाववाद, धर्म से प्रेरित है. यह सियासी है.

पहचान की सियासत यही तो है. भारत में और दुनियाभर में ऐसा ही है. हिजाब के लिए आग्रह और उसके प्रति विरोध, दोनों ही सियासी है. इसे थोपना और इसे खारिज करना, दोनों ही समान रूप से विचारधारा पर आधारित है, जिसमें व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के लिए कोई जगह नहीं है.

मुस्लिम-बहुल देशों में हिजाब को इसलिए थोपा गया है ताकि व्यवस्था को इस्लामी बनाया जा सके यानी यह पहचान की विचारधारा पर आधारित है. भारत जैसे देशों में, जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, या पश्चिमी देशों में, जहां वे प्रवासी के रूप में आए हैं, हिजाब को महिलाओं ने इसलिए अपनाया ताकि मेजबान समुदाय से अपने अलगाव को संस्थात्मक रूप दे सकें और उनके उदारवादी मूल्यों का फायदा उठाते हुए उनसे एकीकरण की सहज प्रक्रिया का प्रतिरोध कर सकें.

पसंद की बात

जहां तक हिजाब को पसंद के रूप में चुनने का सवाल है, उदारवाद के सिद्धांत के मुताबिक यह अधिकार व्यक्ति का है, न कि किसी समूह का. व्यक्तिगत पसंद के रूप में जिसे प्रस्तुत किया जा रहा है वह वास्तव में समूह की पहचान का प्रतीक है.

समाज की अपेक्षाएं, अभिभावकों का दबाव और विचारधारा की घुट्टी जैसी बातें वैधानिक आवश्यकता के मुक़ाबले ज्यादा मजबूत दबाव बना सकती हैं. हिजाब की पैरवी करने वाले लोग इसे इस्लाम का हिस्सा बताते हुए यह कभी नहीं कहते कि यह मुस्लिम महिलाओं के लिए महज एक विकल्प है. ईरान और अफगानिस्तान तो अपने यहां गैर-मुस्लिम महिलाओं को भी हिजाब के बिना निकलने नहीं देते. यहां तक कि उनके महिला शासकों को भी दूसरे देशों का दौरा करते हुए शरीआ के मुताबिक खुद को ढंकना पड़ा है. हाल में, ईरान के राष्ट्रपति अहमद रायसी ने सीएनएन की पत्रकार क्रिस्टीन अमनपौर को इंटरव्यू देने से माना कर दिया क्योंकि वे उनके सामने हिजाब पहनकर आने को तैयार नहीं थीं. पसंद-नापसंद का हाल यह है!

हम जब ईरान की बात कर रहे हैं तब एक बात साफ हो जानी चाहिए. मजहबी निजाम की ओर से सफाई देने वाले सही कह रहे हैं कि वहां विरोध कर रहीं महिलाएं इस्लाम के खिलाफ नहीं हैं लेकिन हिजाब को अत्याचार का औज़ार निजाम ने बनाया. वे ठीक कह रहे हैं. हिजाब को जलाने की घटनाएं उतनी ही सियासी रंग वाली हैं जितनी उसे थोपने की घटनाएं सियासी हैं. इसी तरह, भारत में जिन स्कूलों की यूनिफॉर्म निश्चित है उनकी लड़कियों को हिजाब पहनने के लिए ज़ोर देना भी धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक मामला ही है. इसलिए इसका विरोध भी धार्मिक नहीं है, इस्लाम के खिलाफ नहीं है बल्कि राजनीति का मामला है.

धर्म की आड़ में राजनीति इतनी गहरी हो चुकी है कि विचारधारा की घुट्टी पा चुकी महिलाएं पहचान की राजनीति की अगुआई कर रही हैं और यह भूल कर कि वे एक महिला हैं, वे अपनी सांप्रदायिक पहचान पर ज्यादा ज़ोर दे रही हैं.

नया कबीलावाद

उदारवादी सत्तातंत्र और उसकी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के खिलाफ बगावत को उसके वास्तविक रूप में देखा जाना चाहिए, चाहे वह किसी उदार-धर्मनिरपेक्ष मुहावरे में क्यों न ढला हो और सरकारी उदारपंथी उसे उदारवाद के नाम पर चाहे जैसे जायज ठहराते हों.

कैसी विडंबना है कि आधुनिकता, तार्किकता और धर्मनिरपेक्षता के ‘अलंबरदार’ माने जाने वाले उदारवादी समाज में प्रतिगामी प्रवृत्तियों का बचाव कर रहे हैं. ऐसा वे तब कर रहे हैं जब, उनके मुताबिक, संबंधित समुदाय को हाशिये पर डाल दिया गया है. वे प्रतिगामी प्रवृत्तियों को उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद के रहस्यमय सिद्धांतों के सहारे बौद्धिक रंग दे रहे हैं. लेकिन इस तरह की लुभावनी सैद्धांतिकता इस तथ्य को छिपा नहीं सकती कि उदारवादी अनुदारवादी बन गए हैं.

क्या उदारवाद उस अधिकृत उदारवादी जमात द्वारा जान-बूझकर किए जा रहे उलटफेर का सामना कर सकता है, जो अपनी प्रासंगिकता को बहाल करने और जनमत को दिशा देने वाले संस्थानों को वापस अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रही है? अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता को इसके लापरवाह एवं सिद्धांत विहीन समर्थन ने इसे अपूरणीय क्षति पहुंचाई है. ईरान में हिजाब के मसले पर इसकी चुप्पी आंखें खोलने वाली है. ये पश्चिमी देशों का उदाहरण देते हैं कि किस तरह वे अपने संस्थानों में महिलाओं के लिए ‘ड्रेस कोड’ तय करने के बावजूद हिजाब को अपवाद के रूप में कबूल करते हैं लेकिन इस्लामी धर्मतंत्र वाले ईरान में संघर्ष के बारे में ये पूरी तरह खामोश हैं.

ईरानी महिलाओं के हिजाब विरोधी आंदोलन ने इनके इस पसंदीदा तर्क की हवा निकाल दी है और यह दिखा दिया है कि हिजाब न तो धर्म के लिए जरूरी है और न व्यक्तिगत पसंद का मामला है. ईरानी महिलाएं कम धार्मिक नहीं हैं और उन भारतीय महिलाओं के मुक़ाबले कम सक्रिय नहीं हैं जो यह दावा करती रही हैं कि हिजाब के बिना उनके मजहब, व्यक्तिगत सम्मान और सामूहिक पहचान कमजोर पड़ जाएगी.

बेहतर यह होगा कि अधिकृत उदारवादी मुसलमानों से यह कहना बंद करें कि वे भारतीय सत्तातंत्र और बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ स्थायी लड़ाई छेड़ दें. अगर वे गंभीरता से यह मानते हैं कि मुस्लिम समुदाय को हाशिये पर डाल दिया गया है, तो वे उसके एकीकरण की प्रक्रिया शुरू करें और उसमें राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाएं. निरंतर टकराव की मुद्रा में रहने वाला अल्पसंख्यक समुदाय अपनी ही कीमत पर उदारवादी कुलीन तबके के निहित स्वार्थों की पुष्टि करता है.

अधिकृत उदारवादी नहीं चाहते कि मुस्लिम समुदाय में भी उदारवादी उभरें जो उस समाज की आलोचना करें और उसकी कमजोरियों को दूर करने के लिए आवाज़ उठाएं. वे खुद ही मुसलमानों के एकमात्र प्रवक्ता बने रहना चाहते हैं और उनके नाम पर सौदे करते रहें. आश्चर्य नहीं कि हिंदू उदारवादी मुस्लिम उदारवादियों को अपना दुश्मन मानते हैं, न कि अपना स्वाभाविक साथी. बल्कि मुस्लिम सांप्रदायिकतावादी उनका स्वाभाविक साथी है. वह भी केवल दिखावे के लिए. वास्तव में वह उनका प्यादा ही होता है.

लेकिन उदारवादियों के लिए, मुस्लिम समुदाय पहचान की राजनीति को क़बीलावाद की ओर वापसी ही है.

(इब्न खलदुन भारती इस्लाम के छात्र हैं, और इस्लामी इतिहास को भारतीय नजरिए से देखते हैं. वह @IbnKhaldunIndic हैंडल से ट्वीट करते हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)


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